रामचरितमानस मोतीः रुद्राष्टक

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रुद्राष्टक

पूर्व अध्यायक प्रसंग जाहि मे काकभुशुन्डिजी अपन पूर्व जन्म केर कथा – कौआक शरीर प्राप्तिक कारण उजागर करैत अपन गुरु प्रति श्रद्धा-समर्पणक अभाव केर बात कहि शिव मन्दिर मे गुरु प्रति अनादरक भाव देखि महादेवक कोप आ श्रापक वर्णन कयलनि, जाहि पर हुनक गुरु ब्राह्मणदेव केँ दया आबि गेलनि आ तेकर बाद –

१. प्रेम सहित दण्डवत्‌ कयकेँ ओ ब्राह्मण श्री शिवजीक सोझाँ हाथ जोड़िकय हमर भयंकर गति (दण्ड) केर विचार कय गदगद वाणी सँ विनती करय लगलाह –

छंद :
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥१॥

हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म आ वेदस्वरूप, ईशान दिशाक ईश्वर तथा सभक स्वामी श्री शिवजी! हम अपने केँ नमस्कार करैत छी। निजस्वरूप मे स्थित (अर्थात्‌ मायादिरहित), (मायिक) गुण सँ रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाशहि केँ वस्त्र रूप मे धारण करयवला दिगम्बर (अथवा आकाशहु केँ आच्छादित करयवला दिगम्बर)! हम अपने केँ सतत भजैत छी।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥२॥

निराकार, ओंकार केर मूल, तुरीय (तीनू गुण सँ अतीत), वाणी, ज्ञान आर इन्द्रिय सँ परे, कैलासपति, विकराल, महाकालहु केर काल, कृपालु, गुण सभक धाम, संसार सँ परे अपने परमेश्वर केँ हम नमस्कार करैत छी।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥३॥

जे हिमाचल केर समान गौरवर्ण तथा गंभीर छथि, जिनक शरीर मे करोड़ों कामदेव केर ज्योति एवं शोभा छन्हि, जिनक सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान छथि, जिनक ललाट पर द्वितीयाक चन्द्रमा आर गला मे सर्प सुशोभित अछि।

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

जिनक कान मे कुण्डल हिल रहल अछि, सुन्दर भ्रुकुटी आ विशाल नेत्र अछि, जे प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ आ दयालु अछि, सिंह चर्म केर वस्त्र धारण कयने आ मुण्डमाला पहिरने छथि, से सभक प्रिय आ सभक नाथ (कल्याण करयवला) श्री शंकरजी केँ हम भजैत छी।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मे, करोड़ों सूर्यक समान प्रकाशवला, तीनू प्रकारक शूल (दुःख) केँ निर्मूल करयवला, हाथ मे त्रिशूल धारण कएने, भाव (प्रेम) केर द्वारा प्राप्त भेनिहार भवानीक पति श्री शंकरजी केँ हम भजैत छी।

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥

कला सँ परे, कल्याणस्वरूप, कल्प केर अन्त (प्रलय) करयवला, सज्जन केँ सदैव आनन्द दयवला, त्रिपुर केर शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह केँ हरयवला, मोन केँ मथयवला, कामदेव केर शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होउ, प्रसन्न होउ।

न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

जाबत धरि पार्वतीक पति अपनेक चरणकमल केँ मनुष्य नहि भजैछ, ताबत धरि ओकरा नहि तँ इहलोक आ ने परलोक मे सुख-शान्ति भेटैत छैक आर न ओकर तापहि केर नाश होइत छैक। अतः हे समस्त जीव केर अन्दर (हृदय मे) निवास करयवला हे प्रभो! प्रसन्न होउ।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥८॥

हम नहि तँ योग जनैत छी, नहि जप आ न पूजे! हम त सदा-सर्वदा अपनहि टा केँ नमस्कार करैत छी। हे प्रभो! बुढ़ापा आ जन्म (मृत्यु) केर दुःख समूह सँ जरैत हम दुःखी केर दुःख सँ रक्षा करू। हे ईश्वर! हे शम्भो! हम अपने केँ नमस्कार करैत छी।

श्लोक :
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥९॥

भगवान्‌ रुद्र केर स्तुतिक ई अष्टक वैह शंकरजीक तुष्टि (प्रसन्नता) केर वास्ते ब्राह्मण द्वारा कहल गेल। जे मनुष्य एकरा भक्तिपूर्वक पढ़ैत अछि, ओकरा उपर भगवान्‌ शम्भु प्रसन्न होइत छथिन।

हरिः हरः!!