रामचरितमानस: रूपक आ माहात्म्य – “महाकवि तुलसीदास केर अपूर्व प्रस्तुति’

रामचरितमानस मिथिलावासीक लेल खास कियैक
RamcharitmanasTopसनातन धर्म मे ईश्वर अनेक छथि, परन्तु राम तथा कृष्णक महत्त्व बहुत खास अछि। खास होयबाक कारण जे एहि दुइ अवतार केँ मनुष्य अपनहि रूप मे देखि मानुसिक क्रियाकलापक संग महापुरुषक आचार-विचार जुड़ल देखि दुनू चरित्रक अनुकरण सँ अपन जीवन केँ सफल बनेबाक चेष्टा करैत अछि। मनुष्यरूप मे रहैत सीता सहित राम केर दर्शन आरो बहुत मनोहरी आ सुखदायी अछि, ई व्यक्तिगत अनुभव सँ कहैत छी। मिथिलावासी लेल जनक ओ जानकीक महत्त्व अपन ठाम पर अछिये, एक सँ बढिकय एक ऋषि-मुनि-ज्ञानीजन एहि मिथिला मे भेलाह व एलाह, ताहि ठाम राम-लक्ष्मण सेहो परमगुरु विश्वामित्र संग आबि धनुषयज्ञ मे भाग लैत साक्षात् देवी जानकी केर पाणिग्रहण कएलनि। ई सौभाग्य मात्र मिथिलावासीक अछि, शायद इहो कारण होयत, ओनाहू सीता केर जाहि तरहक स्वरूप, गुण, धर्म, विचार, त्याग, कष्ट आ विपत्तिक समय धैर्य-धारण करबाक अति-विलक्षण चरित्रक गान आ प्रस्तुति अछि, मर्यादाक पुरुषोत्तम रामहु केँ हुनका सोझाँ निचाँ होमय पड़ल अछि, लगैत अछि जे मिथिलाक एहि मैथिली ‘जानकी’ केर मुख्य केन्द्रक चारूकात भगवान् राम केर लीला भेल अछि – एहि सब कारण सँ राम आ रामायण केर महत्त्व हमरा सब लेल आरो खास भऽ जाइत अछि। ओना तऽ रामचरितमानस केर गान ओ बखान बहुतो गोटा केने छथि, मुदा वर्तमान युग मुताबिक महाकवि तुलसीदास केर रचना सर्वोपरि कहबा मे सेहो हमरा कतहु सँ सोचय नहि पड़ैत अछि। आउ, हुनकहि शब्द मे मनन करी, मानसक रूप आ माहात्म्य!!
दोहा :
जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥
भावार्थ:- ई रामचरित मानस जेहन अछि, जाहि तरहें बनल अछि और जाहि कारण सँ जगत मे एकर परचार भेल, ओ सब कथा हम श्री उमा-महेश्वरकेँ स्मरण करैत कहैत छी। (बालकाण्ड केर दोहा संख्या ३५ सँ प्रारंभ)
चौपाई :
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥
भावार्थ:-श्री शिवजी केर कृपा सँ ओकर हृदय मे सुंदर बुद्धि केर विकास भेल, जाहि सँ ई तुलसीदास श्री रामचरित मानस केर कवि भेला। अपन बुद्धिक अनुसार तँ ओ एकरा मनोहर बनबिते छथि, किन्तु तैयो हे सज्जनवृन्द! सुंदर चित्त सँ सुनिकय एकरा अहाँ सुधारि लियऽ॥1॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥2॥
भावार्थ:- सुंदर (सात्त्विकी) बुद्धि भूमि थीक, हृदय टा ओहिमे गहिंर स्थान थीक, वेद-पुराण समुद्र थीक और साधु-संत मेघ थीक। ओ (साधु रूपी मेघ) श्री रामजी केर सुयश रूपी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल केर वर्षा करैत अछि॥2॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥
भावार्थ:- सगुण लीला केर जेहन विस्तार सँ वर्णन करैत अछि, वैह राम सुयश रूपी जल केर निर्मलता थीक, जे मल केँ नाश करैत अछि और जाहि प्रेमाभक्ति केर वर्णन नहि कैल जा सकैछ, वैह एहि जल केर मधुरता और सुंदर शीतलता अछि॥3॥
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥
भावार्थ:- वैह (राम सुयश रूपी) जल सत्कर्म रूपी धानक लेल हितकर अछि और श्री रामजी केर भक्त केर तऽ जीवनो वैह अछि। वैह पवित्र जल बुद्धि रूपी पृथ्वी पर खसल और सिमटिकय सुहाओन कान रूपी मार्ग सँ चलल और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थान मे भरिकय ओतहि स्थिर भऽ गेल। वैह पुरान होइतो सुंदर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई बनि गेल॥4-5॥
दोहा :
सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥
