साहित्य
महाकवि विद्यापति के कतेको रचना के वास्तविक अर्थ बहुत लोक के बुझय नहि अबैत अछि। जय जय भैरवि हो या कतेको लोकप्रिय नचारी आ अन्यान्य रचना, गाबैत सब अछि मुदा भाव स्पष्ट नहि रहैत छैक। एकटा एहने प्रसिद्ध रचना छन्हि पिआ मोर बालक हम तरुणी गे, एकर भाव के सम्बन्ध में बहुत बेसी भ्रम अछि। आइ एहि सन्दर्भ फेसबुक पर कयल एक सर्वेक्षण में सेहो विभिन्न मत आ विचार भावार्थ पर आयल। डॉ चन्द्रमणि झा स्वयं विद्वान कवि, लेखक, गीतकार आ बहुमुखी प्रतिभा के धनी वरिष्ठ अभिभावक छथि। हुनका द्वारा प्रस्तुत कयल गेल विश्लेषण आ लाइन बाय लाइन व्याख्या देखू –
पिआ मोर बालक हम तरुणी गे
कोन तप चुकलहुँ भेलहुँ जननी गे।
पहिरि लेल सखि सब दछिनक चीर
पिआ के देखैत मोर दगध सरीर।
पिआ मोर बालक….
पिआ लेलि गोद कि चललि बजार
हटिआ के लोक पुछए के लागु तोहार।
पिआ मोर बालक…
नहि मोरा दिओर कि नहि छोट भाइ
पुरब लिखल छल बालुम गे दाइ।
पिआ मोर बालक….
बाट रे बटोहिआ कि तोहुँ मोरा भाइ
हमरो समाद नैहर नेने जाइ।
पिआ मोर बालक…
कहिअनु बाबा के किनय धेनु गाइ
दुधबा पिआय के पोसता जमाइ।
पिआ मोर बालक….
नहि मोरा टाका अछि नहि धेनु गाइ
कोन विधि पोसब बालक जमाइ।
पिआ मोर बालक….
भनहिं ‘विद्यापति’ सुनु ब्रजनारी
धैरज धए रहू मिलत मुरारि।
पिआ मोर बालक….
ई बुझाइत अछि एकदम सटीक!
साभार डॉ चन्द्रमणि झा सर, संग में ई विलक्षण भावानुवाद भावार्थ आ उच्च भाव के रहस्योद्घाटन!😊
एहि गीतकेँ सामान्य जन बेमेल विवाह सँ लैत छथि जाहिमे युवतीक विवाह अवयस्क बालकसँ भ’ जाइत छन्हि आ नायिका अपन बालक पतिसँ व्यथित छथि. परन्तु, ई दृष्टिकूट अछि. अर्थात्, हम एकरा जेना देखैत छियै एकर विषय ओहिसँ विशेष अछि.
ई उल्लेख करब आवश्यक अछि जे राधा आ कृष्ण दुनू दू तन एक प्राण छथि. ‘कृष्णेन आराधते इति राधा’ तहिना ‘राधया आराधते इति कृष्ण:’. एक तरहें दुनू अर्धनारीश्वर छथि -“उभयो: सर्वसाम्यं च सदा संतो वदन्ति च.” दुनू अभिन्न तखन पूर्ण ब्रह्म. एहना स्थितिमे दुनू अलग कोना रहि सकैत छथि मुदा, लोक लीलामे फँसि गेलाह सरकार. जखनहि मनुख योनिमे जन्म लेलनि तखनहि अपूर्ण भ’ गेलाह. पूर्ण केवल ब्रह्म छथि, मनुख नहि. राधा रायाणक व्याहता किन्तु कृष्णानुरागिनी श्याम-प्रेम-समर्पिता छलीह. परन्तु, कृष्ण तँ एखन शैशवावस्थामे छथि. राधाक अही दुविधायुक्त मनोस्थितिकेँ एहि कूट पदमे लिखल गेल अछि –
हमर पिया नेना छथि आ हम युवती छी. कोन तपस्याक चूक भेल जे नारी भेलहुँ.
हम दछिन देशक चीर तँ पहिरलहुँ मुदा, अवयस्क पियाकेँ देखिकय हमर शरीर (मन नहि ) दगध भ’ जाइत अछि.
जौं पियाकेँ कोरामे ल’ कय बजार जाइत छी तँ लोक सम्बन्ध पुछैत अछि. कोना कहियौ जे ई ने तँ हमर देओर छथि आ ने छोट भाय छथि, ई तँ सुविचारित लीला अछि जे हमर पिया एखन बालक बनल छथि.
हे बटोही (आत्मा) अहाँ हमर पिता परमात्मा (महादेव) सँ कहिअनु जे हमर पिया (हरि)क लेल धेनु कीनथि आ दूध पियाकय हिनका पोसथि. किन्तु, जाह परमात्मा (महादेव) तँ धनहीन रहि हाथ उठा देलनि (दोसर ओ तँ बसहा बड़द पोसैत छथि, गाय नहि) आ पिता तँ सद्य: वृषभानुए छथि (बड़द पोसनिहार).
महाकवि कहैत छथिन हे ब्रजनारी! धैरज राखू. अहाँकेँ अभिलाषा रूपी कामाग्निक नष्ट कयनिहार मुरारी ओही रूपमे भेटताह. 🙏
आब बुझि गेल होयब जे महाकवि विद्यापति के रचना में कतेक उच्चभाव अछि से!😊😊
नोट: मूल टेक्स्ट में एक जगह हमरा गलत बुझायल त ओतय हम कनी सुधार कयल अछि।
हरि: हर:!!