रामचरितमानस मोतीः भरतजीक प्रयाग जायब आर भरत-भरद्वाज संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

भरतजीक प्रयाग जायब आर भरत-भरद्वाज संवाद

१. प्रेम मे उमकि-उमकि “सीताराम-सीताराम” कहैत भरतजी तेसर पहर प्रयाग मे प्रवेश कयलनि। हुनकर पैर मे पड़ल छाला (फोका) एना चमकैत अछि जेना कमल फुलक कोंढ़ी (कली) पर ओसक बूँद चमकैत अछि। भरतजी आइ पैदले चलिकय आयल छथि, ई समाचार सुनिकय सारा समाज दुःखी भ’ गेल।

२. जखन भरतजी ई पता पाबि लेलनि जे सब कियो स्नान कय चुकल छथि, तखन ओहो त्रिवेणी पर आबिकय प्रणाम कयलनि। फेर विधिपूर्वक गंगा-यमुनाक श्वेत आ श्याम जल मे स्नान कयलनि आ दान दयकय ब्राह्मण लोकनिक सम्मान कयलनि।

३. श्याम आर श्वेत (यमुनाजी और गंगाजी के) लहर देखिकय भरतजीक शरीर पुलकित भ’ उठलनि, ओ हाथ जोड़िकय कहय लगलाह –

“हे तीर्थराज! अहाँ समस्त कामनाक पुरबयवला छी। अहाँक प्रभाव वेद मे प्रसिद्ध अछि आर संसार मे प्रकट अछि। हम अपन धर्म (नहि मांगयवला क्षत्रिय धर्म) त्यागिकय अहाँ सँ भीख माँगैत छी।

आर्त्त मनुष्य कोन कुकर्म नहि करैत अछि? एना हृदय मे जानिकय सुजान उत्तम दानी जगत्‌ मे माँगयवलाक वाणी केँ सफल कयल करैत छथि, अर्थात् ओ जे माँगैत अछि, से दय दैत छथि।

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥२०४॥

हमरा नहिये अर्थ के रुचि (इच्छा) अछि, नहि धर्म के, नहि काम के आर न हम मोक्षे चाहैत छी। जन्म-जन्म मे हमर श्री रामजीक चरण मे प्रेम हो, बस, यैह वरदान माँगैत छी, दोसर किछु नहि।

स्वयं श्री रामचंद्रजी भले हमरा कुटिल बुझथि, आर लोक हमरा गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोहिये कियैक न कहय, लेकिन श्री सीता-रामजीक चरण मे हमर प्रेम अहाँक कृपा सँ दिन-दिन बढ़ैत रहय।

मेघ चाहे जन्म भरि चातकक सुधि बिसरा दियए आर जल मँगला पर ओ चाहे वज्र आ पाथरे खसाबय, मुदा चातक केर रटब घटय सँ ओकर बाते घटि जायत, प्रतिष्ठे नष्ट भ’ जायत। ओकर त प्रेम बढ़ैये मे सब तरहें भलाई अछि।

जेना तपेला सँ सोना पर आरो चमक आबि जाइत अछि, तहिना प्रियतम केर चरण मे प्रेम केर नियम निबाहला सँ प्रेमी सेवकक गौरव बढ़ि जाइत छैक।”

३. भरतजीक वचन सुनिकय बीच त्रिवेणी मे सँ सुन्दर मंगल दयवाली कोमल वाणी आयल –

हे तात भरत! अहाँ सब तरहें साधु छी। श्री रामचंद्रजीक चरण मे अहाँक अथाह प्रेम अछि। अहाँ व्यर्थहि मोन मे ग्लानि कय रहल छी। श्री रामचंद्रजी केँ अहाँक समान प्रिय कियो नहि छन्हि। 

४. त्रिवेणीजीक अनुकूल वचन सुनिकय भरतजीक शरीर पुलकित भ’ गेलनि, हृदय हर्षित भ’ गेलनि। भरतजी धन्य छथि, कहिकय देवता लोकनि सेहो हर्षित भ’ फूल बरसाबय लगलाह।

