सीताक विरह आ रामक सन्देश
(तुलसीदासकृत् रामचरितमानस पर आधारित)
– भाव अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी
विदिते अछि जे रावण सीताक अपहरण कय हुनका अशोक वाटिका मे राक्षसी सभक कड़ा पहरा मे राखि देने छल। जखन हनुमानजी सीताजीक खोज करैत लंका पहुँचि गेलाह अछि आर विभीषण सँ सब युक्ति जानिकय अशोक वाटिका मे सीताजीक दर्शन लेल पहुँचि गेला, तेकर बाद ओ जे सब देखलनि तेकर वर्णन केहनो कठोर मन केँ द्रवित कय दैत अछि। पुनः हनुमानजी जखन सीताजी केँ रामक सन्देश कहि सुनौलनि अछि त हुनकर हृदय केँ कतेक सन्तोष आ सुख पहुँचैत अछि जे रामायण केर एहि भागक नाम ‘सुन्दर काण्ड’ पड़ि जाइत अछि।
हनुमानजी अशोक वाटिका पहुँचि गेलाह आ सीताजी केँ देखिकय मनहि-मन प्रणाम कयलन्हि। ओ रातिक चारू पहर धरि बैसले-बैसल बिता देली। एकदम दुबर भऽ गेली अछि। माथपर जटाक एक लट छन्हि। हृदय मे श्रीरघुनाथजीक गुण समूह केर स्मृति सँ अपन एकाकीपन केँ दूर कय रहल छथि। जानकीजी अपन नेत्रकेँ अपनहि चरण मे लगेने छथि, लगातार नीचाँ ताकि रहली अछि आर मनहि-मन श्रीरामजीक चरणकमल मे लीन छथि। जानकीजीक एहेन दशा देखि हनुमानजी बहुत दुःखी भेलाह। बानरक रूप मे रहल हनुमानजी गाछक पल्लव सभक ओट मे नुकायल छथि, अपना मन मे विचार कय रहल छथि जे कि उपाय करू जे माता जानकीक दुःख दूर हुअय। ताबत काल ओतय रावण बहुतो रास स्त्रिगण समाजक संग सैज-धैजकय आबि जाइत अछि। ओ बहुतो तरहें सीताजी केँ बुझबैत अछि, साम, दान, भय आ भेद देखबैत अछि। कहैत अछिः
“हे सुमुखि! हे सयानी!! सुनू! मंदोदरी आदि सब रानी केँ अहाँक दासी बना देब, ई हमर प्रण अछि। बस एक बेर हमरा दिस देखू त सही!”
ताहिपर जानकीजी अपन परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजीक स्मरण कय केँ एकटा तिनकाक परदा करैत कहली –
“हे दशमुख! सुने, भगजोगनीक प्रकाश सँ कहियो कमलिनी फूला सकैत अछि? तूँ अपना लेल अहिना बुझ। रे दुष्ट! तोरा श्रीरघुवीर केर बाण केर खबैर नहि छौक। रे पापी! तूँ हमरा सुन्न समय मे हैर अनलें। रे अधम! निर्लज्ज! तोरा लाज नहि लगैत छौक?”
अपना केँ भगजोगनी आ रामचंद्रजी केँ सूर्यक समान सुनिकय आ सीताजीक कठोर वचन सब सुनिकय रावण तलवार निकालिकय एकदम तामश मे बाजल –
“सीता! तूँ हमर अपमान केलें अछि। हम तोहर सिर एहि कठोर कृपाण सँ काटि देबौक। नहि तऽ जल्दी सँ हमर बात मानि लेल। हे सुमुखि! नहि तऽ जीवन सँ हाथ धोअय पड़तौक।
सीताजी फेर कहलखिन, “हे दशग्रीव! प्रभुक भुजा जे श्याम कमल केर मालाक समान सुंदर आर हाथीक सूँड समान (पुष्ट तथा विशाल) अछि, या तऽ ओ भुजा टा हमर कंठ मे पड़त या तोहर भयानक तलवार टा। रे शठ! सुन, यैह हमर सच्चा प्रण थिक। हे चंद्रहास (तलवार)! श्रीरघुनाथजीक विरह केर आगि सँ उत्पन्न हमर भारी जलन केँ तूँ हैर ले, हे तलवार! तूँ शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहबैत छँ, तूँ हमर दुःखक बोझ केँ हैर ले।
सीताजीक ई वचन सुनिते देरी रावण मारय लेल दौड़ल। तखन मय दानवक नीतिज्ञ पुत्री यानि मन्दोदरी ओकरा नीति कहिकय बुझेलीह – तखन रावण रावण सब दासी सब केँ बजाकय कहलक जे जो आ सीता केँ बहुतो प्रकार सँ डरो। यदि महीना भैर मे हमर कहल नहि मानत तऽ यैह तलवार निकालिकय मारि देबैक। एतेक बाजिकय रावण घर दिस चलि गेल। एतय राक्षसी सभक समूह बहुतो तरहक भयावह रूप सब बनाकय सीताजी केँ डर देखाबय लागल।
