स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
अथ किष्किन्धाकाण्ड
।पृथ्वीछन्दः।
भ्रमन्निविड़काननम्बहुलभोगिपञ्चानन
सतीजनशिरोमणिञ्जनकजां हि पृथ्वीजनिम्।
स्मरन्नतुलविक्रमः श्रितकनिष्ठबन्धूत्तमो
ददातु कुशलं सदा जगति दत्तमायाभ्रमः॥१॥
सुग्रीवबान्धवभयोत्तितघोरदुःख-
पाथाधिशोषणमहाबलकुम्भयानिः।
श्रीमद्रघूत्तमविलोकनदुःखशेषः
पायात्स मारुतसुतो धृतविप्रवेषः॥२॥
।चौपाइ।
लक्ष्मण – सहित राम रणधीर। गेला पम्पा – सरवर – तीर॥
मन विस्मययुत भेल तहिठाम। सानुज प्रभु कयलनि विश्राम॥
एक कोश परिपूरित वारि। हंसप्रभृति खग बस जलचारि॥
नित्यकृत्य कर कृत – जलपान। पुन उठि दुहुजन कयल प्रयाण॥
ऋष्यमूक पर्व्वत लग गेल। कपि सुग्रीव से देखयित भेल॥
गिरि – शिखरस्थ बहुत भय पाय। के ई थिकथि बुझल नहि जाय॥
वल्कल वसन जटा गिरि राज। तकयित तरुवन की अछि काज॥
धनुष बाण कर वीर महान। की वृत्तान्त न हो अनुमान॥
मन्त्री चारि विचारिय मन्त्र। अबयित छथि दुओ वीर स्वतंत्र॥
की जनु वैरि पठाओल बालि। जयता हमर जीव की घालि॥
जाउ निकट वटु बनि हनुमान। साधु असाधु करू मन ज्ञान॥
जौँ अनिष्ट बुझलासौँ आब। युगुतिहि तेहन जनायब भाव॥
गमहि पठायब राखब प्राण। से शुनि ततय गेला हनुमान॥
ब्राह्मण वेष सुलेख बनाय। विनय सदय गुणमय सन्न्याय॥
ईश्वर – लक्षण – लक्षित वेष। माया – मानुष रूप विशेष॥
भूमि-भार – हारक अवतार। दुहु जन उहसँ परम उदार॥
जगन्नाथ क्षत्रिय तन धयल। भ्रमयित वन आनन्दित कयल॥
अपनैँ नारायण नहि आन। हमरा यहन होइछ अनुमान॥
प्रतिपालक प्रभु धर्म्मक सेतु। एत आगमन क बुझल न हेतु॥
से शुनि प्रभु लक्ष्मण सौँ कहल। तखनुक उचित समय जे रहल॥
ई वटु पटु पण्डित बुधि बेश। सुवचन – रचन अशुद्ध न लेश॥
ई कहिकैँ तनिका दिश ताक। शुनु वटु उत्तर दैछि अहाँक॥
दशरथ नृपक पुत्र हम राम। अनुज हमर ई लक्ष्मण नाम॥
अयलहुँ दण्डक कहलनि तात। सङ्ग सती सीता विख्यात॥
तनिकाँ छलसौँ हरलक चोर। प्राणाधिक प्रेयसि से मोर॥
हुनका तकइत अयलहुँ आज। के अहँ ककर कहू की काज॥
से शुनि विहित वचन कह फेरि। श्याम गौर मुख – नीरज हेरि॥
ई गिरि पर छथि से कपिराज। चारि मन्त्रिवर तनिक समाज॥
बालिक भाय नाम सुग्रीव। देह दूइ एके जनु जीव॥
काम कालगति कहल न जाय। सोदर कयल अकथ अन्याय॥
जेठ भाय लेल सम्पति नारि। विकल पड़ल छथि बालिसौँ हारि॥
ऋष्यमूक गिरि शापक भीति। एतय न तैँ कय शकथि अनीति॥
पवनक तनय नाम हनुमान। हम सुग्रीवक मन्त्रि प्रधान॥
तनिक सङ्ग प्रभु मैत्री करिय। मित्र मित्र मिलि आपद तरिय॥
प्रभु हम सत्वर चललहुँ ततय। रुचि हो तौँ चलि ओ छथि जतय॥
कहल राम हम मैत्री करब। तनिकर कष्ट विकट झट हरब॥
