हम आबि रहल छी – मैथिली धारावाहिक के भाग १५ सँ १८ धरि

मैथिली उपन्यास पर आधारित धारावाहिकः हम आबि रहल छी

– रवीन्द्र नारायण मिश्र

हम आबि रहल छी

(१५ सँ १८ भाग धरि)

15

ओहि दिनक घटनाक बाद हम अस्वस्थ भए गेलहुँ । कैकदिन धरि बोखार लागल रहल । बीच-बीचमे ओकील अबैत रहैत छल । हाल-चाल पुछि जाइत छल । अपना ओहिठामसँ हमर भोजनक ओरिआन सेहो कए देने छल । तीन दिनक बाद हमर बोखार उतरल । देहमे कनीको सक्क नहि लगैत छल । जेना-तेना ओसारापर पटिआ ओछा कए बैसल रही । थोड़बे कालक बाद मुखिआकेँ दलानपर ठाढ़ देखि हमरा चिंता होइत अछि।

“ई की करए आबि गेल?”- हम मोने-मोन सोचैत छी । ओ हमरा लग आबि कए बैसि जाइत अछि ।

“सुनलिऐक जे अहाँ दुखित पड़ि गेल छी । मोन भेल जे अहाँक हाल-चाल लेल जाए । असगर केना की करैत होएब?”

“आब ठीक छी। मुदा बहुत कमजोरी लागि रहल अछि।”

“बोखारमे तँ देहक दुर्गति भइए जाइत छैक ।”

मुखिआ झोरामे सँ समतोला, अनार, अररनेवा निकालि कए पटिआपर रखैत अछि ।

“ई सभ कतएसँ अनलह?”

“मधुबनी गेल रही । ओतहि बाटा चौकपर बिकाइत देखलिऐक तँ अहाँक ध्यान आएल ।”

“की भाओ देलकह?”

“भाओ नहि पुछू । आइ-काल्हि जँ भाओक हिसाब करब तँ किछु नहि कीनि सकब।”

“एतेक खर्चा करबाक कोन काज रहैक? हम कोनो अमर होमए अएलहुँ अछि । कतबो फल खाएब मुदा एक-ने-एक दिन तँ जेबाक अछिए । ओकील  सेहो बहुत रास फल अनने रहथि। काल्हि दरभंगा गेल रहथि। कोनो केस रहनि । ओतहि टावरपरसँ समतोला, सरीफा आ कहि ने की-की किनने अएलाह। सभटा ओहिना चौकीपर राखले अछि ।”

“ओकीले सँ अहाँक समाचार हमरो पता लागल छल । हम हुनका ओहिठाम गेल रही । शंकरबला कागज देखए देने रहिअनि। गप्प-सप्पक क्रममे अहाँक चर्चा सेहो होइत रहल।”

हमरा लग मुखिआकेँ बैसल देखि ओकील केँ नहि रहि भेलनि।

“कहीं ई दुनू आपसेमे किछु कए लेलक तखन.?” – ओकील मोने-मोन सोचथि । ओ अपन दलानपरसँ सहटि कए हमरा लग आबि गेलाह ।

“केहन मोन लगैत अछि भैया?”

“आब ठीक छी । एतेक आसानीसँ हमर प्राण थोड़े जाएबला अछि जे किछु होएत? हमरा ऐखन बहुत दुर्गति लिखल अछि । ओ पुण्यात्मा छलीह, गंगामे समाहित भए गेलीह, छोड़ि गेलीह हमरा एकसरि एहि दारुण जंजालमे अपन कर्मक फल भोगबाक हेतु ।”

“एना किएक बजैत छी? हमर सभक सौभाग्य जे अहाँ जीबि रहल छी । हम एतेक नेतघट्ट नहि छी । अहाँक उपकार कोना बिसरि सकैत छी? धन्यकेँ अहाँ जे हम ओकालतक परीक्षा दए सकल रही । अहीं हमर परीक्षाक फीस भरने रही । मानलहुँ जे आब समय बदलि गेलैक । हमरो धिया-पुता भेल, अहूँकेँ भेल। मुदा तेँ की? हम ककरोपर आश्रित थोड़े छिअनि । अपन योग्यतासँ कमाइत छी, खाइत छी ।”

ओकील केँ हमरा लग बैसल देखि मुखिआ जाए लगलाह।

“किएक उठि गेलहुँ? हम तँ अहींकेँ देखि कए आएल रही। भेल जे सभगोटेकेँ आमने-सामने बात भए जाएत।”

“मुदा ई समय ताहि लेल उपयुक्त नहि अछि । फेर कखनो गप्प कए लेब । हमसभ कतहु जा थोड़े रहल छी?”

