आध्यात्मिक कथा
– प्रवीण नारायण चौधरी
लिखल नहियो रहैत छैक तैयो भेटैत छैक…..
जी! एक बेर नारदजी पृथ्वीलोक भ्रमण करय लेल एलाह। भैर दिन घुमघाम केलाक बाद, कहू न, अपनहि मिथिलाक एकटा सुन्दर गाम पहुँचि गेलाह।
इच्छा भेलन्हि जे भगवान् राम कहियो मिथिलाक पहुनाई केर चर्चा करथि से कनेक अपनो एक दिन पहुनाइ कइये ली।
ओहि गामक एक सज्जन सँ कहलखिन जे, “यौ सरकार! हम मुसाफिर छी। राति पड़य लागल। आइ कतहु रुकबाक व्यवस्था जँ एहि गाम मे भऽ जइतय तँ बेश होएत।”
ओ सज्जन जबाब देलखिन, “सरकार! एहि गामक बहरी भाग मे एकटा सज्जन घर बनाकय रहैत छथि। हुनका ओतय कतेको राही-मुसाफिर सब रुकैत छथि, ओ सज्जन हुनका लोकनि केँ देवता जेकाँ मानैत छथिन। आब अहुँ कनी दूर आरो टहैलकय हुनकहि घर पर चलि जाउ।”
नारदजी मोन-मन सोचलाह जे अतिथि-सत्कार लेल नामी लोकक घरे रातुक विश्राम लेल उचित होयत। ओहो फरिछाकय ओहि सज्जन केर घरक पता पूछि ओतय जा कय दरबज्जा पर सँ हाक देलखिन, “घरबारी थिकहुँ यौ?”
घरक दरबज्जा पर आबि ओ सज्जन सपत्नीक हुनका सँ परिचय पूछलखिन, “जी! कहू सरकार? अपने के?”
नारदजी कहलखिन, “यौ बाबू! हम आन गामक मुसाफिर छी। आइ साँझ पड़ि गेल। राति मे जायब पार नहि लागत। कि अपने ओतय हमरा रातिक विश्राम लेल जगह भेटत?”
ओ सज्जन शीघ्र जबाब देलखिन, “अहोभाग्य! अहोभाग्य!! यौ सरकार, ई त हमर सौभाग्य होयत जे अपने समान सज्जन मुसाफिर आइ राति हमर कुटिया पर विश्राम करताह। अवश्य पधारू। अवश्य पधारू।”
नारदजी ओहि सज्जनक आगत-भागत सँ ओत-प्रोत अत्यन्त प्रसन्नताक संग हुनकर घरक आंगन मे प्रवेश कयलन्हि। ओ सज्जन हुनका लेल घरहि केर चहारदीवारी भीतर अतिथि विश्राम लेल बनायल एकटा विशिष्ट दलान मे लय गेलाह। हुनक पत्नी झट स बाल्टीन मे पानि भरि लोटा सहित दलान मे आबिकय हुनका सँ पैर-हाथ धोबाक निवेदन कयलीह। नारदजी जा धरि पैर-हाथ धोलनि, ओ सज्जन साफ-सुथरा गमछा लय हुनका हाथ मे धरौलनि, “लेल जाउ सरकार! हाथ-मुंह पोछि लेल जाउ।”
तरातरी हुनका वास्ते ओछाइन-बिछाउन-ओढना आदिक व्यवस्था कय सज्जन ओ हुनक पत्नी हुनका सँ किछु काल विश्राम करबाक निवेदन करैत तत्काल शर्बत पीबि लेबाक आग्रह कयलखिन। जा धरि नारदजी शर्बत पीबिकय विश्राम करितथि ता धरि मे ओ सज्जन अपनहि बारीक ताजा-ताजी तरकारी, साग, तिलकोरक पात आदि तोड़ि अपन पत्नीक हाथ पहुँचौलनि, कहलनि जे एहेन दिव्य पाहुन आइ धरि नहि आयल छलाह। ई साक्षात् कियो देवलोक सँ आयल पाहुन बुझा रहला अछि। हिनका लेल एहेन स्वादिष्ट व्यंजन बनाउ जे ई प्रसन्न भऽ खूब आशीर्वाद देथि।