अकपट प्रकट रूप सभ कहल। सुग्रीवक वृत्तान्त जे रहल॥
हमरा काँध चढ़िअ दुहु भाय। कपिपति निकट देब पहुचाय॥
प्रभु सौँ जेहन कहल हनुमान। सानुज तेहन कयल भगवान॥
पर्व्वत – शिखर उपर श्रीराम। जाय कयल तरुतर विसराम॥
।दोहा।
मुदित मनोरथ – सिद्धि सन, अति हर्षित मन आज।
महावीर कहु कहु कुशल, पुछल चकित कपिराज॥
।चौपाइ।
हाथ जोड़ि कहलनि हनुमान। छथि अनुकूल विष्णु भगवान॥
आधिक अवधि अन्त दिन आज। से प्रभु अयला अहँक समाज॥
करु करु मंत्री कपिपति जाय। आनल हम निज काँध चढ़ाय॥
साक्षी अनल बनल रहु मित्र। सकल अमानुष राम-चरित्र॥
संक्षेपहि कहलनि हनुमान। सानुज राम थिकथि भगवान॥
निर्भय चलू मित्रता करिय। बालिक गर्व्व सर्व अहँ हरिय॥
मन अति हर्षित तय कपीश। गेला जतय राम जगदीश॥
तरु-वर – शाखा लय कँहु हाथ। देल ताहि बैसला रघुनाथ॥
कुशल सकल बुझि बैसला दान्त। लक्ष्मण कहल सकल वृत्तान्त॥
शुनि सुग्रीव रामकेँ कहल। सब विधि करब सकल हम टहल॥
बैदेही जैँ विधि जे देश। अति सत्वर बुझि कहब सन्देश॥
सतत सहाय महा रण काज। अपनैँ सौँ सपनहुँ नहि व्याज॥
।शार्दूलवि-क्रीड़ित छन्द।
रे रे चोर कठोर छोड़ हमरा कानैत भीता छली।
हा आकाशक पन्थ राक्षस बली से दुष्ट-नीता छली॥
हा नै जानल गेल दुष्ट धरितौँ श्रीविश्वमाता छली।
मन्त्री सङ्ग यथार्थ देखल रमा सौन्दर्य्य सीता छली॥
।वसन्ततिलकाछन्द।
हा रामचन्द्र रघुनाथ अनन्त बेरी
कानैत बाजक अधानि जना बटेरी।
दिव्योत्तरो पट विभूषण फेकि देल
से कन्दरा-मध सुयत्न सौँ राखि लेल॥
।चौपाइ।
से शुनितहिँ माँगल रघुवीर। लयला अपनहि कपिपति चीर॥
प्रभु चिन्हितहि लेल हृदय मे राखि। हा हा जानकि जानकि भाखि॥
कयल विलाप कहय के पार। करुणामय करुणा विस्तार॥
से द्वितीय पट पाओल आज। दुःख कहै छी परिहरि लाज॥
जुआ एकान्त धरथि जे काँति। कण्ठपाश क्रीड़ारस राति॥
क्रीड़ा – श्रम हर व्यजन रतान्त। शय्या प्रणयक कलह नितान्त॥
लक्ष्मण कहल धैर्य्य धरु नाथ। उत्पत्ति स्थिति लय प्रभु हाथ॥
वानरेन्द्र बलवान सहाय। सुख दुख भोग देहकाँ पाय॥
भेटतिहि सीता थोड़हि काल। अरिगण मरता गर्व्व विशाल॥
प्रभु – विलाप शुनि कहल कपीश। मन करु थिरतर प्रभु जगदीश॥
हम मारब दशकन्धर जाय। सीता आनब अवसर पाय॥
अग्नि साक्षि मारुत सुत – आन। युगल सख्य भेल जीव समान॥
कपट – रहित मिलि मिलि एकठाम। बैसला कपिवर रघुवर राम॥
करब मित्र हम यत्न बहूत। महि सभठाम पठाओब दूत॥
रघुवर पुछलनि कहु कहु मित्र। देव देल की विपति चरित्र॥
कहयित छी हम बन्धु – कुचालि। हमरा जेठ भाइ छथि बालि॥
एक समय उपगत उतपात। मयसुत मायावी विख्यात॥
किष्किन्धा आयल अधराति। ललकारल निभय खल जाति॥
शुनल बालि रावण-अरि कान। कोप – विवश चलला बलवान॥