हम बकर-बकर ओकील आ मुखिआक गप्प सुनैत रहलहुँ।

मुखिआ उठि जाइत छथि । ओकील  हुनकासँ किछु एकांती करैत छथि । दुनूगोटे हँसैत छथि । मुखिआ चलि जाइत छथि । ओकील हमरा लग आबि कए पटिआपर बैसि जाइत छथि –

“अहाँ कोनो बातक चिंता नहि करू । कानून आब बूढ़क रक्षा करैत अछि। एक बेर थानामे दर्खास्त देबैक कि सभ अंदर भए जाएत । सभ लिखल-पढ़ल धएले रहि जेतैक । ऊपरसँ जहल जेबाक जोग सेहो बनि सकैत छैक ।”

“तूँ हमर बात बूझि नहि रहल छह आ कि बूझए नहि चाहैत छह?”

“से की?”

“हौ बेटाकेँ जखन जहले पठा देबैक तखन हम कौआ जकाँ असगरे जीबिए कए की करब? हमर जे किछू अछि से तँ ओकरे छैक । तखन तँ रहल हमर बात । से देखल जेतैक । हम हीराकेँ समाद दैत छिऐक । ओकरोसँ पुछि लैत छिऐक । फेर जे मोन होएत से करब । नहि कोनो आन उपाय देखाएत तँ वृंदावन चलि जाएब । ओतहि कहिओ टगि जाएब ।  “मरनो भलो बिदेशमे, जहाँ न अपनो कोई ।” हमरा लेल तूँ बेसी परेसान नहि रहह ।”

ओकील  हमर बात सुनि उदास भए गेलाह । ओ तँ सोचथि जे दुखिताह मोनमे  हम हुनकर बातकेँ नहि टारि सकब। मुदा जखन हम फेर शंकरेक चर्च कए देलिअनि, हीरासँ गप्प करबाक बात केलिअनि तँ ओ चुप्प भए गेलाह । एक बेर अपना दिस, एक बेर हमरा दिस देखैत रहलाह । फेर हाथमे लिफाफा लेने अपन दलानपर वापस चलि गेलाह ।