५. तीर्थराज प्रयाग मे रहयवला वनप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुते आनन्दित छथि आर दस-पाँच मिलिकय आपस मे कहैत छथि जे भरतजीक प्रेम व शील पवित्र आर सत्य अछि। श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर गुण समूह सब सुनैत भरतजी मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी लग गेलाह। मुनि भरतजी केँ दण्डवत प्रणाम करैत देखलनि आर हुनका अपन मूर्तिमान सौभाग्य बुझलन्हि। ओ दौड़िकय भरतजी केँ उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि आर आशीर्वाद दयकय कृतार्थ कयलनि।

६. मुनि हुनका आसन देलनि। ओ सिर नमाकय एहि तरहें बैसि गेलाह मानू भागिकय संकोच सँ घर मे पैसि जाय चाहैत होइथ। हुनकर मोन मे ई भारी सोच छन्हि जे मुनि किछु पुछता त हम कि उत्तर देबनि। भरतजीक शील आर संकोच देखि ऋषि बजलाह –

“भरत! सुनू, हम सबटा खबरि पाबि चुकल छी। विधाताक कर्तव्य पर कोनो वश नहि चलैत छैक। माताक करतूत केँ याद कयकेँ अहाँ हृदय मे ग्लानि जुनि करू।

हे तात! कैकेइ केर कोनो दोष नहि छन्हि, हुनकर बुद्धि तँ सरस्वती बिगाड़ि देने छलीह। ई कहितो कियो नीक नहि कहत, कियैक तँ लोक आ वेद दुनू विद्वान् लोकनि केँ मान्य छन्हि। मुदा हे तात! अहाँक निर्मल यश गाबिकय त लोक आ वेद दुनू बड़ाइ पाओत। ई लोक आ वेद दुनू केँ मान्य छैक आर सब कियो यैह कहैत छथि जे पिता जिनका राज्य देथि वैह पबैत छथि।

राजा सत्यव्रती रहथि, अहाँ केँ बजाकय राज्य दितथि त सुख भेटैत, धर्म रहैत आ बड़ाइ सेहो होइत। सब अनर्थक जड़ि त श्री रामचन्द्रजीक वनगमन थिक, जे सुनिकय सारा संसार केँ पीड़ा भेलैक। ओ श्री राम केर वनगमन सेहो भावीवश भेल।

बेसमझ रानी त भावीवश कुचालि कयकेँ अन्त मे पछतेलीह। ओहि मे अहाँक कनिकबो टा अपराध कियो कहत त ओ अधम, अज्ञानी आ असाधु होयत।

जँ अहाँ राज्य करितहुँ तैयो अहाँ केँ दोष नहि लगितय। ई सुनि श्री रामचन्द्रजी केँ संतोषे होइतन्हि।

हे भरत! आब त अहाँ आर नीक काज कयलहुँ अछि, यैह मत अहाँ लेल उचित छल। श्री रामचन्द्रजीक चरण मे प्रेम भेनाइये टा संसार मे समस्त सुन्दर मंगल केर मूल थिक। से श्री रामचन्द्रजीक चरण केर प्रेम त अहाँक धन, जीवन और प्राण थिक।

अहाँ जेहेन बड़भागी के अछि? हे तात! अहाँक लेल ई आश्चर्यक बात नहि अछि, कियैक त अहाँ दशरथजीक पुत्र आ श्री रामचन्द्रजीक प्रिय भाइ छी। हे भरत! सुनू, श्री रामचन्द्रजीक मोन मे अहाँक समान प्रेमपात्र दोसर कियो नहि अछि।

लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनू भरि राति ओहि दिन अत्यन्त प्रेमक संग अहाँक सराहना करिते राति बितौलनि। प्रयागराज मे जखन ओ स्नान कय रहल छलथि, ताहि समय हम हुनकर ई मर्म जनलियनि। ओ अहाँक प्रेम मे मग्न रहथि।

अहाँ पर श्री रामचन्द्रजीक एहेन अगाध स्नेह छन्हि जेना मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्य केँ संसार मे सुखमय जीवन पर होइत छैक।

