कविता
– ललित कुमार झा, गुआहाटी
मिथिला मे सब मैथिल नेता।
ककरो क्यो नहि मोजर देता।
परंपरा के ढ़ोल बजेता।
संस्कार के पाठ पढ़ेता।
संस्कृति पर नोर बहेता।
छिट्टा भरि भरि बात बनेता।
ग्यानी ध्यानी विश्व बिजेता।
सीता जी के महिमा गेता।
विद्यापति के मंच सजेता।
भांग पीबि रसगुल्ले खेता।
खेत बेच कय श्राद्ध करेता।
निर्धन भाई सँ खेत लिखेता।
लाखक लाख दहेज गिनेता।
दिल्ली कलकत्ता बसि जेता।
घुरि जँ मिथिला कहिओ एता।
गरीव भाई सँ खेत बटेता।
अपन बड़प्पन स्वयं सुनेता।
पाग डोपटा पहिने लेता।
मैथिली मे फेर प्रवचन देता
मिथिला मैथिली बेचिक खेता।
आर की मातृभूमि के देता।
मिथिला के नहि मैथिल नेता।
पिछलग्गू बनि नाम घिनेता।