16

हम बिचला घरमे असगर चौकीपर बैसल रही । सामने देबालपर हमर परिवारक फोटो टांगल रहए । ई फोटो हमसभ दरभंगामे खिचओने रही । अखनो मोन पड़ैत अछि ओहि दोकानपर पहुँचबासँ पहिने टावरपर हमसभ लस्सी पिने रही। लगपासक दोकानसभमे किछु-किछु किनने रही । तखन ओएह कहलनि – “चलू, हमसभ एकटा अपन परिवारक सामुहिक फोटो खिचा लैत छी । हम, हमर पत्नी आ दुनू बच्चाक फोटो टावर लगक नामी आर्ट गैलरीमे खिचओने रही । ताहि समयमे फोटो खिचाएब ओतेक आसान नहि रहैक । टाका सेहो बहुत लगैक। फोटोक दूटा प्रति बनबओने रही । दुनूमे फ्रेम लगबओने रही । एकटा फोटो हमर सासु लए लेने रहथि । दोसरकेँ ओएह बिचला घरमे टांगि देने रहथि । तहिआसँ  घरमे की-की ने भेल । मुदा ई फोटो जस-के-तस टांगल अछि । ओहि फोटोक टांगएबाली कहि नहि गंगामे कतए बिला गेलीह । हीरा अपन सासुर चलि गेलि आ शंकर? कहि नहि हुनकर स्थिति आ परिस्थिति केहन अछि? सुनलिऐक जे केरलक क्रिश्चन सँ बिआह कए लेलक। आब सुनैत छिऐक जे ओ सभ अखन लिभ-इन-रिलेशनमे अछि। माने जे जेना दोकानपर कोनो चीज-वस्तु अटकारैत छी, तखनहि किनैत छी आ कैकबेर खराप निकलि गेल तँ फेरि दैत छिऐक, सएह बात । जँ लिभ इन बला संगी पसिंद नहि पड़लनि तँ  बाइ-बाइ कए देल जाएत । आएल पानि, गेल पानि बाटे बिलाएल पानि । एकटा अपना लोकनिक समय छल जे कहल जाइक जे बिआह जन्म-जन्मक संबंध होइत अछि । तेँ पतिकेँ मरलोपर ओकरे प्रति निष्ठावान रहबाक प्रयास होइक । ओहो एकटा अतिए रहैक । मुदा शंकर जे केलक वा कइए रहल अछि सेहो तँ हदे केलक अछि । अपन संस्कृतिक सत्यानाश केलाक बादो हाथमे की अएतेक तकर कोन ठेकान? एहि हालतिमे हम ओकरापर कोना विश्वास करू? कोना सभकिछु बेचि-बिकनि ओकरासंगे रहबाक हेतु ओकर डेरापर दिल्ली चलि जाउ? जकर अपने कोनो ठेकान नहि छैक, तकर संग धेलासँ तँ विनाशे होएत? हीरा रहि-रहि फोन करैत रहैत अछि जे हम ओकरे ओहिठाम चलि आबी । बेटीक ओहिठाम जा कए रहब हमरा उचित नहि बुझाइत अछि । कहि नहि ओकर परिवारक की परिस्थिति अछि? फेर ओकर सासु-ससुर सेहो संगे रहैत छथि । एकहि घरमे नीचाँ सासु-ससुर आ ऊपर ओ सभ अपने रहैत अछि। मानलहुँ जे हीरा डाक्टर अछि, स्वयं कमाइत अछि । मुदा ताहि सँ की?

आब ओ फोटो असगर भए गेल अछि – ओहिना जेना हम असगर छी । हमही ओकरा देखैत छी, कहिओ काल ओकरापर सँ गरदा झाड़ैत छी, आ फेर ओकरा यथावत टांगि दैत छी । कैकबेर मोन भेल जे परिवारक स्मृतिक एहि भग्नावशेषकेँ पेटीमे राखि दी, बंद कए दी  जाहिसँ ओ बेरि-बेरि हमरा परेसान नहि कए सकए? कैक राति हम ओहि फोटो देखि-देखि प्रात केने छी । होअए जेना ओहि फोटोसँ ओ निकलतीह, हमरा लग आबि कए बैसि जेतीह, पुछतीह – “चाह पिबैक?” हम किछु बजितहुँ ताहिसँ पहिने दू कप भफाइत चाह लेने अबितथि । दुनूगोटे चाह पीबितहुँ, तरह-तरह के गप्प करितहुँ । आगूक योजना बनबितहुँ। दुनू बच्चासभक शिक्षाक विषयमे सोचितहुँ । ओ कहितथि – “अपन दुनू नेना ततेक तेजगर अछि जे ओ सभ नाम कइए कए रहत । हमरा लोकनिकेँ आओर चाही की? बच्चासभ बनि जाए, अपन-अपन जिनगी चलाबए तँ हमरासभ हेतु तँ सरकारक देल पेनसने पर्याप्त रहत । की करब आओर लए कए? पेनसने नहि सठत । मुदा ई समय ककरो नहि । ओ चलि गेलीह, अकस्मात । तेना ने गंगामे समा गेलीह जे श्राद्धो करब मोसकिल भए गेल । पंडितसभ निर्णय केलक जे बारह वर्ष हुनकर प्रतीक्षा करए पड़त । जँ ताधरि नहि भेटलीह तखन हुनकर श्राद्ध कएल जाएत । नेना दुनू अपन-अपन रस्ता धेलक। रहि गेलहुँ हम – भूत, वर्तमान आ भविष्यक चक्रव्यूहमे ओझराएल नितांत असगर । मोनक सपना-सपने रहि गेल ।