ई श्री रघुनाथजीक बहुत बड़ाइ नहि थिकन्हि, कियैक त श्री रघुनाथजी त शरणागत केर कुटुम्बहु सब केँ पालनहार छथि। हे भरत! हमर ई मत अछि जे अहाँ मानू शरीरधारी श्री रामजीक प्रेमे थिकहुँ।

हे भरत! अहाँक लेल अहाँक बुझने ई कलंक थिक, लेकिन हमरा सभक लेल त ई उपदेश थिक। श्री रामभक्ति रूपी रस केर सिद्धि लेल ई समय गणेश (बड शुभ) भेल अछि।

हे तात! अहाँक यश निर्मल नवीन चन्द्रमा थिक आर श्री रामचन्द्रजीक दास कुमुद और चकोर थिक। ओ चन्द्रमा त प्रतिदिन अस्त होइत आर घटैत अछि, जाहि सँ कुमुद और चकोर केँ दुःख होइत छैक। लेकिन ई अहाँक यश रूपी चन्द्रमा सदैव उदय रहत। कहियो अस्त हेब्बे नहि करत! जगत रूपी आकाश मे ई घटत नहि। बरु दिन-दिन दूना होयत। त्रैलोक्य रूपी चकवा एहि यश रूपी चन्द्रमा पर अत्यन्त प्रेम करत आर प्रभु श्री रामचन्द्रजीक प्रताप रूपी सूर्य एकर छबि केँ हरण नहि करत। ई चन्द्रमा राति-दिन सदैव सब केँ सुख दयवला होयत। कैकेइ केर कुकर्म रूपी राहु एकर ग्रास नहि करत। ई चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर प्रेम रूपी अमृत सँ पूर्ण अछि। ई गुरुक अपमान रूपी दोष सँ दूषित नहि अछि। अहाँ एहि यशरूपी चन्द्रमाक सृष्टि कयकेँ पृथ्वी पर सेहो अमृत सुलभ कय देलहुँ। आब श्री रामजीक भक्त एहि अमृत सँ तृप्त भ’ जाइथ। राजा भगीरथ गंगाजी केँ अनलाह, जाहि गंगाजीक स्मरण मात्र सम्पूर्ण सुन्दर मंगलक खान थिक।

दशरथजीक गुण समूहक त वर्णने नहि कयल जा सकैत अछि, बेसी की, जेकर बराबरी के जगत मे कियो नहि अछि। जेकर प्रेम आर संकोच (शील) केर वश मे भ’ कय स्वयं सच्चिदानंदघन भगवान श्री राम आबिकय प्रकट भेलथि, जिनका श्री महादेवजी अपन हृदयक नेत्र सँ कहियो अघाकय नहि देखि पेलाह, यानि जिनकर स्वरूप हृदय मे देखैत-देखैत शिवजी कहियो तृप्त नहि भेलाह। धरि हुनकहु सँ बढ़िकय अहाँक कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमा उत्पन्न भेल अछि जाहि मे श्री राम प्रेम टा हिरन के रूप मे बसैत अछि।

हे तात! अहाँ बेकारे हृदय मे ग्लानि कय रहल छी। पारस पाबियोकय अहाँ दरिद्रता सँ डरा रहल छी! हे भरत! सुनू, हम झूठ नहि कहैत छी। हम उदासीन छी, केकरो पक्ष नहि लैत छी। तपस्वी छी, केकरो मुंह देखि ओकरा प्रसन्न करयवला बात नहि कहैत छी। वन मे रहैत छी, केकरो सँ कोनो प्रयोजन नहि रखैत छी। सब साधनक उत्तम फल हमरा लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजीक दर्शन प्राप्त भेल। सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामदर्शन रूप ताहि महान फल केर परम फल ई अहाँक दर्शन थिक। प्रयागराज समेत हमर बड पैघ भाग्य अछि। हे भरत! अहाँ धन्य छी, अहाँ अपन यश सँ जगत केँ जीति लेलहुँ अछि।”

७. एना कहि मुनि प्रेम मे मग्न भ’ गेलथि। भरद्वाज मुनिक वचन सुनिकय सभासद् हर्षित भ’ गेलथि। ‘साधु-साधु’ कहिकय सराहना करिते देवता लोकनि फूल बरसौलनि। आकाश मे आर प्रयागराज मे ‘धन्य, धन्य’ केर ध्वनि सुनि-सुनिकय भरतजी प्रेम मे मग्न भ’ रहल छथि।

