कथा – मनन करबा योग्यः इन्द्रिय संयम
(भारतवर्षक आधुनिक इतिहास केर एक सत्यकथा)

एतेक सुन्दर! एहेन अद्भुत तेज! एतेक सौम्य मुख! – नर्तकी दुइ क्षण लेल मौन स्थिर भऽ देखैते रहि गेलीह आर फेर जतेक शीघ्रता हुनका सँ भऽ सकल ओतेक शीघ्रता सँ दौड़िते सीढी उतैरकय अपन दरबज्जा पर आबि गेलीह।
‘भन्ते!’ नर्तकी भिक्षु केँ आवाज देलीह।
‘भद्रे!’ भिक्षु आबिकय माथ झुकाकय हुनका सम्मुख ठाढ भऽ गेलाह आर ओ अपन भिक्षापात्र आगू बढा देलनि।
‘अहाँ ऊपर आउ!’ नर्तकीक मुंह लाज सँ लाल भऽ गेल छल; लेकिन ओ अपन बात कहि देलीह – ‘ई हमर भवन, हमर सारा सम्पत्ति आर स्वयं हम आब अहाँक छी। अहाँ हमरा स्वीकार करी।’
‘हमरा धर्म भिक्षा चाही। काम-भिक्षाक समय आब नहि रहल। भगवान् तथागत अहाँक कल्याण करथि; हम फेर कहियो अहाँक पास आयब।’ भिक्षु माथ उठाकय बड़ा बेधड़क दृष्टि सँ नर्तकीक दिस देखलाह आर पता नहि कि सोचि लेलनि ओ।
‘कहिया?’ नर्तकी अत्यन्त हर्षोत्फुल्ल भऽ पूछलीह।
‘समय एला पर!’ भिक्षु एतेक कहैत आगू बढि गेल छलाह। ओ जाबत धरि देखाय पड़लाह, नर्तकी ओत्तहि अपन द्वारिपर ठाढ हुनकहि दिस तकैत रहि गेलीह।
किछु वर्षक बाद…..
मथुरा नगरक द्वारा सँ बाहर यमुनाजीक मार्ग मे एकटा स्त्री भूमिपर पड़ल छलीह। हुनकर वस्त्र अत्यन्त मैल-कुचैल आर फाटल छलन्हि। ओहि स्त्रीक समूचा देह मे घाव भऽ गेल छलैक। पीज आ रक्त सँ भरल ओहि घाव सब सँ दुर्गन्ध आबि रहल छलैक। ओम्हर देने एनिहार-गेनिहार लोक अपन मुंह दोसर दिस फेरि लैत छल आर नाक दाबि लैत छल। ई नारी छलीह नर्तकी वासवदत्ता! हुनकर दुराचार हुनका एहि भयंकर रोग सँ ग्रसित कय लेने छलन्हि। सम्पत्ति सबटा नाश भऽ गेल छलन्हि। आब ओ निराश्रित मार्गपर पड़ल छलीह।
एकाएक एकटा भिक्षु ओम्हर सँ निकैल रहल छलाह आर ओ ओहि दुर्दशाग्रस्त नारीक समीप ठाढ भऽ गेलाह। ओ आवाज देलनि – ‘वासवदत्ता! हम आबि गेल छी।’
‘के?’ ओ नारी बड़ा कष्ट सँ भिक्षुक दिस देखबाक प्रयत्न केलीह।
‘भिक्षु उपगुप्त!’ भिक्षु बैसि गेलाह ओहि रस्ता मे आर ओ ओहि नारीक घाव धोयब शुरू कय देलन्हि।
‘अहाँ आब एलहुँ? आब हमरा पास कि बचल अछि। हमर यौवन, सौन्दर्य, धन आदि सब किछु तऽ नष्ट भऽ गेल।’ नर्तकीक नेत्र सँ अश्रुधारा बहय लागल।
‘हमरा एबाक समय त आबे भेल अछि।’ भिक्षु हुनका धर्मक शान्तिदायी उपदेश देनाय शुरू कय देलनि।
यैह भिक्षुश्रेष्ठ देवप्रिय सम्राट् अशोक केर गुरु भेलाह।
(स्रोतः कल्याण, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
हरिः हरः!!