समाजक जे हाल अछि से देखिए रहल छी । ई मुखिआ तँ कहिआसँ हमर  संपत्तिपर  बकोदृष्टि रखने अछि आ ओकील तँ हमर पितिऔतौ भेल । ओ तँ तेहन-तेहन नाटक करैत अछि जकर वर्णन करब मोसकिल थिक । कखनहु बेटा लगा कए सपथ खाए लागत । कखनहु बाबा बैद्यनाथकेँ बीचमे आनि लेत। मुदा अछि ओ नेतक बैमान । मोटा-मोटी ओकर कहब जे हम ओकर परिवारमे सामिल भए जाइ । अपन बेटा-बेटीकेँ बिसरि जाइ आ जे किछु संपत्ति हमरा अछि से भातिजक नामे लिखि दिऐक । ओकरे अपन कर्त्ता घोषित कए दिऐक । जाहिसँ हम सोझे स्वर्ग जाएब । कारण शंकर तँ आब क्रिश्चनसँ बिआह केलाक बाद श्राद्धक अधिकारी रहलाह नहि । जँ ओ पिंडदान करबो करताह तँ हमरा पैठ होएत नहि ।

जखन कखनहु हमरा शंकरक उठापटकपर ध्यान जाइत अछि तखन तुरंत हमरा ओकर माएक बात मोन पड़ि जाइत अछि। ओ सदिखन कहैत रहैत छलीह – “हम नहिओ रहब तँ अमर आत्मा शंकरेमे विद्यमान रहत । अहाँ एकर नीकसँ पालन-पोषण करब । ओ किछु गलती कए दिअए तँ तकरा मोनमे नहि धरब । ओकरा अज्ञानी बूझि कए माफ कए देबैक । आखिर अछि तँ ओ अपने सभक संतान ।” एहिबेर गंगोत्रीक यात्रासँ पूर्व ओ हमरा एकटा पेटी देने रहथि आ कहने रहथि-एहि पेटीकेँ अहाँ अपने हाथे पुतहुकेँ दए देबनि ।

 “से किएक? अहाँ कतए जा रहल छी?”

“छोड़ू ओ गप्प-सप्प । जे कहैत छी से सुनू । एकरा सम्हारि कए राखि लिअ ।”

हम पेटीकेँ संदुकमे राखि देलिऐक । ओहिमे की छैक की नहि से हमरो नहि बूझल अछि । मुदा हुनकर एहि अंतिम इच्छाक सम्मान केना करब से नहि बुझा रहल अछि ? पुतहु छथि कि नहि छथि, छथि तँ के छथि ? सएह नहि बुझा रहल अछि । एक हिसाबे ई पेटी हमरा बान्हि लेने अछि । हुनकर अंतिम इच्छाक पालन करबेक अछि, कोना नहि करबनि? ताहि हेतु कोनो मूल्य अदा करए पड़त तँ अवश्य करब । नहि तँ जन्म-जन्म हमरा शांति नहि भेटि सकत । मरलोपर हम ओहिना बौआइत रहि जाएब – अशांत, असंतुष्ट ।

17

गाममे असगर रहैत-रहैत मोन  कोनादनि भए गेल । किछु करबाक, बजबाक मोन नहि होअए । कखनो काल ओकील अबैत छल । मुदा सदिखन किछु-ने-किछु घुरपेच लगेबाक चक्करमे रहैत छल । असलमे जखन मोन शुद्ध रहतैक तखन ने सही बात निकलितैक । सभ तँ अपने जोगारमे अछि ओ चाहे मुखिआ होअए वा ओकील होअए वा हमर पुत्र शंकर होथि । एहि परिस्थितिमे गंगे एहन लोक बुझाइत अछि जे बिना कोनो लोभ-लालचकेँ हमर ध्यान राखि रहल अछि । ओहि दिन दीपेंदुक संगे गेलाक बाद कैकबेर फोन केलक । हम कखनो फोन उठा लिऐक कखनो नहि उठा पबिऐक । एमहर कैकदिनसँ मोबाइल चार्ज नहि भेल रहैक । गंगा कैकबेर फोन केलक । मुदा फोन लगबे नहि करैक। ओकरा नहि रहल गेलैक । मंगलदिन भोरे-भोर हमरासँ भेंट करए आबि गेल ।  हम पोखरिदिससँ वापस आबि कए हाथ मटिअबैत रही कि गंगा देखाएल । ओकरा देखि मोनमे हुलास भेल।  ओहो हमरा देखि कए प्रसन्न बुझाइत छल ।

“गोर लगैत छी।” – गंगा बाजल ।

“नीके रहह । कैकदिनसँ तोरेपर ध्यान लागल रहैत छल। पहिने तँ तोहर फोन आबि जाइत छल तँ मोन हल्लुक भए जाए । मुदा एमहर कैक दिनसँ हमर फोन बंद पड़ल अछि ।”

“फोनमे की भेलैक?”

