“संस्कृतिक संवाहक अछि मातृभाषा।”

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— आभा झा।   

 

संस्कृतिक संवाहक अछि मातृभाषा। जन्मसँ हम जे भाषाक प्रयोग करैत छी वैह हमर मातृभाषा अछि। सबसँ पहिने तऽ हमरा अपन मातृभाषाक महत्व की होइत अछि से बुझबाक चाही। जे लोक अपन मातृभाषाक महत्व बुझबे नै करत, ओकरा अपन भाषाक प्रति लगाव नहिं भेनाइ आवश्यक छैक। दुनिया भरिमे 6000 सँ बेसी भाषा बाजल जाइत अछि, आ ओहिमे सँ 43% लुप्तप्राय मानल जाइत अछि। जखन कोनो भाषा लुप्तप्राय भऽ जाइत अछि, तखन संस्कृति आ याद ओकर संगे चलि जाइत अछि। मिथिलाक लोकमे अपन मातृभाषाक प्रति उदासीनताक कारण बढ़ैत प्रवास आ तेजीसँ बढ़ैत शहरीकरण अछि। लोक शहरमे आबि कऽ अपन मातृभाषाक त्याग कऽ शहरी भाषाकेँ अपना कऽ गुजर-बसर करय लागैत अछि। शहरीकरण सेहो भाषाक नष्ट होइकेँ कारण अछि। राजनीतिक, आर्थिक आ सांस्कृतिक अधीनता कोनो समूह द्वारा सामाजिक प्रभुत्व ओहि समूहक भाषाकेँ ओहि समाजमे बेसी लोकप्रिय बना दैत अछि। उदाहरणक लेल, संस्कृत बाजय वालाकेँ सामाजिक वर्चस्वक कारण प्राचीन भारतमे संस्कृत लोकप्रिय भऽ गेल। या औपनिवेशिक शासनक कारण अंग्रेजी लोकप्रिय भऽ गेल। मैथिलीकेँ आगू बढ़बै के लेल जे विचार-विमर्श होइत अछि, ओहिमे सबसँ पहिल चीज नजरि अबैत अछि दुराग्रह। जाहिमे एक-दोसर पर आरोप-प्रत्यारोप होइत अछि। एहिसँ अपन भाषाक विकास नहिं हैत।
अक्सर देखल जाइत अछि कि विपन्न समाजक लोक संपन्न समाजक नकल करैत अछि। एहिमे दूमत नहिं मैथिल समाजक अधिकांश लोक आर्थिक रूपसँ पिछड़ल रहल छथि। यैह लोक सभ जीविकोपार्जनक तलाशमे जखन मिथिलांचलसँ बाहर निकलै छथि तऽ स्थानीय लोकक भाषा आ संस्कृति अपनबै छथि।भाषा जे अपन समाजक प्रतिबिंब होइत अछि, यदि ओ संरक्षित व सुरक्षित नहिं रहत तऽ प्रतिबिंबक कल्पना नहिं कयल जा सकैत अछि।
अपन मिथिलाक लोककेँ देखल जाइत अछि कि ओ अपन मैथिली भाषाक पोथी या अखबार हुनका मंगनीमे पढ़य लेल भेटैन तखने पढ़ता। ओ पाई खर्च कऽ अपन मातृभाषाक पोथी नहिं पढ़य चाहैत छथि। घर हो या बाहर हजार दू हजार टाका अपन खेनाइ पर खर्च कऽ दैत छथि मुदा अपन मिथिला मैथलीक लेल जहाँ ने पाई देबाक गप्प अबैत अछि ओ पाछू भऽ जाइत छथि। एनामे कोना ने अपन मातृभाषाक प्रति उदासीनताक माहौल रहतै। समाजमे बदलाव भाषा आ संस्कृतिक विलुप्तिक कारण सेहो अछि।
भारतेंदु हरिश्चंद्र आजुसँ लगभग डेढ़ सदी पहिने लिखने छलथिन कि, निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल।बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल। निःसंदेह अपन मातृभाषाक प्रति उदासीनताक अर्थ ओहि समाजक संस्कृति आ सभ्यताक पतन भेनाइ अछि, जे भाषाकेँ बाजय वाला लोक नहिं बचल ओकर संस्कृतिक विनाश निकट बुझू। अपन मातृभाषाक तखन विकास हैत, जखन व्यापार, बोलचाल, मनोरंजन हर क्षेत्रमे मैथिली भाषाक प्रयोग कयल जायत। मातृभाषामें अपन एक अलग ही मर्म आ अपनापन होइत अछि। जे कोनो दोसर भाषामे नहिं। मातृभाषा निजी भावक अभिव्यक्तिक सबसँ सशक्त, सरल , सुगम व स्वाभाविक माध्यम अछि।
आर्थिक सुदृढ़ताक लेल हम पलायन करी, मुदा हमरा अपन मातृभाषाकेँ कखनो नहिं छोड़बाक चाही, कियैकि जखन हम अपन माँसँ दूर नहिं रहि सकैत छी फेर मातृभाषासँ दूरी कियैक? एक कहावत काफी प्रचलित अछि कि, ‘ कोस-कोस पर बदले पानी चारि कोस पर बानी’। मातृभाषामे ही लोकक संस्कृति यानी लोककला, लोकगायन, लोकनृत्य, लोकाचार, रीति-रिवाज, परंपरा सुरक्षित व संरक्षित रहैत अछि। मातृभाषा ही भाषायी सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक आदि विविधताकेँ अक्षुण्ण बना कऽ राखैकेँ आधार अछि। यदि अपन क्षेत्रक संस्कृति, परिवेश, अस्मिता, खान-पान आ रहन-सहन के संरक्षित करबाक अछि तऽ ओतऽ के भाषाकेँ संरक्षित केनाइ आवश्यक अछि। जखन भाषा समृद्ध होइत अछि तऽ ओहि क्षेत्रक विकास तेज गति सँ होइत अछि आ ओतऽ के लोककेँ रोजगार प्राप्त होइत अछि। व्यक्ति जतेक भाषा सीखै, ओतेक नीक अछि मुदा अपन मातृभाषासँ मुँह मोड़ि कऽ नहिं। अपन मातृभाषाकेँ सम्मान करू। गर्वसँ कहू हमर मातृभाषा मैथिली अछि।
जय मिथिला, जय मैथिली।

आभा झा
गाजियाबाद