पतिक सब आज्ञा अपन माथ धय सज्जनक पत्नी तुरन्त सुहृदयता सँ सुस्वादिष्ट भोजन तैयार कय लेलीह। पुनः सज्जन नारदजी सँ भोजन ग्रहण करबाक लेल निवेदन कयलन्हि। यथावस्तु व्यंजन-परिकार सब परोसिकय हुनका भोजनक पीढी पर बैसायल गेल। भोजन पूर्व दालि मे अत्यन्त सुगन्धित गायक घी दैत हुनका सँ भोग लगेबाक आग्रह कयल गेलनि। नारदजी भोजनक सुगन्ध सँ महो-महो अनुभव कय रहल छलाह, ताहि पर सँ कल जोड़ि ओ स्त्री-पुरुष केर अतिथि स्वागतक अनुराग हुनका हृदय केँ आरो बेसी आह्लादित कय रहल छल। सुरुचिपूर्वक भोग लगबैत भोजन ग्रहण कय मनहि-मन भगवान् सँ एहि सज्जन ओ हुनक पत्नी लेल ओ खूब आशीर्वादक कामना कय रहल छलाह।
भोजनोपरान्त नारदजी केँ हाथ-मुंह पोछबाक लेल सज्जन पुनः तौलिया निवेदन कयलन्हि त हुनक पत्नी पान लगाकय सुपारी टूक लेब कि कतरन, सुकमेल, सौंफ, मिसरी, नारियल आदि संग सेवा मे हाजिर कय देलीह।
नारदजी सब सुख भोगि कनेकाल लेल स्वर्गक आनन्द सेहो बिसैर गेलाह। ओ डूबि गेलाह प्रभु रामचन्द्रजी ओ सीताजी केर लीला-वर्णन मे। मनहि मन अपन वीणाक करताल पर ओ सीता-राम केर कथा-गाथा बजा-बजा मिथिलाक अतिथि-स्वागत केर वेद-महिमा मोन पाड़य लगलाह। अपन बिछाउन धरि पहुँचैत ओ सज्जन व हुनक पत्नी केँ खूब धन्यवाद करैत हुनको लोकनि सँ भोजन व विश्राम लेल कहलन्हि। अपने खूब कीर्तन करैत मिथिलाक महिमा मे डूबकी लगा रहल छलाह। कखन नींद पड़ि गेलाह से अपनो नहि बुझलथि। भोरे ब्रह्म मुहुर्त मे नींद खुजलनि, ओ भोरका हवाक सिहकी आ सुगन्धित वातावरण – मिथिलाक लता-वृक्ष-पुष्पादिक संग स्वच्छ जलहवा कतहु नजदीक सँ अबैत बुझेलन्हि। घरबारी केँ बिना कोनो कष्ट देने ओ चारूकात गाम मे बुलय लेल निकलि गेलाह। ओम्हर सँ नित्यकर्म-स्नानादि सम्पन्न कयने गामहि केर एक मन्दिर पर इष्ट परमपिता नारायण केर पूजा-पाठ सब सम्पन्न कयने जा धरि घर लौटलाह, हुनका लेल फेरो ओ सज्जन सपत्नीक सेवा मे ठाढ छलाह।
“कतय चलि गेल रहियैक, हम सब चिन्ता मे रही।” आदि कहैत ओ सब नारदजी सँ गाम घुमि-टहलि आ स्नान-पूजादि सँ निवृत्त होयबाक कथा सुनि आरो खुशी भेलाह। भोरुक पहर किछु फल ग्रहण करबाक आग्रह, भैर पनपथिया फल निवेदित, फलाहार कय जल-ग्रहण करैत नारदजी आब अपन गाम दिस प्रस्थान करबाक निवेदन कयलन्हि। सज्जन कहलखिन, “सरकार, अपने समान पवित्र पाहुन केँ बिना दक्षिणा-विदाई कोना जाय लेल कहब। कनेकाल आरो रुकू। चौक पर दोकान खुजि जेतैक त एक जोड़ धोतियो कम सँ कम अपने वास्ते कीनि आनब, विदाई केने बिना गेनाय नहि होयत।”
नारदजी एहि सब आग्रहक समक्ष आरो हेरायल-भोथियायल बुझाय लगलाह। हुनकर ओजस्वी चेहरा पर प्रसन्नता आ विस्मयक बोध साफ झलैक रहल छल। ओ डूबि गेल छलाह। बेर-बेर रामजी द्वारा गोप्य वर्णन मे मिथिलाक महिमा सब सुनेबाक वृत्तान्त सब मोन पड़न्हि। ओहि विदाई केर वास्ते ओ नहि तक नहि कहि सकलाह।
