स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
रावण केँ मन्दोदरी द्वारा बुझेनाय, रावण-प्रहस्त संवाद
१. रावण केँ जखन ई खबरि लगलैक जे श्री रामजी समुद्र पर सेतुबन्ध बनबा लेलनि आ लंकाक सीमा पर आबि गेलाह त ओ घोर विस्मित होइत स्वतः बाजि उठैछ – वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश केँ कि सच्चे बान्हि लेलक? फेर अपन व्याकुलता केँ बुझि उपर सँ हँसैत सब भय केँ बिसरिकय रावण महल दिश गेल।
२. जखन मन्दोदरी सुनलीह जे प्रभु श्री रामजी आबि गेल छथि आ ओ खेले-खेल मे समुद्र केँ बान्हि लेलनि, तखन ओ हाथ पकड़िकय, पति केँ अपना महल मे लाबि परम मनोहर वाणी बजलीह। चरण मे सिर नमाकय ओ अपन आँचर पसारिकय कहली –
“हे प्रियतम! क्रोध त्यागि कय हमर वचन सुनू। हे नाथ! वैर ओकरे संग करबाक चाही, जे बुद्धि आ बल सँ जीतल जा सकय। अहाँ मे आ श्री रघुनाथ मे निश्चय एहेन अन्तर अछि जेना भगजोगनी आ सूर्य मे।
जे (विष्णु रूप सँ) अत्यन्त बलवान् मधु आर कैटभ (दैत्य) मारि देलथि आ (वराह ओ नृसिंह रूप सँ) महान् शूरवीर दिति केर पुत्र (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) केर संहार कयलनि, जे (वामन रूप सँ) बलि केँ बान्हि लेलनि आ (परशुराम रूप सँ) सहस्रबाहु केँ मारलनि, वैह (भगवान्) पृथ्वीक भार हरण करबाक लेल (रामरूप मे) अवतीर्ण (प्रकट) भेल छथि! हे नाथ! हुनकर विरोध नहि करू, जिनकर हाथ मे काल, कर्म आ जीव सब अछि।
श्री रामजीक चरणकमल मे माथ झुकबैत हुनका जानकीजी सौंपि देल जाउ आ अपन पुत्र केँ राज्य दयकय अपने सब वन मे जाय श्री रघुनाथजीक भजन करू।
हे नाथ! श्री रघुनाथजी त दीन पर दया करयवला छथि। सम्मुख (शरण) गेलापर त बाघो नहि खाइत अछि।
अहाँ केँ जे किछु करबाक चाहैत छल से अहाँ कय चुकल छी। अहाँ देवता, राक्षस आ चर-अचर सब केँ जीति लेलहुँ। हे दशमुख!
संतजन एहेन नीति कहैत छथि जे चौथापन (बुढ़ापा) मे राजा केँ वन मे चलि जेबाक चाही। हे स्वामी! ओतय (वन मे) अहाँ हुनकर भजन करू जे सृष्टिक रचनिहार, पालनहार आ संहारकर्त्ता छथि।
हे नाथ! अहाँ विषय सभक सबटा ममता छोड़िकय ओहि शरणागत पर प्रेम करनिहार भगवान् केर भजन करू। जिनका लेल श्रेष्ठ मुनि साधना करैत छथि आ राजा सब राज्य छोड़िकय वैरागी बनि जाइत छथि – वैह कोसलाधीश श्री रघुनाथजी अहाँ पर दया करय आयल छथि।
हे प्रियतम! जँ अहाँ हमर सीख मानि लेब त अहाँक अत्यन्त पवित्र आ सुन्दर यश तीनू लोक मे पसरि जायत।”
३. एना कहिकय नेत्र मे करुणाक नोर भरि पतिक चरण पकड़ि, काँपैत शरीर सँ मन्दोदरी आगू कहलखिन – हे नाथ! श्री रघुनाथजीक भजन करू, जाहि सँ हमर सोहाग अचल भ’ जायत। ताहि पर रावण मन्दोदरी केँ उठौलक आ ओ दुष्ट हुनका सँ अपन प्रभुता फेर सँ बखान करय लागल – हे प्रिये! सुनू, अहाँ व्यर्थहि डरा गेल छी। बताउ जे जगत् मे हमरा समान योद्धा अछि के? वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि समस्त दिक्पाल केँ तथा काल केँ सेहो हम अपन भुजाक बल सँ जीति लेने छी। देवता, दानव आ मनुष्य सब हमर वश मे अछि। फेर अहाँ केँ ई डर कोन कारण सँ उत्पन्न भ’ गेल?