भावार्थ:- एहि कथा मे बुद्धि सँ विचारिकय जे चारि अत्यन्त सुंदर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास तथा संत) रचल अछि, वैह एहि पवित्र और सुंदर सरोवर केर चार मनोहर घाट थीक॥36॥
चौपाई :
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥
भावार्थ:- सात काण्ड टा एहि मानस सरोवर केर सुंदर सात सीढ़ी थीक, जिनका ज्ञान रूपी नेत्र सँ देखिते मन प्रसन्न भऽ जाइत अछि। श्री रघुनाथजी केर निर्गुण (प्राकृतिक गुण सँ अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमा केर जे वर्णन कैल जायत, वैह एहि सुंदर जल केर अथाह गहिराइ थीक॥1॥
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥2॥
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी और सीताजी केर यश अमृतक समान जल थीक। एहिमे जे उपमा देल गेल अछि, वैह तरंग केर मनोहर विलास थीक। सुंदर चौपाइ टा एहिमे सघनता सँ पसरल पुरइन (कमलिनी) थीक और कविता केर युक्ति सुंदर मणि (मोती) उत्पन्न करयवाली सुहाउनी सीपि आदि थीक॥2॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥3॥
भावार्थ:- जे सुंदर छन्द, सोरठा और दोहा अछि, वैह एहिमे बहुरंगा कमलक समूह सुशोभित अछि। अनुपम अर्थ, ऊँचा भाव और सुंदर भाषा टा पराग (पुष्परज), मकरंद (पुष्परस) और सुगंध थीक॥3॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥
भावार्थ:-सत्कर्म (पुण्य) केर पुंज भौंराक सुंदर पंक्ति थीक, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस थीक। कविता केर ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति टा अनेको प्रकारक मनोहर माछ थीक॥4॥
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥5॥
भावार्थ:- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- यैह चारू, ज्ञान-विज्ञान केर विचारक कथन, काव्य केर नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्य केर प्रसंग- ई सब एहि सरोवर केर सुंदर जलचर जीव थीक॥5॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥
भावार्थ:- सुकृती (पुण्यात्मा) जनक, साधु केर और श्री रामनाम केर गुणक गान टा विचित्र जल पक्षीक समान अछि। संत केर सभा टा एहि सरोवरक चारू कातक अमराई (आमक गाछी) अछि और श्रद्धा वसन्त ऋतु केर समान कहल गेल अछि॥6॥
भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥
भावार्थ:- नाना प्रकार सँ भक्ति केर निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रिय निग्रह) लताक मण्डप थीक। मनक निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) टा तेकर फूल अछि, ज्ञान फल थीक और श्री हरि केर चरण मे प्रेम टा एहि ज्ञान रूपी फलक रस थीक। ई बात वेद कहने अछि॥7॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥8॥
भावार्थ:- एहि (रामचरित मानस) मे औरो जे अनेक प्रसंग केर कथा सब अछि, ओ सब एहिमे सुग्गा, कोयली आदि रंग-बिरंगक पक्षी थीक॥8॥
दोहा :
पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
भावार्थ:- कथा मे जे रोमांच होइत अछि, वैह वाटिका, बाग आर वन थीक और जे सुख होइत अछि, वैह सुंदर पक्षीक विहार थीक। निर्मल मन टा माली थीक, जे प्रेमरूपी जल सँ सुंदर नेत्र द्वारा ओकरा सींचैत अछि॥37॥
चौपाई :
जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥
भावार्थ:- जे लोक एहि चरित्र केँ सावधानी सँ गबैत छथि, वैह टा एहि पोखरि केर चतुर रखवार थिका आर जे स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक एकरा सुनैत अछि, वैह एहि सुंदर मानस केर अधिकारी उत्तम देवता सब छथि॥1॥