थोड़ेकालक बाद पाँचो टुक वस्त्रक संग ओ स्त्री-पुरुष हुनका लग आबिकय विदाई ग्रहण करबाक लेल निवेदन कयलन्हि। नारदजी आब ततेक मगन छथि जे हिनको लोकनि केँ किछु दानक प्रतिदान करबाक लेल मोन बना लेलनि। नारदजी आब खुलिकय कहलखिन, “सरकार! अहाँ दुनू प्राणीक अतिथि-सत्कार सँ हम बड प्रसन्न छी। हम नारद मुनि थिकहुँ, देवलोक सँ पृथ्वीलोक आयल छी। आब अहाँ ओतय सँ सीधे भगवानक लोक मे पहुँचब। कहू! अहाँ केँ भगवान् सँ किछु चाही? हम जरूर हुनका अहाँक समाद कहबनि।”
दुनू प्राणी घोर आश्चर्य आ हर्ष सँ मिश्रित नारदजीक पैर पर खसि पड़लाह। दुनू गोटाक हृदय मे अजीब अकुलाहट भेल। कोंढ फाटि गेलनि। विलखैत नारदजी सँ कहलखिन, “सरकार! भगवान् हमरा सब किछु देलनि, मुदा सन्तान नहि भेल अछि। भगवान् एतेक सुख सँ कियैक वंचित रखने छथि से कनेक कहबनि।”
नारदजी तथास्तु कहिकय हुनका लोकनिक आँखिक सोझाँ सँ तुरन्त अलोपित भऽ गेलाह। अतिथिक रूप मे एहेन अनुपम सत्कार पाबि ओ मिथिलानगरी सँ सीधा भगवानक समीप पहुँचलाह। प्रणाम निवेदित कय अपन सम्पूर्ण गाथा हुनका सुनौलनि। भगवान् चवनियाँ मुस्कान दैत हुनकर सब बात सुनैत विहुँसैत रहलखिन। नारदजी अन्त मे कहलखिन, “से प्रभु! आबयकाल मे जखन हुनका सब केँ अपन असली बात कहलियैन आ ईहो कहलियैन जे भगवान् लेल कि समाद अछि त ओ सब सन्तान सुख सँ वन्चित होयबाक बात कहि सन्तानक मांग कयलनि। आब अपने हुनका सब केँ अवश्य आशीर्वाद दी से हम प्रार्थना करैत छी।”
भगवान् बड़ी जोर सँ ठहक्का मारिकय हँसैत कहलखिन, “नारद! ई हुनका एखन सात जन्म धरि संभव नहि छन्हि। सब किछु भेटतनि, मुदा सन्तान एखन सात जन्म धरि नहि लिखल छन्हि। हम कि करू? विधानक काज त विधाने करत!”
नारदजी उदास भऽ गेलाह। सोचय लगलाह जे एहेन पुण्य आ प्रतापक भागी ओहि दम्पत्ति केँ सन्तान सुख तक नहि लिखल छन्हि, सात जन्म धरि नहि छन्हि ई सुख… ओ बड़ा विस्मित भऽ पुनः विधक विधान मानि अपन अन्य कार्य मे लागि गेलाह।
गोटेक वर्षक बाद एक बेर फेर नारदजी कोनो आने कार्य सँ पृथ्वीलोकक ओही गाम होएत जा रहल छलाह। हुनका अचानक मोन पड़ि गेलन्हि। ओ तुरन्त निर्णय लेलनि जे कम सँ कम हालचाल पूछि लैत छियन्हि, से सोचि ओ दरबज्जा पर जा कय आवाज देलखिन, आ कि सोझाँ सँ दू टा दिव्य बालक खेलाइत आबि दरबज्जा खोललकनि। पूछलखिन, घरक स्वामी कतय छथि? ओ बच्चा सब जबाब देलकनि, “बाबूजी खेत दिस गेल छथि। माय अंगना मे भानस बना रहली अछि।” नारदजी घोर विस्मित भऽ गेलाह। पूछलखिन, “अहाँ सब हुनकहि पुत्र थिकहुँ कि?” जबाब भेटलनि, “जी सरकार!”
