मैथिल मे पसरैत एक महान खराब आदति “परोक्ष निन्दा”

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

परोक्ष चर्चा अथवा निन्दा पापकर्म थिक

बहुत अफसोस संग अपन मिथिलाक लोक मे आबि रहल कमजोरीक उल्लेख करय पड़ैत अछि। कमजोरी पर आंगूर उठेनाय लेखनी धर्मक कर्तव्य थिक तेँ लिखि रहल छी।

परोक्ष मे कुचर्चा करब हमरा सभक खराब आदति बनि गेल अछि। ओना त मानवहि केर खराब आदति मे कौचर्य व परनिन्दा गानल जाइछ। धरि मैथिल जनसमुदाय मे कतहु जाउ, केकरो न केकरो कुचर्चा होइत सुनबे टा करब आ ताहि पर कहकहा लगबैत रावणी हँसी देनिहार सेहो नजरि पड़ि जेब्बे टा करत।

स्वाध्याय मे बेर-बेर ई सत्य दुरावस्था सँ बचबाक लेल कहल जाइछ। बेर-बेर आत्मबल सँ संकल्प लैत छी जे आब ई बेकार काज कदापि नहि करब, कहियो नहि करब…. तैयो एहेन स्थिति-परिस्थिति बनि गेल करैत अछि जे एहि दुराचार मे फँसि जाइत छी आ लगैत छी मोनक बात मानय…. पापकर्म करय।

अपन आध्यात्मिक गुरुदेव आ पूज्य पिता सँ एहि सिन्ड्रोम पर बड पहिने चर्चा कएने रही। गुरुदेवक बात त बड गूढ़ लागल, ओ कहने रहथि जे योग आ अभ्यास सँ नीक कर्म दिश स्वयं केँ लगा लेब त ई सब त्यज्य कर्म सँ स्वतः दूर रहब। पिता संग व्यवहारिक आ स्वाध्याय सँ प्राप्त अनेकों उपाय रहनि, ओ कहने छलाह जे स्वयं केँ ततबा खुजल किताब जेकाँ राखू, फूटल ढोल जेकाँ राखू जे अपनहि निन्दा सुनैत गुनैत समय कटि जायत, अहाँ दोसरक निन्दा करब से समइये नहि भेटत। ई वला उपाय सच्चे बड़ा प्रभावकारी सिद्ध भेल। जतेक तक होइत अछि, ततेक तक खुजल किताबे बनिकय जिबय छी। अपने निन्दा आ आलोचना मे संसार केँ डूमल देखैत छी। एहि बीच हमरा जिनका-जिनका सँ सत्संग भ’ पबैत अछि ओ वास्तव मे अद्भुत स्नेही सज्जन लोक सब भेल करैत छथि जे हमर एतेक रास निन्दा आ कुचर्चा सब सुनितो-बुझितो हमरा पर विश्वास करैत छथि। पिताक उपदेश प्रभावकारी भेल, लेकिन गुरुजीक वचन परम् हितकारी आ अन्तिम सत्य थिक।

शरणागति नाम के एक अति बेहतरीन व जीवन मे अविस्मरणीय पुस्तक – स्वामी रामसुखदासजी महाराजक लिखल आ गुरुदेव परविन्दर कुमार लाम्बा ‘सरजी’ केर उपहार रूप मे जनकपुरी (नई दिल्ली) मे देल पोथी मे सेहो बहुत सुन्दर सुझाव सब भेटल छल। कहल गेल छल जे अहाँ एक बेर स्वयं केँ शरणागति धर्म अनुसार भगवानक शरण मे मानि लेलहुँ त आब कोनो बात लेल कियैक डराइत छी… जँ डर होइत अछि त अहाँक शरणागतिक अवस्था शंकास्पद अछि, अहाँ अपन मालिक (भगवान) केर सर्वसामर्थ्यवान् होयबाक भाव एखन धरि नहि बुझि सकलहुँ अछि, अहाँ स्वयं अपन भगवानक निन्दक छी…. जँ एक बेर बुझि गेलियैक जे हम सर्वसामर्थ्यवान् ईश्वरक अधीन आ हुनकहि शरण मे शरणापन्न अवस्था मे छी त आब जे होयत, जे भ’ रहल अछि… सबटा हुनकर प्रसाद थिक। निश्चिन्त रहू आब। निर्भीकता संग अपन जीवन पथ पर बढैत रहू। अपना मे दुर्गुण देखी या सद्गुण – सबटा हुनकहि प्रसाद थिक। द्वंद्व मे नहि पड़बाक अछि। नहि त निन्दा नहिये गुमान! हर अवस्था मे एक समान!!