ओहि सब राक्षसीमे एकटाक नाम त्रिजटा रहैक। ओकरा श्री रामचंद्रजीक चरण मे प्रीति रहैक आर ओ विवेक (ज्ञान) मे निपुण छल। ओ सब राक्षसी केँ बजाकय अपने एकटा सपना देखलक से कहि सुनेलक। पुनः कहलक – सीताजी केर सेवा कयकेँ अपन कल्याण कय लेल जो। सपना मे हम देखलहुँ जे एकटा बंदर लंका जरा देलक। राक्षसक सबटा सेना केँ मारि देलक। रावण नंगटे अछि आर गदहा पर बैसल अछि। ओकर केस मुंडन कयल छैक, बीसो हाथ कटल छैक। एहि तरहें ओ दक्षिण (यमपुरी केर) दिशा केँ जा रहल अछि आर माने जे लंका विभीषण पाबि गेल अछि। नगर मे श्री रामचंद्रजीक दुहाई आबि गेल अछि। तखन प्रभु सीताजी केँ बोलावा पठेलनि। हम जोर-जोर सँ चिकैरकय एकदम निश्चय केर संग ई कहैत छियौक जे ई सपना कनिके दिन मे सच भऽ कय रहतौ।
ओकर एना बजलापर राक्षसी सब डरा गेल आर जानकीजीक चरण मे खैस पड़ल। तेकरा बाद ओ सब जैंह-तैंह चलि जाय गेल। एम्हर सीताजी मनमे विचारय लगलीह जे एक महीना बीत गेलाक बाद नीच राक्षस रावण हमरा मारि देत। सीताजी हाथ जोड़िकय त्रिजटा सँ कहली – हे माता! तूँ हमर विपत्ति केर संगिनी थिकें। जल्दी कुनु एहेन उपाय कर जाहि सँ हम ई शरीर छोड़ि सकी। विरह असह्म भऽ गेल अछि, आब ई सहल नहि जाइत अछि। काठ आने आ अछिया बनाकय सजा दे। हे माता! फेर ओहि मे आगि लगा दे। हे सयानी! तूँ हमर प्रीति केँ सत्य कय दे। रावण केर शूल केर समान दुःख दयवला वाणी कान सँ के सुनय?
सीताजीक वचन सुनिकय त्रिजटा हुनकर चरण पकड़िकय हुनका बुझेलक और प्रभु केर प्रताप, बल और सुयश सुनेलक। ओ कहलकैक, “हे सुकुमारी! सुनू रातिक समय आगि नहि भेटत। एतेक कहिकय ओ अपन घर चलि गेल। ताहिपर सीताजी मनहि-मन बजलीह – कि करू, विधाते विपरीत भऽ गेल छथि। नहि आगि भेटत, न पीड़ा मेटायत। आकाश मे आगि प्रकट देखाय दैछ, मुदा पृथ्वीपर एकहु टा तारा नहि अबैत अछि। चंद्रमा अग्निमय अछि, मुदा ओहो मानू हमरा हतभागिनी बुझैत आगि नहि बरसबैत अछि। हे अशोक वृक्ष! हमर विनती सुने। हमर शोक हैर ले आर अपन ‘अशोक’ नाम केँ सत्य करे। तोहर नव-नव कोमल पत्ता आगिक समान छौक। आगि दे, विरह रोग केँ एना सीमा जुनि नंघाबे।
एहि तरहें सीताजी केँ परम-व्याकुल देखि हनुमानजी केँ कल्प समान बीतब बुझेलनि।
सोरठा :
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥
तखन हनुमानजी हृदय मे विचार कय केँ सीताजीक सोझाँ औँठी (रामजीक देल ओ विशेष सनेश) खसा देलनि, मानू जेना सीताजीक पुकार पर अशोक हुनका आगि दय देलकनि। यैह बुझैत सीताजी एकदम हर्षित होएत उठिकय ओकरा हाथ मे लय लेलीह। तखन ओ राम-नाम सँ अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर औँठी देखली। औँठी चिन्हिकय सीताजी आश्चर्यचकित होएत ओकरा देखय लगलीह आ हर्ष व विषाद सँ हृदय मे अकुला उठली। ओ सोचु लगलीह जे श्री रघुनाथजी तँ सर्वथा अजेय छथि, हुनका के जीत सकैत अछि? आर माया सँ एहेन औँठी कथमपि नहि बनायल जा सकैत अछि। सीताजी मन मे अनेक प्रकार केर विचार कय रहल छलीह। ताहि समय हनुमान्जी मधुर वचन बजलाह –
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥
ओ श्री रामचंद्रजीक गुणक वर्णन करय लगलाह, जे सुनिते सीताजीक दुःख भागि गेलनि। ओ कान आ मन लगाकय ओ सब सुनय लगलीह। हनुमानजी आदि सँ लैत एखन धरिक सबटा कथा कहि सुनेलनि। सीताजी कहलखिन, “जे कान लेल अमृत रूप ई सुंदर कथा कहलक, से हे भाइ! प्रकट कियैक नहि होएत अछि?”
