आध्यात्मिक चिन्तन
– प्रवीण नारायण चौधरी
आत्मनिरीक्षण – बाबाधामक पेड़ा (प्रसाद)
कइएक दिवस सँ दिमाग मे एकटा बात अबैत अछि – प्रवीण! तोरा स्वयं मे कतेक अभिमान छौक आ तूँ दोसर अभिमानी केँ देखैत देरी कतेक जल्दी उताहुल भऽ अपन अभिमान केँ उजागर करय लगैत छँ से कहियो आत्मनिरीक्षण कयलें? ई सवाल अपना आप मे बड़ा टेढ अछि, लेकिन आत्माक कहल बात कखनहुँ टेढ, कखनहुँ तीत-अकत्त आ स्वयं केँ स्वयं पर क्रोध, आक्रोश आ असन्तोष प्रदान करयवला सेहो होइत अछि। जल्दिये उपरोक्त प्रश्न पर जिरह शुरू भेल। आर फेर…..
एहि बीच एकटा जनतब देनाय परम जरूरी अछि। आत्मा जखन कोनो सवाल पुछैत छैक त ओकरा जबाब देबाक लेल ‘मन’ आ ‘बुद्धि’ दुनू तत्पर रहैत अछि। गुरुदेव कहैत रहैत छथि जे आत्मा अक्षय रहबाक कारण ओकरा संग १७ टा मित्र यानि, ‘मन, बुद्धि, ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय आ ५ प्राणेन्द्रिय’ सदिखन संगे-संग चलैत छैक। जा धरि अपन कर्मक बन्धन केँ जीव पूर्ण नहि कय लैत अछि, ता धरि ओ विभिन्न योनि मे जन्म लैत रहैत अछि। आत्मा केर ई यात्रा विभिन्न शरीर मे कर्मगति अनुसार होइत रहैत अछि। मनुष्यक शरीर अन्तिम पौदान पर अबैत अछि, कारण ‘विवेक’ (परिणाम देखबाक-सोचबाक सामर्थ्य) केवल एहि योनि मे भेटैछ, अन्य मे विवेकक कमी छैक।
जिरह मे पता लागल जे ‘अहंकार’ यानि बौद्धिक सामर्थ्यक एकटा विशिष्ट रूप हरेक मनुष्य केँ भ्रमित कय दैत छैक। ओकर सहजता कोनो न कोनो कारण सँ कठोरता मे परिणति पाबि जाइत छैक। एकर मूल कारण होइत छैक सात्विकताक कमी, राजसिकता ओ तामसिकताक मात्राक आधिक्य। ई केकरो नहि छोड़ैत छैक। “प्रवीण! तोरा सेहो ई धेने छौक। जँ पूछैत छेँ त आरो स्पष्ट कय दियौक – जन्म-जन्मान्तर सँ भोग भोगितो तोहर भोगक इच्छा एखन धरि तोरा मे छहुए। कइएक तरहक इच्छा राखिकय तूँ मुक्तजीव नहि बनि पेलें। आर, यैह कारण छौक जे दोसराक बात-विचार आ व्यवहार आदि केँ देखैत देरी तोहर अहं जागि जाइत छौक। तूँ विवेकशून्यता दिश अग्रसर भऽ जाइत छँ आर एहि तरहें अहंकार-अभिमान मे चूर होइत स्वयं केँ अधोगतिक दिशा मे लय जाइत छँ। गुरुजी लाखों बेर बतेलखुन जे ऊर्ध्वगति लेल सदिखन उच्च मूल्यक कर्म जाहि मे निरपेक्षताक भाव हो ताहि दिश बढबाक चेष्टा करे। कि जरूरी छौक जे तूँ स्वयं केँ दोसर सँ तुलना करैत स्वयं सेहो वैह गलत काज करब शुरू कय दैत छँ?”
मोन आ बुद्धि मे एहि सब जिरहकाल किछु बेसिये मित्रता भऽ जाइत छैक। आत्माक निरपेक्ष बात सँ ऊपर अपन होशियारी देखेनाय चालू कय दैत अछि। बदमाश जेकाँ ईहो कहि दैत छैक जे ‘हौ! तोरा संगे रहैत छी, हमहूँ सब कम नहि बुझैत छी…! बेसी पढाबह नहि। फल्लाँ हमरा देखायत से हम कि कमजोर छी हौ?”
जिरह केर अन्त निष्कर्ष सँ हेबाक चाही। एकटा नीक निर्णय आ तदनुसार ‘मुक्तजीव’ बनबाक दिशा मे आगू कोना बढब ताहि दिशा मे निष्कर्ष जरूरी छैक। खैर! आत्मनिरीक्षण मे आत्माक बात सदिखन जीत हासिल करैत अछि। मुदा मोन, बुद्धि, कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय – ई सब सदिखन अपनहि हिसाबे बढैत अछि। अस्तु! अभिमानी के छैक से बिसैर जाउ, स्वयं अभिमान सँ दूर रहबाक भरपूर चेष्टा करू। यैह अन्तिम आदेश परमात्माक अंश आत्मा सँ भेटैछ। बाबाधामक प्रसाद रूप मे ई सब कियो ग्रहण करब।
हरिः हरः!!