मारल एक मुका तहँ गाढ़। राक्षस विकल रहल नहि ठाढ़॥
बालिक बल बुझि खल भय पाय। भूधर – विवर समायल जाय॥
विवरहुमे ओ कयल प्रवेश। हमरा देलनि यहन निदेश॥
अँह यहिठाम रहू भरि पक्ष। रण – रिपु – मारण मे हम दक्ष॥
अवधिक अधिक दिवस बिति जाय।। तौँ जानब रण हारल भाय॥
स्नेह – विवश रहलहुँ भरिमास। विवरैँ रुधिर बहल भेल त्रास॥
शिलाखण्ड सौँ मूनल द्वार। गमहि गेलहुँ पुर भय विस्तार॥
मन्त्री – गण मिलि से मति धयल। कपि राजा हमरा एत कयल॥
किछु दिन बितला अयला गाम। के कह के शुन के कर साम॥
विकट विकट निकटहिँ पढ़ि गारि। मारल बिनु बुझलहि बड़ मारि॥
से सर्व्वस्व नारि लेल छीनि। हम भय रहलहुँ कौड़िक तीनि॥
के रक्षा कर के दे बास। सभकाँ मनमे बालिक त्रास॥
केवल यहि गिरिपर नहि आब। मुनि मातङ्ग क शाप प्रभाव॥
।सोरठा।
बालिक बुझि अन्याय, सुग्रीव क बुझि साधुता।
अछि लघु सहज उपाय, श्रीरघुनन्दन कहल तहँ॥
।चौपाइ।
अति अनुचित कर अहाँ काँ भाय। कत दिन निबहत ई अन्याय॥
खलबल बालि वीर हम मारि। अहँ कपिपति भोगब सुख नारि॥
कह सुग्रीव बालि – रण – रङ्ग। रावण जनि तट कीट पतङ्ग॥
जनि भुजबल अनुभव शुनु राम। त्रिभुवन के कर जन सङ्ग्राम॥
दुन्दुभि नामक राक्षस घोर। महामहिष उनमत अति जोर॥
रात्रि – समर-प्रिय वचन कठोर। दुर्ब्बल बालि वधिक हम तोर॥
किष्किन्धा आयल भेल मारि। बालिक कतहु समर नहि हारि॥
सत्वर जाय भाय खल धयल। हे प्रभु अकथ पराक्रम कयल॥
सिंह पकरि हरि धरणि पछारि। तनिक लेल तहँ मौलि उखारि॥
चरणैँ दावि तनिक लेल काय। फेकल तनिकर माथ घुमाय॥
योजन पर भय खसल से जाय। मातङ्गाश्रम बुझल न भाय॥
।सोरठा।
जानल मुनि मातङ्ग, बालि कुचालिक कर्म्म थिक॥
देलनि शाप अभङ्ग, मुनि आश्रम दुर्वृत्ति कर॥
।चौपाइ।
रुधिर महिष – शिर देखल जाय। कहल बालि केँ मुनि खिसिआय॥
जौँ यहि गिरिपर अयबह पूनि। रहतौ माथ न जनबह मूनि॥
यहि गिरिपर तैँ निर्भय वास। बहरयलैँ बालिक बड़ त्रास॥
कयल प्रतिज्ञा अहँ रघुनाथ। बालिक वध नहि कालहु हाथ॥
दुन्दभि – अस्थि देखायोल जाय। हिनका मारल हमरा भाय॥
प्रभु हसि चरण-अङ्गुष्ठ लगाय। फेकल खसल दश योजन जाय॥
बल आश्चर्य बुझल सुग्रीव। ई सामान्य थिकथि नहि जीव॥
तखन देखायोल सातो तार। रामक बाण बेधि भेल पार॥
कपिपति हर्षित शम – मति भाष। हे प्रभु मन नहि किछु अभिलाष॥
केवल भक्ति भजन नित करब। भव – समुद्र सुखसौँ सन्तरब॥
हे प्रभु कहइत हो मन लाज। नहि विभूति वनिता – सुख काज॥
कतय ज्ञान – सुख कत सुख – राज। सुत वित बन्धन सकल समाज॥
कपिवर रघुवर – पद अनुरागि। विषय – वासना देलनि त्यागि॥
मन विराग सुख दुःख समान। कपिपति पायोल उत्तम ज्ञान॥
।इति।
हरिः हरः!!