तखन हनुमानजी हुनका समीप चलि एलाह। हुनका देखिकय सीताजी मुंह फेरिकय बैसि गेलीह, हुनका मन मे बड आश्चर्य भेलनि। कतय ओ अनुपम कथा, आ कथाकार के ताहि आह्वान पर हाजिर बस एक बानर। सीताजी एकदम विस्मय मे पड़ि गेलीह।
ताहिपर हनुमानजी हुनका सँ कहलखिन – हे माता जानकी! हम श्री रामजी केर दूत छी। करुणानिधान केर सत्य शपथ संग कहैत छी, हे माता! ई औँठी हमहीं अनलहुँ अछि। श्री रामजी हमरा अहाँक लेल ई निशानी देलनि अछि।
सीताजी पूछलखिन – नर आ बानर केर संग कहू केना भेल? तखन हनुमानजी जेना संग भेल छलन्हि, सेहो सब कथा कहलखिन।
हनुमानजीक प्रेमयुक्त वचन सुनिकय सीताजी केर मन मे विश्वास उत्पन्न भऽ गेलन्हि, ओ बुझि गेलीह जे ई मन, वचन और कर्म सँ कृपासागर श्री रघुनाथजी केर दास अछि। भगवान केर जन (सेवक) जानिकय एकदम गाढ़ प्रीति भऽ गेलन्हि। नेत्र मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि एलनि आर शरीर एकदम पुलकित भऽ गेलनि। सीताजी कहलखिन, “हे तात हनुमान्! विरहसागर मे डूबैत हमरा लेल अहाँ जहाज भेलहुँ। हम बलिहारी जाइत छी, आब छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित खर केर शत्रु सुखधाम प्रभुक कुशल-मंगल कहू। श्री रघुनाथजी तऽ कोमल हृदय और कृपालु छथि। फेर हे हनुमान! ओ एना कोन कारण सँ निष्ठुरता धारण कय लेलनि अछि? सेवक केँ सुख देनाय हुनकर स्वाभाविक बानि छन्हि। ओ श्री रघुनाथजी कि कहियो हमरा यादो करैत छथि? हे तात! कि कखनहुँ हुनकर कोमल साँवला अंग केँ देखिकय हमर नेत्र शीतल होयत?
बजैत-बजैत सीताजीक मुंहसँ वचन नहि निकलैत अछि, आँखिमे विरहक नोर भरि आयल अछि। बड़ा दुःख सँ ओ फेरो अपन विरहक स्वर प्रकट करब शुरू कयलीह – हा नाथ! अहाँ हमरा एकदम्मे बिसैर गेलहुँ!
सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय हनुमानजी कोमल आर विनीत वचन बजलाह –
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥5॥
हे माता! सुंदर कृपा केर धाम प्रभु भाइ लक्ष्मणजीक संग (शरीर सँ) कुशल छथि, मुदा अहाँक दुःख सँ दुःखी छथि। हे माता! मन मे ग्लानि नहि करू। मन छोट कय दुःख नहि करू। श्री रामचंद्रजीक हृदय मे अहाँ दुगूना प्रेम छन्हि। हे माता! आब धीरज धरिकय श्री रघुनाथजीक संदेश सुनू। एना कहिकय हनुमानजी प्रेम सँ गद्गद भऽ गेल। हुनकर आँखि मे प्रेमाश्रु केर जल भरि आयल। हनुमानजी कहलखिन –
श्री रामचंद्रजी कहलनि अछि जे “हे सीते! अहाँक वियोग मे हमरा लेल समस्त पदार्थ प्रतिकूल भऽ गेल अछि। गाछक नव-नव कोमल पत्ता मानू आगिक समान, राति कालरात्रिक समान, चंद्रमा सूर्यक समान और कमल केर वन भाल केर वनक समान भऽ गेल अछि। मेघ मानू खौलैत तेल बरसाबैत अछि। जे हित करयवला छल, ओहो आब पीड़ा देबय लागल अछि। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप केर श्वासक समान (जहरीला और गरम) भऽ गेल अछि। मनक दुःख कहि देला सँ सेहो किछु घैट जाइत अछि। मुदा कही केकरा सँ? ई दुःख कियो नहि जनैत अछि। हे प्रिये! हमर और अहाँक प्रेमक तत्त्व (रहस्य) एक हमरहि मन टा जनैत अछि। और, ओ मन सदिखन अहींक पास रहैत अछि। बस, हमर प्रेम केर सार एतबहि मे बुझि लेब।
प्रभुक संदेश सुनिते जानकीजी प्रेम मे मग्न भऽ गेलीह। हुनका शरीरक सुधि नहि रहि गेलन्हि। हनुमानजी फेर कहलखिन – हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू आर सेवक केँ सुख देनिहार श्री रामजी केँ स्मरण करू। श्री रघुनाथजी केर प्रभुता केँ हृदय मे आनू आर हमर वचन सुनिकय कायरता छोड़ि देल जाउ। राक्षसक समूह पतंगक समान आर श्री रघुनाथजी केर बाण अग्निक समान अछि। हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू आर राक्षस केँ जरले बुझू। श्री रामचंद्रजी जँ ई खबैर पेने रहितथि तऽ ओ विलंब नहि करितथि। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य केर उदय भेलापर राक्षसक सेना रूपी अंधकार कतय रहि सकैत अछि? हे माता! हम अहाँ केँ एखनहि एतय सँ लय चली, मुदा श्री रामचंद्रजीक शपथ अछि, हमरा हुनकर आज्ञा नहि अछि। हे माता! किछु दिन आरो धीरज धरू। श्री रामचंद्रजी वानर सहित एतय औता। आर राक्षस सबकेँ मारिकय अहाँकेँ लय जेता। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनू लोक मे हुनकर यश गेता।
सीताजी कहलखिन, “हे पुत्र! सब वानर अहीं समान (छोट-छोट) हेता, राक्षस तऽ बड़ा बलवान, योद्धा सब अछि? ताहि सँ हमरा हृदय मे बड़ा भारी संदेह होएत अछि जे अहाँ जेहेन बंदर राक्षस केँ कोना जीतत! एतेक सुनिते देरी हनुमानजी अपन शरीर प्रकट कयलन्हि। सोनाक पर्वत (सुमेरु) केर आकार केर (अत्यंत विशाल) शरीर छल, जे युद्ध मे शत्रु केर हृदय मे भय उत्पन्न करयवला, अत्यंत बलवान् और वीर छल। तखन से देखिकय सीताजीक मन मे विश्वास भेलनि। हनुमानजी फेरो छोट रूप धारण कय लेलनि। कहलखिन, “हे माता! सुनू, बानर मे बहुत बल-बुद्धि नहि होएत छैक, मुदा प्रभु केर प्रताप सँ बहुत छोट साँप पर्यन्त गरुड़ केँ खा सकैत अछि।” यानि कि अत्यंत निर्बल सेहो महान् बलवान् केँ मारि सकैत अछि।
भक्ति, प्रताप, तेज और बल सँ सानल हनुमानजीक ओजपूर्ण वाणी सुनिकय सीताजीक मन मे संतोष भेलनि। ओ श्री रामजी केर प्रिय जानिकय हनुमान्जी केँ आशीर्वाद देलखिन –
“हे तात! अहाँ बल और शील केर निधान होउ।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
हे पुत्र! अहाँ अजर (बुढ़ापा सँ रहित), अमर और गुण केर खजाना होउ। श्री रघुनाथजी अहाँ पर खूब कृपा करथि।”
‘प्रभु कृपा करथि’ एतेक कान सँ सुनिते हनुमान्जी पूर्ण प्रेम मे मग्न भऽ गेलाह।
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
हनुमानजी बेर-बेर सीताजी केर चरण मे सिर नबौलनि आर फेर हाथ जोड़िकय कहलखिन – हे माता! आब हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। अहाँक आशीर्वाद अमोघ (अचूक) अछि, ई बात प्रसिद्ध छैक। हे माता! सुनू, सुंदर फल वाला वृक्ष सबकेँ देखिकय हमरा बड़ी जोर भूख लागि गेल अछि।
सीताजी कहलखिन, “हे बेटा! सुनू, बड़ा भारी योद्धा राक्षस एहि वनक रखवाली करैत छैक।”
हनुमानजी कहलखिन, “हे माता! जँ अहाँ मन मे सुख मानी त प्रसन्न भऽ कय आज्ञा दी, फेर हमरा ओकरा सभक डर त एकदम्मे नहि अछि।
हरिः हरः!!