हमरा हँसी लगैत अछि
हाहाहा! आब हमरा हँसी लगैत अछि,
अपना आप पर,
अपन समाज पर,
अपनहि लोक-वेदपर!
कि कही अपना आप केँ या समाजकेँ…
झूठक दिलासा टा लगैत अछि सबटा हमरा!
फूइस बाजिकय कतीकाल चलत?
केकरा रिझेबय रिक्त बोल-वचन सँ?
तैयो हम बजैत छी,
कहैत छियैक सब बात,
बनि जेतय मिथिला राज,
हेतय सबटा मैथिलीक काज,
तीस लाख लोक घेर लेतय दिल्ली केँ,
लाखक-लाख छैक आस-पड़ोसक राज्यमे सेहो,
पलायन कय घर सँ आब सबटा ओत्तहि रहैत छैक,
एक हाक पर सब आबि जेतय,
बनि जेतय मिथिला राज,
हेतय सबटा मैथिलीक काज!
ई सबटा भाषण थीक,
खूब ताली भेटैत छैक ई सब बजला पर,
बस तालिये टा थिकैक ‘राजनीति’ आइ,
फूइस बाजब आ स्वार्थहि मे डूबब,
यैह टा थिकैक काजनीति आइ!
आडंबर छै संसार मे,
देखाबा बस आधार मे,
जानि कोन कीर्ति बनतैक,
जानि केहन विकास हेतैक,
ई सब सोचैत हम भेल छी हरान,
अपना आप सँ छी भयंकर परेशान,
एना मे कि सद्गति भेटत मरलो पर,
आ कि कहियो भेटता हमरो भगवान,
गुम छी,
चुप छी,
आँखि मुनि लैत छी,
डर भागि जाएत अछि हमर!
यैह थीक जीवन हमर वर्तमान मे,
कोना कहू के अछि बयमान के ईमान मे,
बताह हम छी आ कि ई संसार,
ईहो निर्णय लेल अपने पड़ल हम मझधार,
आब लिखि छोड़ैत छी ई विचार,
जानि कि लिखल अछि कपार मे!!
हाहाहा! हँसी लगैत अछि!!
हमरा हँसी लगैत अछि!!
हरिः हरः!!
विश्व कविता दिवस पर अपने सब लेल सादर समर्पित
– प्रवीण