आब त नारदजी केँ भगवानक कहल बात मोन पड़ि गेलन्हि। ओ अपन काज-ताज छोड़ि सीधे भगवानक पास पहुँचि गेलाह। पुनः भगवान् चवनियाँ मुस्कान दय रहल छलखिन्ह। नारदजी कनेक तमसा कय पूछलखिन, “प्रभो! अपने कहलियैक जे सात जन्म धरि नहि हेतन्हि आ हम आइ गेल रही से देखलियैक जे जोड़ा बेटा दरबज्जा पर खेला रहल छलैक?”
भगवान् पुनः विहुँसैत कहलखिन, “नारदजी! हम कोनो गलत नहि कहने रही। हुनका सात जन्म धरि सन्तानक सुख सही मे नहि लिखल छलन्हि। मुदा एकर रहस्य बतबय लेल हमरा अहाँ संग अपने चलय पड़त फेर।” नारदजी कनेक तमसायल रहबे करथि, कहलखिन, “से जे करू प्रभो! लेकिन चलहे टा पड़त, हमरा ई रहस्य बुझाबहे टा पड़त। हमर सिफारिश पर अपने कहब एक बात आ वास्तविकता होयत दोसर बात… ई त ओहने बात भेल जे हमर अपने संग नजदीकीक कोनो अर्थे नहि, हमरो सँ बात अपने छुपेलहुँ।” भगवान् मुस्कुराइते हुनका संग विमान सँ सीधा एला पृथ्वीलोक एक अति भव्य फूलबारी मे।
ओहि फूलबारी मे एक सँ बढिकय एक फलक गाछ रहैक। भगवान् आ नारदजी फूलबारीक दृश्य देखैत रहलाह, जेम्हर सँ जे अबैक, बाहर फूलबारीक मालिकक किछु लोक सब सँ निवेदन करैक जे “हे, दू टा फल एहि फूलबारीक भोग लगाकय अपने सब अपन गन्तव्य दिस जाउ।” नारदजी केँ भगवान् कहलखिन जे “देखियौक! एहि फूलबारी मे कि नहि छैक। सब गाछ फरहि फर सँ लदल छैक। आर फूलबारीक मालिकक इच्छा ई रहैत छैक जे एहि रस्ते एनिहार-गेनिहार सब कियो किछु न किछु भोग लगाकय अपन गन्तव्य दिस प्रस्थान करय।”
भगवान् एतेक कहैत नारद सहित अपना केँ साधारण मुसाफिरक वेश मे परिणति दैत फुलबारीक रस्ते जाय लगलाह। हुनको सब सँ रखबार सभ आग्रह केलकनि। कहलकनि, “हमरा सब केँ स्वामीक आदेश अछि जे अपने लोकनि सेहो किछु भोग लगाकय एतय सँ आगू बढी।”
भगवान् नारदक आंगूर धेने फुलबारीक भीतर प्रवेश कयलनि। हुनका सभक आगाँ मे तरह-तरह केर फल सभ राखि देल गेल। भैर पेट ओहो सब भोग लगौलन्हि। आब भगवान् कहलखिन रखबार सभ सँ, “ऐँ यौ! एहि फूलबारीक स्वामी कतय छथि जिनकर एतेक बड़का हृदय छन्हि जे एहि रस्ते एनिहार-गेनिहार सब सँ फल खेबाक लेल निवेदन करैत छथि? ओ महान व्यक्ति के थिकाह?”
