“मिथिलामे राम खेलथि होली, मिथिलामे ….”

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— आभा झा।   

होली पाबनि प्रतीक अछि समरसतापूर्ण नब सृजनक। ई पाबनि रंग, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ, एकता आ प्रेमक भव्य उत्सव अछि। परंपरागत रूप सँ ई बुराई पर अच्छाईकेँ सफलताक रूपमे मनाओल जाइत अछि। एकरा अपन मिथिलामे ” फगुआ ” के रूपमे जानल जाइत अछि, कियैकि ई हिन्दी मास फाल्गुनमे मनाओल जाइत अछि। बसंत पंचमीक ठीक चालीस दिन बाद फागुनक इजोरिया केर पूर्णिमा तिथिक मनाओल जाइत अछि। होली शब्द “होला” शब्द सँ उत्पन्न भेल अछि। जकर अर्थ अछि नब आ नीक फसल प्राप्त करयकेँ लेल भगवानक पूजा। फगुआक पाबनि दू तरह सँ होइत छैक। एक तऽ “होलिकादहन” जकरा ” सम्मत ” कहल जाइत छैक आ दोसर भेल ” धुरखेल “।
फागुनक पूर्णिमाक ” सम्मत ” जराओल जाइत छैक। सम्मत जरयबाक लेल लोकसभ हफ्ता दिन पहिने सँ बाँस, टाट-फरकी, पुआर सभ चोरी करैत अछि । कहल जाइत अछि कि चोरी कएल सम्मत जरेला सँ धर्म होइत छैक। सम्मत जरयबाक बाद अबैत अछि धुरखेलक दिन। एहि दिन रंग-अबीरक खेल संग लोकसभ थाल-कादो एक-दोसरकेँ लगा कऽ खुशी मनबैत छथि। संग ही होली, झूमर, फाग कतेक रंगक गीत-नाद गाबि कऽ नचैत-गबैत छथि। मिथिलामे राम खेलथि होली, मिथिलामे —जानकी संग राम खेलथि होली मिथिलामे—गीतक माहौलमे उल्लास घोलि दैत अछि। लोकगीत पर मिथिलाक लोक खूब नचैत-गबैत आ झूमैत छथि। संस्कृतिक अनुरूप लोक पुआ व पकवानक लुत्फ उठबैत छथि। एहि दिन खीर-पुआ सँ गोसाओनकेँ पातरि पड़ैत छनि। हुनका अबीर चढ़ाओल जाइत छनि। अपन मिथिलाक कतेक पुरूख-पात तऽ भाँग पीबि कऽ मतल रहैत छथि। ओहि भाँगकेँ कतेक रास वस्तु सभ डालि कऽ स्पेशल भाँग बनाओल जाइत अछि। आबक लोक सभ तऽ शराब पीबैत छथि।
पौराणिक कथाक अनुसार होली खेलाइकेँ संबंध श्रीकृष्ण आ राधारानी सँ अछि। एहेन कहल जाइत अछि कि श्रीकृष्ण ग्वाल-बाल संग सब सँ पहिने होली खेलेबाक प्रथाक शुरूआत कयने छलाह। किछु कथाक मुताबिक एहि दिन भगवान शिव माता पार्वतीकेँ अपन प्रेमक विजयक रूपमे स्वीकार कयने छलाह, तखने सँ लोकक माननाइ अछि कि भगवान श्रीकृष्ण एहि दिन अपन बाल रूपमे राक्षसी पूतनाक वध कयने छलाह। होलीक पाबनिक बाद सँ शिशिर ॠतुक समाप्ति आ ग्रीष्म ऋतुक आरंभ होइत अछि। आयुर्वेदक अनुसार दू ऋतुक संक्रमण कालमे मानव शरीर रोग आ बीमारी सँ ग्रसित भऽ सकैत अछि। एहि ऋतुमे शरीरमे कफक मात्रा बढ़ि जाइत छैक। बसंत ऋतुमे तापमान बढ़ला पर कफकेँ शरीर सँ बाहर निकालैकेँ प्रक्रियामे कफदोष होइत अछि, जाहि कारण सर्दी, खाँसी, खसरा, चेचक आदि होइत अछि। शरीरमे आलस्य पैदा भऽ जाइत अछि। ताहि दुवारे स्वास्थ्यक दृष्टि सँ होलिका दहनक विधानमे आगि जरेनाइ, अग्नि परिक्रमा, नाच, गाना आदि शामिल कएल गेल अछि। अग्निक ताप रोगकेँ नष्ट करैत अछि, ओतहि खेल-कूदक अन्य गतिविधि शरीरमे जड़ता नहिं आबऽ दैत अछि। होलीक पाबनि हमरा एकता आ हँसी खुशी रहयकेँ संदेश दैत अछि।
आजुक समयमे होलीक हुड़दंगकेँ युवा सब अश्लीलता सँ भरि कऽ राखि देने छथि। केमिकल वाला रंग पाबनिक महिमाकेँ कम कयने अछि। होली एक धार्मिक पाबनि अछि जे हमरा खुश रहयकेँ एक मौका दैत अछि। एकरा एना मनाबी कि ककरो खुशी छिन ने जाइ। बदलैत समयकेँ संग लोकक होली खेलाइकेँ तरीका सेहो बदलल जा रहल अछि। आइ काल्हि लोक अपन मोनमे दुर्भावना आ आँखिमे कुदृष्टि लेने संबंधक मर्यादाकेँ बिसरि कऽ स्त्रीक निजी अंगकेँ स्पर्श करयकेँ प्रयास करैत छथि – “बुरा ना मानो होली है ” के नाम पर। होलीक एहि पावन पाबनिमे भेदभाव एवं द्वेषकेँ विस्मृत करैत, आत्मीय संबंधमे समरसता बढ़ाबी। वर्तमान परिवेशमे जरूरत अछि कि एहि पवित्र पाबनि पर आडम्बरक बजाय एकर पाछू छिपल संस्कार आ जीवन मूल्यकेँ अहमियत देल जाय। तखने व्यक्ति, परिवार, समाज आ राष्ट्र सभक कल्याण हैत। आजुक तनाव भरल जिंदगीमे तऽ होली जादूक झप्पी जेकां अछि। तनावकेँ एहि जिंदगीमे जरूरी अछि हम होली जेहेन पाबनिकेँ वरदान बुझि आ टीवी, इंटरनेट आ मोबाइल सँ उलझि कऽ रहि गेल अपन जिंदगीकेँ कनिक उल्लास आ उमंग सँ सराबोर करि।
जय मिथिला, जय मैथिली।

आभा झा
गाजियाबाद