८. भरतजीक शरीर पुलकित अछि, हृदय मे श्री सीता-रामजी छथि आर कमल समान नेत्र (प्रेमाश्रुक) जल सँ भरल अछि। ओ मुनि लोकनिक मंडली केँ प्रणाम कयकेँ गद्गद वचन बजलाह –

“मुनि लोकनिक समाज छथि आर फेर तीर्थराज सेहो छथि। एतय सत्य सौगन्ध तक खेला सँ पूरा हानि होइत अछि। एहि स्थान मे जँ किछु बना-सोनाकय बाजल जाय त एकरा समान दोसर कोनो पैघ पाप आ नीचता नहि होयत।

हम सत्य भाव सँ कहैत छी। अपने सर्वज्ञ छी आर श्री रघुनाथजी हृदयक भीतर केँ जननिहार छथि, हम किछुओ असत्य कहब त अहाँ सँ आ हुनका सँ नहि नुकायल रहत।

हमरा माता कैकेइ केर करनीक कनिकबो सोच नहि अछि आ न हमर मोन मे एहि बातक दुःख अछि जे जगत हमरा नीच बुझत। नहिये ई डर अछि जे हमर परलोक बिगड़ि जायत आर न पिताजीक मरबाक हमरा कोनो शोके अछि, कियैक तँ हुनकर सुन्दर पुण्य आ सुयश विश्व भरि मे सुशोभित छन्हि। ओ श्री राम-लक्ष्मण जेहेन पुत्र पेलनि। फेर जे श्री रामचन्द्रजीक विरह मे अपन क्षणभंगुर शरीर सेहो त्यागि देलनि, एहेन राजाक लेल सोच करबाक कोन प्रसंग अछि?

सोच मात्र एहि बात के अछि जे श्री रामजी, लक्ष्मणजी आर सीताजी पैर मे बिना जूता पहिरने मुनिक वेष बनाकय वने-वने फिरैत छथि। ओ वल्कल वस्त्र पहिरैत छथि, फलक भोजन करैत छथि, पृथ्वी पर कुश आर पत्ता बिछाकय सुतैत छथि आर गाछक नीचाँ निवास कय केँ नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा आ हवा सहैत छथि।

एहि दुःखक जलन सँ निरन्तर हमर छाती जरैत रहैत अछि। हमरा न दिन मे भूख लगैत अछि, नहि राति केँ नीन्द अबैत अछि। हम मने-मन समस्त विश्व केँ ताकि लेलहुँ, मुदा एहि कुरोग केर कतहु औषधियो तक नहि भेटैत अछि।

माताक कुमति पापक मूल कमार थिक। ओ एहि कुमति सँ हमर हित के बैसला बनेली। ओहि सँ कलह रूपी कुकाठक कुयंत्र बनेलीह आ चौदह वर्षक अवधि रूपी कठिन कुमंत्र पढ़िकय ओहि यंत्र केँ गाड़ि देलीह। (माताक कुविचार कमार/बढ़ई थिक, भरत केँ राज्य बैसला थिक, राम केँ वनवास कुयंत्र थिक आर चौदह वर्षक अवधि कुमंत्र थिक।) हमरा लेल ओ ई सारा कुठाट (खराब साज) रचलनि आ सारा जगत केँ बारहबाट (छिन्न-भिन्न) कयकेँ नष्ट कय देलनि। ई कुयोग श्री रामचन्द्रजी केँ घुरि अयलाक बादे टा मेटा सकैत अछि आर तखनहि अयोध्या बसियो सकैत अछि, दोसर कोनो उपाय सँ नहि।

९. भरतजीक वचन सुनिकय मुनि सुख पेलनि आर सब हुनकर बहुतो प्रकार सँ बड़ाइ कयलनि। मुनि कहलनि – हे तात! बेसी सोच जुनि करू। श्री रामचन्द्रजीक चरणक दर्शन करिते सारा दुःख मेटा जायत।

हरिः हरः!!