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“दौड़ि- दौड़ि सखी सभ घेरत, ग्वालिन धूम मचाय री”

— इला झा

भारत वर्ष मे अनेको पर्व आ त्यौहार मनायल जाइत अछि। जाहि मे किछु क्षेत्रिय आ किछु राष्ट्रीय त्यौहार अछि। होली रंगक त्यौहार अछि। बहुत उमंग सँ भरल ई पर्व सम्पूर्ण देश मे चैतक पहिल दिन मनायल जाइत अछि। दक्षिण भारतीय होली नहि मनबैत छथि।परन्तु अहि पर्व मे उत्तर भारतीय के संग भ’ आनन्दित होइत छथि।

अहि संदर्भ मे एकटा प्राचीन कथा सर्वविदित अछि। प्राचीन काल मे हिरण्यकशिपु नामक एकटा राजा छल। ओ ईश्वर मे विश्वास नहि करैत छल। परन्तु हुनक पुत्र प्रह्लाद ईश्वर मे विश्वास करैत छल। अपन पुत्र सँ तंग आबिक’ प्रह्लाद केँ अपन बहिन होलिकाक कोरा मे ल’ क’ आगि मे बैस’ के आदेश देलक। दैव कृपा सँ होलिका जरि गेल परंञ्च प्रह्लाद बचि गेल। अहि घटनाक याद मे होलीक एक दिन पहिनेक राति मे होलिका दहन होइत अछि आ दोसर दिन होली मनाएल जाइत अछि।

मिथिला मे होली विशेषक’ रंगक त्यौहार अछि जकरा फगुआ सेहो कहल जाइत छैक। ई परंपरा बहुत प्राचीन काल सँ चलि आबि रहल छैक। अहि दिन भगवती केँ पातरि देल जाइत छनि। देवीके मालपूआ, खीर, पूरी आ तरह-तरह के मिष्ठान्नक भोग लगैत छन्हि। अबीर चढ़ा हुनक आशीर्वाद सपरिवार लैत होलीक त्यौहार मनाएल जाइत अछि। सभ रंग, अबीर सँ खेलाइत अछि नचैत आनन्द मनबैत अछि।एक दोसरा सँ गले लगैत अछि आ अबीर लगबैत अछि। भेद-भाव, छूत-अछूत सब बिसरि सब एक दोसरा सँ गला मिलैत अछि आ अबीर लगबैत अछि। सभ घर मे मालपूआ, दही बड़ा, पूरी सब्जी संग तरह – तरह के पकवान बनैत छैक। शाकाहारीक भोजन मे कटहरक तरकारी वा पनीर संग अन्य विन्यास रहैत छैक। मिथिला मे जे खाइत छथि ओ अहि दिन माँस जरूर बनबैत छथि। भाँगक शर्बतक परंपरा सेहो देखना जाइत अछि। भाँगक कचरी सेहो सेवन करैत छथि। अत्यधिक सेवनक पश्चात मातल जँका रहैत छथि। मिथिला मे अहि दिन सांझ क’ नव वस्त्र लोक धारण करैत छथि। एक दुसरा कत’ जाय अबीर लगबैत सुस्वादु पकवानक आनन्द लैत छथि।दिन मे त’ पावनिक रंग सँ सराबोर रहैत छथि। अपना सँ पैघ के पैर पर अबीर लगा आशीर्वाद लैत छथि। ढ़ोल मृदंग बजबैत लोकक झूंड फाग गबैत छथि आ नृत्य करैत छथि। ई दृश्य बहुत मनोहारी होइत छैक।

होली मे व्यापारी वर्गक चाँदी रहैत छनि। रंग- अबीर संग तरह तरहक पिचकारी खूब बिकाइत छनि।सूती साड़ी- धोती अन्य वस्त्र आ कुर्ता – पैजामाक बिक्री बढि जाइत छैक।
खुशी के त्योहार फगुआ लोक के चिन्तामुक्त क’ दैत अछि। हमरा लोकनि के प्रेम, श्रद्धा आ सौहार्दक शिक्षा दैत अछि।

परन्तु अहि पर्वक विकृत रूप सेहो देखाइ दैत अछि।किछु लोक कपड़ा फाड़ होली खेलाइत छथि। रंगक जगह पर गोबर माँटि घोरि एक दोसरा पर फैकैत छथि। अल्यूमीनियम रंग इस्तेमाल करैत छथि जाहि सँ आँखि संग शरीरक चमड़ा पर दुष्प्रभाव पड़ैत छैक। कखनो कखनो होलीक त्यौहार मे मारि – पीट, खून खराबा सेहो देखना मे अबैत छैक। शराबक खुलिक’ सेवन होइत अछि, नशा मे चूर रहैत छथि। गरीब लोकनि जहरीला शराबक सेवन करैत छथि आ मृत्यु सँ खुशी के पर्व मातम मे बदलि जाइत अछि। अहि विकृति पर अंकुश लगेनाइ बहुत जरूरी छैक। अहि समय अश्लील संगीत सँ वातावरण पर दुष्प्रभाव पड़ैत छैक। बच्चा सब प्रभावित होइत छथि। भगवद् भजन संगीत यदि बाजायल जाय त’ वातावरण सुगंधित भ’ जैत।

प्रेमी जन आ पति- पत्नीक मन मे अद्भुत प्रेमक संचार होइत छन्हि। पूरा वातावरण फगुनिया जे होइत छैक!

राधाकृष्णक रासलीलाक होली
मिलनक कवि लोकनि सुन्दर वर्णन केने छथि।
अहि पर एकटा मिथिलाक गीत –
फागुन फंद पसारि ग्वालिन, उड़त
अबीर – गुलाल री
दौड़ि- दौड़ि सखी सभ घेरत, ग्वालिन धूम मचाय री
चैत चिन्ता करह ग्वालिन, कृष्ण राधा साथ री
लेहु दान प्रभु अधिक गोरस, करह यमुना पार री।

अहि पर्व के शांतिपूर्वक मनेबाक चाही। हमरा लोकनि केँ सभ्य नागरिक जँका व्यवहार करबाक चाही। ई पर्व हमरा लोकनि केँ भाई- चाराक पाठ पढ़बैत अछि।

अंत मे-
मन सँ मन मिल’ के मौसम
दूरी मिटाबक मौसम
होली त्यौहार तेहन
रंग मे डूब’ के मौसम
सब रंगक रास अछि होली
मनक उल्लास अछि होली
मन मे उमंग भरैत अछि
तैं त’ बहुत खास अछि होली

जय मिथिला, जय मैथिली

इला झा
बैंगलुरू

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