लेख
– प्रवीण नारायण चौधरी
जनक समाजवाद (Janaka’s Socialism)
मिथिलाक इतिहास आ परम्परा मे सर्वसमावेशिकताक सिद्धान्त तथा जनक समाजवादक विलक्षण जीवनशैली देखाइत अछि। राजनीतिक स्थिति व परिस्थितिक कारण सब जगह जातिक बात उठब स्वभाविके छैक, लेकिन यथार्थता ईहो अछि जे हर मानव मे जा धरि गुण आ धर्म केर परिमाण नहि बढत ता धरि समान जीवनशैली – समान प्रतिष्ठा – समान सहभागिता – समान समर्पण – समान आयार्जन – समान वितरण किन्नहु नहि देखायत। प्रकृतिक विविधता स्वयं मानव मे सेहो छैक, कियो फर्स्ट डिवीजन, कियो सेकन्ड डिविजन, कियो थर्ड आ कियो फेल… ई वर्गीकरण प्राकृतिक छैक। अवसर सेहो ताहि कारण सभक सामने अलग-अलग अबैत छैक। मुदा मिथिलाक परम्परा आ इतिहास एहि बातक बड पैघ प्रमाण दैत अछि जे एक-दोसर केँ डेन पकड़ि सब मानव सफल गृहस्थी चला सकैत अछि। एकरे हम मिथिलाक समाजवाद (Mithila’s Socialism) आर कृष्ण केर कहल गेल गीतावचन मे जनकादिक जीवन मे रहितो मुक्त होयबाक तत्त्व केँ आत्मसात करैत मिथिलाक निर्माणकर्त्ता जनक केँ एहि समाजवादक संस्थापक मानि एकरा ‘जनक समाजवाद’ कहैत छी।
मिथिलाक एकटा बड पैघ समाजवाद जेकरा हम ‘जनक समाजवाद’ शीर्षक दैत समाज सँ चर्चा करैत छी ताहि सँ अनुपम सीख हम समस्त अभियानी जरूर ग्रहण करी।
अपना सभक समाजक इतिहास आ परम्पराक अध्ययन सँ ज्ञात होइत अछि जे एतय पूर्ण समावेशिकताक सिद्धान्त पर अदौकाल सँ मानव जीवन विकसित भेल। अपना ओतुका कोनो कारोबारक प्रकृति देखू, कर्मकांडहि केर स्वरूप देखू, वैदिक विधानहि अनुसार जे सब विध-व्यवहार आदि करबाक रहैत अछि तेकरहि विवरणात्मक हरेक पहलू देखू – सब पटल पर यैह नजरि पड़ैत अछि जे पारस्परिक सहयोग बिना कोनो काज नहि चलैत अछि।
एकटा फकरा मोन पड़ैत अछि, माय-दादी लोकनिक मुंहे सुनल करी ‘बारहोवर्ण-छत्तीसोजाति’ – सभक योगदान प्रत्येक कर्म निष्पादन मे आवश्यक अछि। वगैर समावेशिकता मिथिलाक जनजीवन कदापि कतहु नजरि नहि पड़ैत अछि। एकर एकटा छोट उदाहरण मे बुढ-पुरान लोकनिक एकटा विशेष आदति केँ मोन पाड़ैत राखब – हुनका सभ मे एक न एक श्रेष्ठ बाबा वा बाबी तुरियाक मुखिया भेल करथि जे सौंसे गाम कोनो न कोनो तरहें घुमिकय सभक घरक चार पर कनखियायल दृष्टि देथि कि केकर घर सँ धुआँ निकैल रहलय य यानि चुल्हा जराओल गेल वा नहि, से देखथि।
अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त अनुसार जखन एकर व्याख्या करैत छी त मिथिला समाज सहित आरो विभिन्न भारतवर्षीय हिन्दू समाज आर आब मुसलमानो सहित जे समग्र समाज अछि ताहि मे जातीय विभाजनक आधार अछि श्रम पर आधारित योगदान अनुसार जातीय वर्गीकरण।