अति खल जे बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥
भावार्थ:- जे अति दुष्ट और विषयी अछि, वै अभागल बगुला और कौआ थीका, जे एहि सरोवर केर पास तक नहि जेता, कियैक तऽ एहि ठाम डोकी, बेंग आ समार जेकाँ विषय रस केर तरह-तरहके खिस्सा नहि अछि॥2॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥
भावार्थ:- एहि कारण बेचारे कौआ और बगुलारूपी विषयी लोक एतय अबैत धरि हृदय मे हारि मानि जाइत छथि, कियैक तँ एहि सरोवर तक अयबा मे कठिनाई बहुते छैक। श्री रामजी केर कृपा बिना एतय तक नहि आयल होइत छैक॥3॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥
भावार्थ:- घोर कुसंग टा भयानक खराब रस्ता अछि, ओहि कुसंगीजन केर वचन टा बाघ, सिंह और साँप थीक। घर केर कामकाज और गृहस्थीक भाँति-भाँति केर जंजाल टा अत्यंत दुर्गम बड़-बड़ पहाड़ थीक॥4॥
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥5॥
भावार्थ:- मोह, मद और मान टा बहुते बीहड़ वन अछि और नाना प्रकार केर कुतर्क टा भयानक नदी सब थीक॥5॥
दोहा :
जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥
भावार्थ:- जिनका पास श्रद्धा रूपी बाटक खर्चा नहि अछि और संत केर साथ नहि अछि और जिनका श्री रघुनाथजी प्रिय नहि छथि, हुनका लेल ई मानस अत्यंतहि अगम अछि। (अर्थात्‌ श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम केर बिना कियो एकरा नहि पाबि सकैछ)॥38॥
चौपाई :
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥
भावार्थ:- यदि कोनो मनुष्य कष्ट उठाकय ओतय तक पहुँचियो जाइछ, तँ ओतय जाइते ओकरा नींद रूपी ज़ूडी आबि जाइत छैक। हृदय मे मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ लागय लगैत छैक, जाहि सँ ओतय गेलाक बादो ओ अभागा स्नान नहि कय पबैछ॥1॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥
भावार्थ:- ओकरा सँ ओहि सरोवर मे स्नान और ओकर जलपान तो कैले नहि होइत छैक, वह अभिमान सहित लौटि अबैत अछि। फेरो यदि कियो ओकरा सँ ओतुका हाल पूछय अबैत अछि तऽ ओ अपन अभाग्यक बात नहि कहि सरोवरक निंदा करैत ओकरा बुझाबय लगैत अछि॥2॥
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥
भावार्थ:- ई सारा विघ्न ओकरा नहि व्यापैछ (बाधा नहि दैछ) जेकरा श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा भरल दृष्टि सँ देखैत छथि। वैह आदरपूर्वक एहि सरोवर मे स्नान करैत अछि आर महान्‌ भयानक त्रिताप सँ (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक ताप सँ) नहि जरैछ॥3॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥
भावार्थ:- जिनका मन मे श्री रामचंद्रजी केर चरण मे सुंदर प्रेम अछि, ओ एहि सरोवर केँ कहियो नहि छोड़ैछ। हे भाइ! जे एहि सरोवर मे स्नान करय चाहैछ, ओ मन लगाकय सत्संग करय॥4॥
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥
भावार्थ:- एहेन मानस सरोवर केँ हृदयक आँखि सँ देखिकय और ओहिमे डूबकी लगाकय कवि केर बुद्धि निर्मल भऽ गेल, हृदय मे आनंद और उत्साह भरि गेल और प्रेम तथा आनंद केर प्रवाह उमैड़ आयल॥5॥
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो।
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥
भावार्थ:- ओहिसँ ई सुंदर कविता रूपी नदी बहि निकलल, जाहिमे श्री रामजी केर निर्मल यश रूपी जल भरल अछि। एहि (कवितारूपिणी नदी) केर नाम सरयू थीक, जे संपूर्ण सुंदर मंगल केर जैड़ थीक। लोकमत और वेदमत एकर दुइ सुंदर किनारा थीक॥6॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥
भावार्थ:- ई सुंदर मानस सरोवर केर कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र अछि और कलियुग केर (छोटे-बड़) पाप रूपी तिनका और वृक्ष केँ जैड़सँ उखाड़ि फेंकयवला अछि॥7॥
दोहा :
श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
भावार्थ:- तीनू प्रकार केर श्रोताक समाज टा एहि नदीक दुनु कंछैरपर बसल पुरवा, गाँव और नगर मे पड़ैछ और संतक सभा टा सब सुंदर मंगल केर जैड़ अनुपम अयोध्याजी छथि॥39॥
चौपाई :
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
भावार्थ:- सुंदर कीर्ति रूपी सुहाउनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी मे जाय मिल गेली। छोट भाइ लक्ष्मण सहित श्री रामजी केर युद्ध केर पवित्र यश रूपी सुहाओन महानद सोन ओहिमे आबि मिल गेल॥1॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥
भावार्थ:- दुनुक बीच मे भक्ति रूपी गंगाजी केर धारा ज्ञान और वैराग्य केर सहित शोभित भऽ रहल अछि। एहेन तिनू ताप केँ डराबयवाली ई तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र केर तरफ जा रहल अछि॥2॥
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥
भावार्थ:- ई (कीर्ति रूपी सरयू) केर मूल मानस (श्री रामचरित) अछि और यैह (रामभक्ति रूपी) गंगाजी मे मिलल अछि, ताहि सँ ई सुनयवला सज्जन केर मन केँ पवित्र कय दैत। एकरहि बीच-बीच मे जे भिन्न-भिन्न प्रकारक विचित्र कथादि अछि, वैह मानू जे नदी तट केर आस-पासक वन और बाग थीक॥3॥
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥4॥
भावार्थ:- श्री पार्वतीजी और शिवजी केर विवाह केर बाराती एहि नदी मे बहुत प्रकार केर असंख्य जलचर जीव थीक। श्री रघुनाथजी केर जन्म केर आनंद-बधाई टा एहि नदी केर भँवर और तरंगक मनोहरता थीक॥4॥
दोहाः
बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥40॥
भावार्थ:- चारू भाइ केर जे बालचरित अछि, वैह एहिमे खिलल रंग-बिरंगक बहुते रास कमल थीक। महाराज श्री दशरथजी तथा हुनक रानि लोकनि और कुटुम्बादिक सत्कर्म (पुण्य) टा भ्रमर और जल पक्षी थीक॥40॥
चौपाई :
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥
भावार्थ:- श्री सीताजी केर स्वयंवरक जे सुन्दर कथा अछि, वैह एहि नदी मे सुहाओन छबि बना रहल अछि। अनेको सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न टा एहि नदी केर नाव थीक और तेकर विवेकयुक्त उत्तर टा चतुर केवट थीक॥1॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥
भावार्थ:- एहि कथा केँ सुनिकय बादमे जे आपस मे चर्चा होइत अछि, वैह एहि नदीक सहारे-सहारे चलयवला यात्री समाज शोभा पाबि रहल अछि। परशुरामजी केर क्रोध एहि नदीक भयानक धारा थीक और श्री रामचंद्रजी केर श्रेष्ठ वचन टा सुंदर बान्हल घाट थीक॥2॥
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥
भावार्थ:- भैयारी सहित श्री रामचंद्रजी केर विवाह केर उत्साह टा एहि कथा नदी केर कल्याणकारिणी बाढ़ि थीक, जे सब केँ सुख देवयवाली अछि। एकरा कहला-सुनला सँ जे जीव हर्षित और पुलकित होइत अछि, ओ सब पुण्यात्मा पुरुष थीक, जे प्रसन्न मन सँ एहि नदी मे नहाइत छथि॥3॥
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी केर राजतिलक हेतु जे मंगल साज सजाओल गेल, वैह मानू पर्वक समय एहि नदी पर यात्रीगणक समूह इकट्ठा भेल जेकाँ अछि। कैकेयी केर कुबुद्धि टा एहि नदी मे काई थीक, जेकर फलस्वरूप बड़ भारी विपत्ति आबि पड़ल॥4॥
दोहा :
समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