रखबार सब कहलकनि, “सरकार! हमरा सभक स्वामी अपना हाथे ई फुलबारी लगौलनि। हुनकर एक्के टा इच्छा छलन्हि जे अतिथिक सेवा मे अपन जीवन समर्पित कय दी। आर ताहि लेल ओ बाल्यकाल सँ मेहनति कय-कय केँ आइ ई सुन्दर फुलबारी लगाकय हमरा सभ सन दर्जनों रखबारक पालन-पोषण करैत राही-बटोहीक रूप मे हजारों-हजार लोक सब केँ फलक भोग लगबबैत आबि रहला अछि। लेकिन सरकार! स्वयं ओ स्वामी एहि फूलबारीक एकहु टा फल नहि खाएत छथि, ओ सिर्फ एहि गाछ सभक जे सुखल पात गाछ सँ खसैत छैक वैह बिछि-बिछि केँ खाएत छथि, वैह अपन भगवानहु केँ भोग लगबैत छथि।”
भगवान् नारदजी दिस कनखिया कय तकलखिन। नारदजी विस्मय मे बहुत बात गौर सँ नहि बुझि पाबि रहला अछि। तखन भगवान् पुनः हुनकर आंगूर धेने ओहि महान् अतिथि सेवक महात्माक पास लय केँ पहुँचि गेलाह। ओतय संयोग सँ तखनहि महात्मा अपन भोजन करबाक तैयारी मे छलाह। किछु सुखल पात, सुखल-झड़ल फूल आदि अपन भोजनक थारी मे राखि ताहि मे भगवान् केँ भोग लगबैत कहलनि, “त्वदियं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पितम्”। भगवानक आँखि सँ नोर बहय लागल छल। नारदजी केँ ई दृश्य भाव-विह्वल कय देलक। एतेक पैघ फुलबारीक स्वामी, स्वयं फल नहि खाएत छथि, भगवान् केँ पर्यन्त सुखले-झड़ल बड़ा प्रेम भाव सँ भोग लगौलनि।
“लेकिन, प्रभुजी! ई सब दृश्य देखाकय मूल बात सँ कियैक हमर दिमाग भटका रहल छी?” नारद पुनः एक निर्दोष बाल-भक्त जेकाँ पूछलखिन। भगवान् अपन नोर पोछैत कहैत छथिन, “नारद! एहेन निर्विकार आ पूर्ण-त्यागी अतिथि-सत्कारक महान् भक्त सेहो अहीं जेकाँ एक दिन ओहि सज्जन ओ हुनक पत्नीक हाथक पकायल भोजन केलनि। हुनका लोकनिक अतिथि सत्कार सँ एतेक प्रभावित भेलाह जे ओतय सँ निकलैत काल ई ओहि दंपत्ति सँ आशीर्वाद मंगबाक लेल कहिकय सन्तानहीनताक बात सुनिते हुनका लोकनि केँ आशीर्वाद दय देलखिन – कहलखिन, ‘अहाँ सब केँ जोड़ा बेटा होयत!’ आब, कहू! एहेन समर्पित त्यागी भक्त-महात्मा जेकरा आशीर्वाद दय देथिन तखन भगवानक विधान बदलैत कतीकाल समय लागत। अहाँ त हुनकर समाद सुनेने रही। ई त एहेन भक्त छथि जे अपनो सूखल पात-फूल खाएत छथि, हमरो वैह भोग दैत छथि। एहेन निर्विकारी सन्त स्वयं आशीर्वाद दय देलाक बाद भगवानक विधान बदैल गेल। हुनका सालहि भरिक अन्तराल मे १ जोड़ा बेटा भेलन्हि।”
नारदजी केँ आब सब रहस्य पता चलि गेल छलन्हि। हुनकहुँ आँखि रसा गेल छल। भगवत्प्रेम आ अतिथि सत्कारक ई अनुपम महिमा सुनिकय ओ भाव-विह्वल होएत भगवानक चरण धय भोम पाड़िकय कानय लगलाह। भगवान् हुनका उठाकय अपन गला सँ लगौलनि। एहि तरहें आजुक ई कथा एतहि समाप्त भेल। कथाक शैली कनेक परिवर्तित अछि, मूल रूप सँ ई स्कन्दपुराण मे वर्णित अतिथि सत्कारक महिमा-वर्णनक क्रम मे हम पढने रही जे आइ अपन पाठक लेल अति-स्नेहक कारण राखल।
जय मिथिला – जय जानकी!!
हरिः हरः!!