शरणागतवत्सल केर शरण मे अर्पित भक्ति-पुष्प

प्रात:स्मरणीय भगवान् विष्णुकेँ सुमिरन करी पहिले:
vishnu bhagavan
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

जिनक आकृति अतिशय शांत अछि, जे शेषनागक शैयापर शयन कय रहल छथि, जिनक नाभिमें कमल अछि, जे देवता सभकेँ सेहो ईश्वर आ समस्त जगत केर आधार छथि, जे आकाश जेकाँ सर्वत्र व्याप्त छथि, नीलमेघ केर समान जिनक वर्ण अछि, अतिशय सुंदर जिनक संपूर्ण अंग अछि, जे योगि सभ द्वारा ध्यान कयलापर प्राप्त होइत छथि, जे संपूर्ण लोक केर स्वामी छथि, जे जन्म-मरण रूप भय केर नाश करयवाला छथि, एहेन लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु केँ हम प्रणाम करैत छी।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।

ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्र सभक द्वारा जिनक स्तुति कैल जाइत अछि, सामवेद केर गान करयवाला अंग, पद, क्रम आर उपनिषद सहित वेद द्वारा जिनक गान कैल जाइत अछि, योगीजन ध्यानमें स्थित तद्‍गत भेल मनसँ जिनक दर्शन करैत छथि, देवता आ असुरगण (कियो भी) जिनकर अन्तकेँ नहि जनैत छथि, ओहि (परमपुरुष नारायण) देवक लेल हमर नमस्कार अछि।

आब ईश्वर शरणमें समर्पित हम तुच्छ मानव अपन बल लगा कोनो कार्य करैत देखी तऽ धृष्टता होयत, करनिहार तऽ वैह एकमात्र परमपिता परमेश्वर छथि। तदापि मानुषिक शरीर आ शरीरीक द्वंद्वमें हम फँसल मायाजालमें घेरायल ताबत कोनो बात के मर्म नहि पकडि पाबैत छी जाबत हुनक कृपा नहि हो! केवल कृपा लेल सदैव विनती करयके क्रम निरंतर बनल रहय, यदि होश तक नहि रहय तदापि अन्तर्मन सदैव वैह ‘सीताराम’में डूबल रहय, बाकी कोनो ज्ञानमें हम नहि फँसी!

नम: पार्वती पतये हर हर महादेव!!

एकमात्र शरण प्रभुक लक्ष्य हो!