भावार्थ:- संपूर्ण अनगिनत उत्पात केँ शांत करयवला भरतजी केर चरित्र नदी तट पर कैल जायवला जपयज्ञ थीक। कलियुग केर पाप और दुष्ट केर अवगुण केर जे वर्णन अछि, वैह टा एहि नदी केर जल मे थाल-खींच आ बगुला-कौआ थीक॥41॥
चौपाई :
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
भावार्थ:- यैह कीर्तिरूपिणी नदी छहो ऋतु मे सुंदर अछि। सब समय यैह परम सुहाउनी और अत्यंत पवित्र अछि। एहिमे शिव-पार्वती केर विवाह हेमंत ऋतु थीक। श्री रामचंद्रजी केर जन्म केर उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु थीक॥1॥
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी केर विवाह समाज केर वर्णन टा आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत छथि। श्री रामजी केर वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु छथि और मार्ग केर कथा टा कड़ा धूप और लू थीक॥2॥
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
भावार्थ:- राक्षस केर संग घोर युद्ध टा वर्षा ऋतु थीक, जे देवकुल रूपी धान वास्ते सुंदर कल्याण करयवला अछि। रामचंद्रजी केर राज्यकालक जे सुख, विनम्रता और बड़ाई अछि, वैह निर्मल सुख देवयवला सुहाओन शरद् ऋतु थीक॥3॥
सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥
भावार्थ:- सती-शिरोमणि श्री सीताजी केर गुणक जे कथा अछि, वैह एहि जल केर निर्मल और अनुपम गुण थीक। श्री भरतजी केर स्वभाव एहि नदी केर सुंदर शीतलता थीक, जे सदैव एक समान रहैछ और जेकर वर्णन नहि कैल जा सकैछ॥4॥
दोहा :
अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
भावार्थ:- चारू भैयाक परस्पर देखनाय, बजनाय, आपस मे भेटनाय, एक-दोसर सँ प्रेम केनाय, हँसनाय और सुंदर भाईपना एहि जल केर मधुरता और सुगंध थीक॥42॥
चौपाई :
आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥
भावार्थ:- हमर आर्तभाव, विनय और दीनता एहि सुंदर और निर्मल जल केर कम हलकापन नहि अछि (अर्थात्‌ अत्यंत हलकापन अछि)। ई जल बड़ी अनोखा अछि, जे सुनले सँ गुण करैत अछि और आशा रूपी प्यास केँ और मनक मैल केँ दूर कय दैत अछि॥1॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
भावार्थ:- यैह जल श्री रामचंद्रजी केर सुंदर प्रेम केँ पुष्ट करैत अछि, कलियुग केर समस्त पाप और ओहिसँ होयवला ग्लानि केँ हैर लैत अछि। (संसारक जन्म-मृत्यु रूप) श्रम केँ सोखि लैत अछि, संतोष केँ सेहो संतुष्ट करैत अछि और पाप, दरिद्रता और दोषादिकेँ नष्ट कय दैत अछि॥2॥
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
भावार्थ:- यैह जल काम, क्रोध, मद और मोह केर नाश करयवाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य केँ बढ़ावयवाला होइछ। एहिमे आदरपूर्वक स्नान कएला सँ और एकरा पीला सँ हृदय मे रहयवला सब पाप-ताप मेटा जाइत अछि॥3॥
जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥
भावार्थ:- जे कियो एहि (राम सुयश रूपी) जल सँ अपन हृदय केँ नहि धोलनि, ओ कायर कलिकाल द्वारा ठकल गेला। जेना प्यासल हिरन सूर्य केर किरण केँ रेत पर पड़ैत देखि जल केर भ्रम केँ वास्तविक जल मानि पीबय लेल दौड़ैत अछि और जल नहि पाबि दुःखी होइत अछि, ओहिना ओ (कलियुग सँ ठकायल लोक) जीव सेहो (विषय केर पाछाँ भटैककय) दुःखी भऽ जाइछ॥4॥
दोहा :
मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥
भावार्थ:- अपन बुद्धिक अनुसार एहि सुंदर जल केर गुण केँ विचारिकय, ओहिमे अपने मन केँ स्नान कराकय और श्री भवानी-शंकर केँ स्मरण करैत कवि (तुलसीदास) सुंदर कथा कहलनि अछि॥43 (क)॥
ॐ तत्सत्!!