स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित ‘मिथिलाभाषा रामायण’
अरण्यकाण्ड
नवम् अध्याय
।दोबय छन्द।
रामचन्द्र वैदेही-विरही प्राप्त वनान्तर जखना।
घोर कबन्ध बाहु योजन भरि राक्षस देखल तखना॥
पड़ला तकरा बाहुपाशमे सानुज देखल आँखी।
की कर्त्तव्य कहू कहु लक्ष्मण प्रभु उठला ई भाखी॥
चरण – मौलि सौँ रहित लोथ अछि, वक्ष-स्थलमे आनन।
आन उपाय रहल नहि सम्प्रति, खाय चहै अछि कानन॥
लक्ष्मण कहल खड्ग सँ हिनकर, बाहु दुहूटा काटी।
यहन निशाचर शुनल कान नहि, की विश्वक परिपाटी॥
रामचन्द्र तनिकर दक्षिण भुज, लक्ष्मण काटल बाम।
विस्मित दैत्य पुछल भुज-कर्त्तक, के दुहु जन गुणधाम॥
पुरी अयोध्या दशरथनन्दन, राम लखन दुनू भ्राता।
एतय विपिन सौँ प्राणवल्लभा, हरलक खल दुखदाता॥
तनिकहि तकइत तकइत यहि वन, तुअ भुज-पञ्जर अयलहुँ।
प्राण-त्राण हेतु भुज काटल, सङ्कट सौँ बहरयलहुँ॥
विकट – रूप तोँ के छह से कह, यहन देखल हम आज।
श्रवणहुँ नहि छल तोहर रूप ई, देखल कानन – राज॥
हम गन्धर्व्व-राज शुनु हे प्रभु, यौवनदर्प्पित भेलहुँ।
अष्टावक्र देखल हम जखना, तखना हम हँसि देलहुँ॥
शाप देल तैँ राक्षस भेलहुँ, तुष्ट कहल भय हयबः।
त्रेता रामचन्द्र-दर्शन सौँ, अपन रूप काँ पयबः॥
इन्द्रक हम अपराधी भेलहुँ, कयलनि अशनि – प्रहारे।
माथ पयर सभ पेट समायल, बाहु रहल व्यवहारे॥
हम अवध्य ब्रह्माक देल वर, मुइलहुँ नहि तत्काले।
जठर मध्य मुह हयतौ तोहरा, कहलनि इन्द्र दयाले॥
।चौपाइ।
भल भेल भल कटि गेल बाँहि। रामचन्द्र प्रभु देल निवाहि॥
मोर मुह काठैँ भरि दिअ आब। तहिमे अनलक सङ्गति पाब॥
जरि जायब हम पायब रूप। पूर्व्व जेहन छल हे विभु – भूप॥
लक्ष्मण तेहन कयल तत्काल। भेल पुरुष एक कान्ति विशाल॥
सर्व्वाभरण – विभूषित देह। मनसिज सन सुन्दर छवि – गेह॥
नत साष्टाङ्ग भक्ति – मति – धाम। रामचन्द्र काँ कयल प्रणाम॥
स्तुति कत कयल हाथ दुहु जोड़ि। परमेश्वर देल बन्धन तोड़ि॥
धनुर्ब्बाणधर श्याम शरीर। जटिल सुवल्कल भूषण वीर॥
जेहन देखि पड़ अविरल ध्यान। तेहन सतत रह लोभ न आन॥
प्रभु शवरी सिद्धा यहिठाम। कहइक छोटि जाति ई नाम॥
भक्तिस्वरूपा से बड़ बूढ़ि। प्रभु – सेवा मे अति आरूढ़ि॥
रामचन्द्र कहलनि अहँ जाउ। मुनिजन – गम्य धाम काँ पाउ॥
शुनि प्रभु – वचन चलल गन्धर्व्व। तनिकर पूर्ण मनोरथ सर्व्व॥
।सोरठा।
चढ़ि रथ भानु समान, राम राम रटयित रसन।
धन्य धन्य भगवान, जे तारल खल अधम काँ॥
।इति।
हरिः हरः!!