४. मन्दोदरी रावण केँ बहुते विनती करैत रहली मुदा रावण हुनकर एकहु टा बात नहि सुनलक आर फेर सभा मे जाकय बैसि गेल। मन्दोदरी हृदय मे एना जानि लेली जे काल के वश मे हेबाक कारण पति केँ अभिमान भ’ गेल छन्हि। सभा मे आबिकय ओ मंत्री सब सँ पुछलक जे शत्रुक संग कोन तरह सँ युद्ध करय पड़त? मंत्री सब कहय लगलाह – हे राक्षस लोकनिक नाथ! सुनू, अपने बेर-बेर कि पुछैत छी? कहू त, एहेन कोन पैघ भय अछि, जेकर विचार कयल जाय? भय केर त बात कि अछि? मनुष्य और बानर-भालू तँ हमरा सभक भोजनक सामग्री थिक।
५. कान सँ सभक वचन सुनिकय (रावणक पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़िकय कहय लागल –
“हे प्रभु! नीति केर विरुद्ध किछुओ नहि करबाक चाही, मंत्री लोकनि मे बहुत कम बुद्धि छन्हि। ई सब मूर्ख (खुशामदी) मंत्र ठकुरसुहाती (मुँह देखि मुंगबा) कहि रहल छथि।
हे नाथ! एहि तरहक बात सब सँ काज नहि चलत। एक्के गो बंदर समुद्र लाँघिकय आयल छल। ओकर चरित्र सब कियो मने-मन गबैत रहैत अछि, स्मरण करैत रहैत अछि। ताहि समय अहाँ लोकनि मे सँ किनको भूख नहि लागल छल की?
बानर त अहाँ सभक भोजन छी, फेर नगर जरबैत समय ओकरा पकड़िकय कियैक नहि खा लेलहुँ? एहि मंत्री लोकनिक स्वामी अहाँ केँ एहेन सम्मति सुनौलनि अछि जे सुनय मे नीक लागत मुदा आगू चलिकय दुःख मात्र प्राप्त होयत।
जे खेले-खेल मे समुद्र बँधा लेलनि, आर जे सेना सहित सुबेल पर्वत पर आबि गेल छथि, हे भाइ! कहू ओ मनुष्य छथि, जिनका कहैत छी जे खा लेब?
सब गोटे गाल फुला-फुलाकय पागल जेकाँ बोल-वचन बाजि रहल छी! हे तात! हमर बात केँ खूब आदर सँ गौरपूर्वक सुनू। अपन मोन मे हमरा कायर नहि बुझि लेब। जगत् मे एहेन मनुष्य झुंडक-झुंड छैक जे मात्र प्रिय बात (मुंह पर नीक लागयवला) टा सुनैत-बजैत अछि।
हे प्रभो! सुनय मे कठोर लेकिन (परिणाम मे) परम हितकारी वचन जे सुनैत आर कहैत अछि, से मनुष्य बहुत कम अछि। नीति सुनू, नीति अनुसार पहिने दूत पठाउ, आर फेर सीता केँ दयकय श्रीरामजी सँ प्रीति (मेल) कय लिय’। यदि ओ स्त्री पाबिकय घुरि जेता, तखन व्यर्थक झगड़ा नहि बढ़ाउ। आ जँ नहि घुरथि तँ हे तात! सम्मुख युद्धभूमि मे हुनका संग हठपूर्वक (डटिकय) मार-काट कयल जाउ। हे प्रभो! यदि अपने हमर ई सम्मति मानि लेब, त जगत् मे दुनू तरहें अहाँक सुयश होयत।”
६. रावण तामस सँ भरिकय पुत्र प्रहस्त सँ कहलक – अरे मूर्ख! तोरा एहेन बुद्धि के सिखेलकउ? एखनहिं सँ हृदय मे सन्देह (भय) भ’ रहल छौक? अरे पुत्र! तूँ त बाँस के जड़ि मे कटैया (घमोई) भेलें, तूँ हमर वंशक अनुकूल-अनुरूप नहि भेलें।
७. पिताक अत्यन्त घोर आ कठोर वाणी सुनिकय प्रहस्त ई कड़ा वचन कहैत घर दिश चलि गेल जे “हित के सलाह अहाँ केँ केना नहि लगितय! मृत्युक वश भेल रोगी केँ दबाई के असर नहि होइत छैक। साँझक समय जानि रावण अपन बीसो भुजा केँ देखैत महल दिश चलि देलक।
८. लंकाक चोटी पर एक अत्यन्त विचित्र महल छल। जेतय नाच-गान केर अखाड़ा जमैत छल। रावण ओहि महल मे जा कय बैसि गेल। किन्नर सब ओकर गुणसमूह सब गाबय लागल। ताल (करताल), पखावज (मृदंग) और बीणा बाजि रहल अछि। नृत्य मे प्रवीण अप्सरा सब नाचि रहल अछि। ओ निरन्तर सैकड़ों इन्द्र केर समान भोग-विलास करैत रहैत अछि। यद्यपि (श्रीरामजी-जेहेन) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिर पर छथि, तैयो ओकरा न कोनो चिन्ता छैक आ नहिये कोनो डरे छैक।
हरिः हरः!!