“कहि नहि की भेलैक?

“चार्ज नहि भेल होएत ।”

“भए सकैत अछि । असगर की-की करू । मोन नहि लगैत अछि । जकरे देखू सएह ठकबाक जोगारमे घुमि रहल अछि।”

“ई कलियुग छैक । घरे-घर इएह हाल छैक । हमरो गामक मालिकक इएह हाल छनि।”

“से की?”

“की-की कहू?”

“नातिनक कहलापर गाम-घरक बाँचल-खुचल संपत्ति बेचि कए ओकरा संगे दिल्ली चलि गेलाह । ओकर दुर्घटनामे अकाल मृत्यु भए गेलनि । आब ओ असगर दिल्लीमे एमहर-ओमहर बौआइत रहैत छलाह । केओ देखनाहर नहि, देह काजक नहि, माथा सेहो अपना वशमे नहि । कहाँदनि एकदिन भोरे घर छोड़ि कए निकलि गेलाह । लोकसभ नाम-पता पुछनि। मात्र अपन नामटा मोन रहनि । संयोगसँ पुलिस हुनका एकटा मनोरोगी अस्पतालमे भर्ती करा देलक ।”

“तकर बाद….?”

“कहि नहि तकर बाद कोन हालमे छथि? छथिओ की नहि छथि?”

“तोरा ई बातसभ कोना पता लगलह?”

“दीपेंदु फोन करैत रहैत छथि । ओएह ई समाचारसभ देलथि ।”

“सएह कहह…। समय केहन पलटी लैत अछि । राजा, रंक, फकीर केओ एकरासँ नहि बँचि सकल । एक समय छल जे हुनकर गाम-घरमे की धाख छल ।”

“से जे होइक मुदा आदमी नीक नहि छलाह । गरीबसभकेँ बहुत सतओलखिन । हमहूँ हुनके चलते गाम छोड़ने रही ।”

हम गंगाक बात सुनि गुम्म रहि गेलहुँ । गंगा हमर मुँह देखैत रहल । हमरा परेसान देखि कहैत अछि –

“पाप डिरिआइत छैक ने । सएह मालिकोकेँ   भेलैक । अपना समयमे कतेकोकेँ उजारि देलक, कतेको निर्दोषकेँ जीवन बरबाद कए देलक ।”

“छोड़ह ओकर चर्च । दीपेंदु शंकरक बारेमे किछु कहैत रहह की नहि?”

“ओ तँ जखन फोन करैत छथि, शंकरक बात उठिए जाइत अछि ।”

“से कोना?”

“हमही किछु-ने-किछु पुछि दैत छिअनि ।”

 “कहाँदनि शंकरकेँ किछुदिनक हेतु अमेरिका जेबाक छनि।”

“से किएक?”

“निशाकेँ ओतहि नौकरी लागि गेलनि अछि । ईहो ओतहि नौकरी ताकि रहल छथि । जाबे से नहि भेलनि अछि ताबे अबैत-जाइत रहताह ।”

“सएह कहह । जे अपने देश छोड़ि रहल अछि तकरा संगे हम कोना रहितहुँ?”

“की कहि सकैत छी?”

“ई तँ रच्छ भेल जे तूँ भेटि गेलह नहि तँ हमरो हालति मालिके सन होइत । दिल्लीमे कतहु कोनो सड़कपर   पड़ल रहितहुँ। तोरे कृपासँ हम जीवित गाम वापस आबि गेलहुँ । मुदा एतहु बेचैन केने अछि।”

“के?”