विदित अछि जे नव-नव लोक संग भेंट होइत रहैत अछि। कियो कतहु शुरू भ’ गेल करैत छथि। दोसरक सम्बन्ध मे अपन समझ सँ हमर समझ केँ प्रभावित करब आरम्भ कय देल करैत छथि। स्वयं ओ किनको सँ आहत अपन अहं व नासमझीक कारण भेलथि, अथवा कियो हुनका लोकनिक बीच बात गलत ढंग सँ आदान-प्रदान कय रहल अछि… जेहो किछु बात हो… लेकिन आपसी मनमुटाव के दलदल मे ओ फँसि गेलथि त ओ लगला आरो लोकक माथ मे ओहने दलदल बनाबय। नहि! हम चौंकैत छी। जागि जाइत छी। गुरु, पिता व सन्तजन लोकनिक उपरोक्त वर्णित सारा बात मोन पड़ि जाइत अछि। यथासम्भव प्रयास करैत छी जे ओहेन दलदल मे फँसल लोक केँ सहारा दी। पापाचार सँ निवृत्तिक मार्ग निर्देश करी। पता नहि सफल भेलहुँ अथवा नहि, ततेक ध्यान नहि दय पबैत छी, धरि अपन कर्तव्य ओतबे धरि बुझैत छी।

आजुक एहि लेख केर सन्देश एतबा अछि जे परोक्ष निन्दा एकटा घोर पापकर्म थिकैक, एहि मे कदापि नहि फँसू। जिनका किनको केकरहु प्रति अविश्वासक भाव आबय, कोनो व्यवहार शंकास्पद लागय, कियो कतहु किछु सुना देथि.. त अहाँ एतबा प्रसन्नचित्त रहू जे हुनका सँ हँसैत भेंट कय सकी, आ सीधा पुछियौन…. कि यौ जी! अहाँ के बारे मे ई सुनलहुँ से कतेक सच आ कतेक झूठ? जँ ओ निर्भीकता सँ एकरा स्वीकार करैत गछि लेथि त तुरन्त आत्मचिन्तन आरम्भ करू जे जरूर अहाँ मे ई कमजोरी हुनका देखेलनि से कतहु न कतहु अहाँ सँ मिस्टेक भेल अछि। ओहि मिस्टेक केँ सुधार करय दिश अपन चर्या मे सुधार आनबाक यत्न करू। बस। दुःखी एहि लेल कदापि नहि भ’ जाउ जे फल्लाँ अहाँक कोनो कमजोरी अप्रत्यक्ष (परोक्ष) वा प्रत्यक्ष इंगित कयलनि। बल्कि चिन्तन एहि विन्दु पर जरूर करू जे ई अवस्था उत्पन्न कियैक भेल।

आर हँ, आखिरी मे इहो नोट कय लिअ… किछु दम्भी प्रवृत्ति के लोक होइत छथि जे सदिखन ‘हम्मा-हम्मा’ गीत गबैत रहता, ओ आत्ममुग्ध व्यक्ति एतबा आत्मकामी होइत छथि जे अपन दायरा व परिधि सँ बाहर भ’ए नहि सकैत छथि। हुनकर कहल बात केँ एक कान सँ सुनू आ दोसर कान देने बहा देल करियौक। कारण ओ बीमार व्यक्ति छथि, बीमार सँ मात्र सहानुभूति उचित।

हरिः हरः!!