मानव जीवन लेल निहित कार्य सब पूरा करबाक लेल सब केँ योगदान देनाय अनिवार्य छैक। प्रत्येक मानव केँ अपन-अपन क्षमता, बौद्धिकता, कला, विद्या, पौरूष, बल आदिक सहारे कयल जायवला कर्म यानि श्रमदान पर मानव जीवन आधारित अछि। यैह श्रमदान अनुसार एकटा जातीय व्यवस्था अदौकाल सँ चलैत आबि रहल अछि।
कृषिकर्म अथवा रोजी-रोजगार अन्य-अन्य स्रोत सँ प्राप्त उपजा-उपार्जन चाहे अन्न हो वा कैंञ्चा-टका हो ताहि सँ हम मानव समुदाय आपस मे एक निश्चित सिद्धान्त पर आधारित आयार्जन प्राप्त करैत छी। एहि प्राप्तिक एकटा विलक्षण रूप मिथिला मे चलैत छल – नौआक काज साल मे अहाँ-हम कतेक दिन लेलहुँ ताहि सँ मतलब नहि छैक, लेकिन नौआ जेकर अहाँ-हम यजमान रहलहुँ यानि जे अहाँ-हमर परिवारक नौह-केस काटत वा पूजा-पाठ आदि मे आवश्यक यज्ञ-समाग्री जुटाओत, तेकरा वास्ते साल मे बान्हल बोइन जेकरा ‘साली’ कहल जाइत छैक से देबहे टा पड़त।
आर, ई बात सिर्फ नौआ टा संग नहि, बल्कि हरेक श्रमजीवी समुदाय जेकर श्रम अपन मिथिला समाज केँ जनजीवन संचालन मे सहायक अछि, ताहि सब लेल ई नियम अनिवार्य रहल अछि। पान कृषक बरइ सँ लैत मल्लाह-केवट, चमार, धोबी, कुम्हार, सोनार, कमार, धुनिया, कुजरा, गोपाला, पुरहित, महापात्र, पंडा, पंडित, गुरुजन, वैद्य, आदि प्रत्येक श्रमदान कयनिहार विशिष्ट व्यक्ति व समुदाय लेल यैह जीविकोपार्जनक सिद्धान्त जियल जाइत अछि। एकरा ‘जनक समाजवाद’ कहैत छी।
आजुक समय ‘ग्लोबल विलेज’ केर निवासी, ‘ग्लोबल सिस्टम’ मे जीबि रहल मिथिला समाज वा कोनो आन समाज लेल ई ‘जनक समाजवाद’ भले पुरान भऽ गेल हो, लेकिन जाति-पाँति एखनहुँ ओतबे या एना कहू जे पहिनहुँ सँ बेस वीभत्स रूप मे मानवीय अहंता सँ स्थापित अछि। से कियैक अछि? सब कियो अपना सँ सवाल पुछू।
आइ ई जातीय-व्यवस्थाक औचित्य की? जखन गोपालन, कृषिकर्म, चर्मकर्म, काष्ठकर्म, क्षौरकर्म, माटिकर्म, स्वर्णकर्म, आदि समस्त कर्म पर सभ कियो अपना-अपना सुविधा अनुसार काज कय रहल अछि तखन के बाभन, के गुआर, के चमार, के कुम्हार, के कमार आ के नौआ आ के की तेकरा वर्गीकरणक निर्णय केना कयल जाय, ताहि पर मनन करू।
लेकिन, हम सब लोकतंत्र मे छी। लोकक मत सँ शासन पद्धति निर्धारित होइत अछि। लोकक मत केँ प्रभावित करय मे ई जन्म-आधारित जाति केर नाम पर राजनीति कयल जाइत अछि। ई अफीम जेकाँ नशालू (भावनात्मक) पदार्थ बनि गेल अछि। भाषा, साहित्य, संस्कृति, मूल्य, परम्परा, आदि अनेकों उच्च महत्वक विधा मे सेहो जातीय रंग चढि जायब राजनीतिक परिस्थितिक कारण स्वाभाविक भऽ गेल अछि।
हालांकि ईहो तय छैक जे मानवीय क्षमता मे ई सब विधा ता धरि नहि आबि सकत जा धरि गहींर अध्ययन, चिन्तन, मनन आ समर्पण नहि आओत। यैह कारण छैक जे ब्राह्मणहु मे सब अध्ययनशील नहि भऽ सकैत अछि, आर डोमहु मे कोनो डोम परमब्रह्म तक बनि सकैत अछि। ई सब तपस्या आ साधना पर आधारित बात थिक। एकरा अहु तरहें जरूर मनन करी हम सब।
हरिः हरः!!