“आओर के रहत? अपने लोक ने घातक होइत छैक। हमर पितिऔत ओकील छथि । लगैत अछि सभटा ओकालति हमरेपर लगा देने छथि । परसू रातिमे एकटा स्टांपपेपर लेने आबि गेलाह आ कहथि-

“अहाँ एहिपर दस्तखत कए दिऔक आ सभदिन लेल निश्चिंत भए जाउ । हमरा परिवारमे रहू । जे नून-रोटी हम खाएब से अहूँ खाएब । दुनू भाइ अपन दुःख-सुखपर चर्च करब । एकठाम रहब तँ आनो लोकसभकेँ डर हेतैक । मुखिआ सन-सन सरल लोकक ई साहस जे हमर परिवारक संपत्तिपर बकोदृष्टि राखए । ओकर ओकाति की अछि? कनी एहिसभसँ निपटि लैत छी । फेर ओकरो हम सबक सिखा कए रहबैक ।”

“हम कतबो मना करिऐक ओकील मानबे नहि करए । स्टांप पेपरपर दस्तखत कए दिऔक – बस एतबे रटैत रहि गेल । हम मना करैत रहि गेलिऐक । जखन ओ नहि मानलक तँ हम बहुत जोरसँ चिकरलहुँ । दूपहर राति छल । संयोगसँ दछिनबाड़िटोलसँ किछुगोटे रामलीला देखि कए लौटि रहल छल। हमर चिकरब सुनि कए दौड़ल । ओकरासभकेँ देखि ओकील सकपका गेल आ चुपचाप अपन दलानपर जा कए बैसि गेल । लोकसभ पुछैत रहल – “की भेल? की भेल?” ओकरासभकेँ की कहितिऐक? मुदा किछु तँ कहबेक छल । ओकरसभक जिज्ञासा शांत करबाक छल । आखिर ओ सभ हमरा मदति करए आएल छल ।”

“तखन?”

“तखन की? कहलिऐक जे चोर आबि गेल छल, हल्ला सुनि कए बारीबाटे भागि गेल ।”

“हमरा तँ ई बातसभ सुनि कए बहुत चिंता होइत अछि। हम तँ कहब जे अहाँ हमरे संगे चलू । जहिना हमर माए-बाप तहिना अहूँ छी । एहन हालतिमे हम अहाँकेँ असगर कोना छोड़ि दिअ?”

“तूँ हमर कतेक दिन संग देबह? जे हमरा भाग्यमे लिखल अछि से होएत।”

“जखन जे हेतैक से हेतैक । अखन तँ हम गाममे छी । आओर किछु नहि तँ हमही अबैत जाइत रहब । कखनहुँ फोन कए देब । हम तुरंत पहुँचि जाएब ।”

“बेसी चिंता नहि करह । हमरा आब की होएत? हम तँ हुनकर संदेशवाहक छी । जहिआ से दायित्वपूर्ण कए सकब तहिए एहि दुनिआकेँ छोड़ि देब।”

“एना नहि बाजू । अहाँ अखन बहुत दिन जिअब । सभकिछु ठीक भए जेतैक । नीक समय अएतैक आ अएबे करतैक।”

साँझ पड़ल जा रहल छल । गंगा बहुत अछता-पछता कए बिदा भेल । जाइत-जाइत ओकर आँखि नोरसँ डबडबा गेलैक । गंगाकेँ जाइत देखि हमरा होइत छल जे भोकारि पारि कए कानी। मुदा कहुना कए अपनाकेँ रोकलहुँ । आखिर गंगा बिदा भेल । हम बहुत काल धरि गंगाकेँ जाइत देखैत रहि गेलहुँ।

18

किछुदिनक बाद निशाकेँ अमेरिकामे स्थायी काज भेटि गेलनि । ग्रीन कार्ड सेहो बनि गेलनि । हुनकर विशिष्ट योग्यताक सम्मान ओहिठामक विद्वत समाजमे होमए लागल । उच्च वेतनमानक संगे नीक नौकरी हुनका भेटि गेलनि। एमहर शंकर शुरुएसँ दुबिधाग्रस्त छलाह । मोनमे कतहु-ने कतहु हमर ध्यान छलनि । हमर रहनि कि नहि, गामक संपत्तिक हिसाब-किताब करबाक छलनि । मुखिआसँ अगाउ सेहो लए लेने रहथि । मुदा हम एहि काजमे सहयोगी नहि भए रहल छलिअनि । ओमहर निशा हुनका साफे कहि देलखिन –

