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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः अरण्यकाण्ड तेसर अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

मिथिलाभाषा रामायण – अरण्यकाण्ड

तेसर अध्याय

।चौपाइ।

मुनि सभकाँ जानल व्यवहार। सत – स्वागत फलमूलाहार॥
प्रभु एक दिन तहि थल रहलाह। प्रात भेल कहि कहि चललाह॥
मुनि अगस्ति – मण्डली प्रवेश। सभ ऋतु फल फुल लागल बेश॥
मृग नानाधिप कत तेहि थान। पक्षी करय विलक्षण गान॥
तहाँ देव ब्रह्मर्षि बहूत। आबि न शकथि जतय यमदूत॥
नन्दन-वन सन शोभा लाग। ब्रह्मलोक जनु दोसर भाग॥
शुनु सुतीक्ष्ण कहलनि रघुवीर। मुनिकेँ कहब देखि पड़ भीर॥
हम आयल छिअ दर्शन काज। कहू जाय अहाँ मुनिक समाज॥

।सोरठा।

विधिवत कयल प्रणाम, जाय सुतीक्ष्ण अगस्ति-पद।
सीता लक्ष्मण राम, आश्रम बाहर ठाढ़ छथि॥
कहयित शिष्यक कान, तन्मन्त्रार्थ विचार हम।
कयलहि छलछी ध्यान, शीघ्र लाउ कहलनि गुरू॥

।चौपाइ।

अपनहु चलला मुनि-गण सङ्ग। मुनिकेँ हर्ष समाय न अङ्ग॥
रामचन्द्र प्रभु आयल जाय। बड़ गोट अतिथिक नाम कहाय॥
कयल दण्डवत तिनु जन आबि। कहल सकल उत्तम फल भावि॥
मुनि लेल प्रभुकाँ हृदय लगाय। हर्षक नोर हृदय बढ़ि आय॥
रामचन्द्र – कर करसौँ धयल। आश्रम आनि प्रियातिथि कयल॥
बड़ सेवा पूजा विस्तार। जेहन अकार तेहन व्यवहार॥
वन फल भोजन अपनहुँ ठाढ़। उचिती मध्य हर्ष मन बाढ़॥
सुख एकान्त जखन बैसलाह। मुनि अगस्ति पुन ततय गेलाह॥
कहल कृताञ्जलि शुनु मायेश। एतबहि लय बसलहुँ ई देश॥
क्षीर – समुद्र विधाता जाय। स्तुति कय कहलनि होउ सहाय॥
सहइत छथि नहि धरणी भार। लेल जाय अपने अवतार॥
सभ जीवक धरणी आधार। रावण – मरणक मुख्य विचार॥
कहल से कयल मनोरथ पूर। दर्शन देल कष्ट गेल दूर॥
प्रथम एकसौँ बाढ़लि सृष्टि। रविसौँ जेहन होइ अछि वृष्टि॥
अपनैँक माया-कृत संसार। शास्त्र बहुत कह बहुत विचार॥
स्तुति करयित करयित भेल बेर। धनुष ग्रहण करु कहलनि फेर॥
सुरपति एहि थल गेला राखि। देब रामकाँ ई सम्भाषि॥
अक्षय बाण तेहन तूणीर। अपनैँक योग्य वस्तु रघुवीर॥
रत्न – विभूषित वर तरुआरि। एहिसौँ करब भयङ्कर मारि॥
निज – माया – कृत नर – आकार। लेल यदर्थ देव अवतार॥
दुइ योजन एतसौँ से ठाम। पञ्चवटी कहइछ जन राम॥
गोदावरी विमल तट जाउ। कार्य्य हेतु किछु काल गमाउ॥

।सोरठा।

जखना ई बजलाह, मुनि अगस्ति भगवान शुनि।
तिनु जन प्रभु चललाह, पञ्चवटी उद्देश्य कय॥

।इति।

हरिः हरः!!

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