“हम अहाँक दोस्त छी, कोनो कनिआ नहि छी । एकसंगे हमरसभक समय नीकसँ बीतल । आब हम अमेरिकामे छी आ आगूओ एतहि रहबाक योजना अछि । एहिठामक समाजमे हमरा इज्जति अछि, उत्तम नौकरी अछि, आ की नहि अछि? तखन अहीं कहू जे हम कतेक दिन धरि अहाँक प्रतीक्षा करू? जँ अहाँ आबी आ एहिठाम रही तखन तँ हम किछु सोचबो करी । नहि तँ जीवन ककरो बिना ठहरि नहि जाइत अछि । समय तँ आगू बढ़बे करत।”

शंकरकेँ निशाक ईमेल भेटलनि । ईमेल पढ़िकए सौंसे देहक रोइआँ ठाढ़ भए गेलनि । किछु बाजल नहि होनि, सोचल नहि होनि । ओ ठामहि ओछाओनपर पड़ि गेलाह ।  थोड़े काल ओहिना सुस्ताइत छथि । फेर टेबुलपरसँ मोबाइल उठाबैत छथि। हमर फोनक घंटी बजैत अछि । फोनमे शंकरक नाम उचरैत अछि –

हम किछु पुछिअनि, किछु कहिअनि ताहिसँ पहिनहि ओ बाजए लगैत छथि –

“हमरा आब अमेरिका जाएब बहुत अनिवार्य भए गेल अछि । निशा पहिने ओतए जा चुकल छथि । हमरो नौकरीक जोगार ओएह कए रहल छथि । जँ हम देरी करब तँ सभकिछु बरबाद भए जाएत । ने हमर कनिआ रहतीह आ ने नौकरी रहत। हम चाहैत रही जे अहाँकेँ अपना संगे राखी । ताहि लेल दिल्लीमे मकानक ओरिआन केने रही । किछु अगाउ सेहो दए देने रहिऐक। बँकिए टाकाक ओरिआन गामसँ करबाक छल । हम जेना-तेना मुखिआकेँ मनओने रही । मुदा अहाँ तेहन ने केलहुँ जे हम ने एमहरकेँ रहलहुँ ने ओमहरकेँ ।

निशा हमरासँ पहिने अमेरिकामे नीक जकाँ व्यवस्थित भए गेलथि । हमरो हुनके संगे ओही कंपनीमे ओएह काज भेल छल । मुदा अहींक चक्करमे हम लटपटा गेलहुँ । हमरा तँ अमेरिका जाए पड़त । समय बेसी नहि अछि । एक सप्ताहमे ओहि काजकेँ नहि पकड़ब तँ हाथसँ निकलि जाएत । तेँ अगिला बुध दिन हम अमेरिका बिदा भए जाएब । हमर वीजाक कागज आइ भेटि जाएत। टिकटक ओरिआन तँ अमेरिकाक कंपनीए कए देने अछि। अखन अहाँसँ भेंट नहि भए सकत । ताहि बातक मोनमे अफसोच अछि । मुदा हालति तेहने अछि जे की कएल जाए? अहाँ एतबा करब जे मुखिआक समस्याक समाधान कए लेब । हम ओकरासँ दसलाख टाका अगाउ लेने छिऐक । ताहि बदलामे गामक चीज-वस्तु ओकरा देबाक छैक । से जेना जे होअए से अपन फरिछा लेब। अमेरिका पहुँचलापर आगूक समाचार लिखब ।”

शंकर धराधर अपन बात कहि देलाह । हम की बजितहुँ? किछु बाजले नहि भेल । फोन कटि गेल । कैकदिनक बाद गंगाक फोन आएल तँ ओ कहलक – “सुनैत छी जे निशा अमेरिकामे घर कीनि लेलथि । शंकर सेहो निशाक कंपनीमे काज पकड़नि अछि। मुदा रहैत छथि फराके ।”

“मुदा तोरा ई सभ कोना पता लगलह?”

“दीपेंदु फोन केने छलाह ।”

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