स्वाध्याय
संकलनः कल्याण वर्ष ९१ संख्या ४ सँ, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी
मननीय बातः आत्महत्या केहेन मूर्खता

हुनका एहि तरहें क्षुब्ध देखिकय इन्द्र हुनका पास गीदड़क रूप धारण कय केँ एलाह आर कहलखिन, “मुनिवर! मनुष्य शरीर पेबाक लेल त सब जीव उत्सुक रहैत अछि। ओहो मे ब्राह्मणत्वक त किछु कहले नहि जा सकैछ। अहाँ मनुष्य छी, ब्राह्मण छी आर शास्त्रज्ञ सेहो छी। एहेन दुर्लभ शरीर पाबिकय ओकर एना नष्ट कय देनाय, आत्मघात कय लेनाय भले कतुका आ केहेन बुद्धिमानी भेल? यौ! जेकरा भगवान् द्वारा हाथ देल गेल छैक, ओकरा त मानू सब मनोरथ सिद्ध भऽ गेल। एहि समय अहाँ केँ जेहेन धनक लिलसा अछि, ओहि प्रकारें हम त मात्र हाथ पेबाक लेल उत्सुक छी। हमरा दृष्टि मे हाथ पेबा सँ बढिकय संसार मे कोनो लाभ नहि छैक। देखू, हमर देह मे काँट गरैत अछि; मुदा हाथ नहि भेला सँ हम ओकरा निकालियो नहि सकैत छी। मुदा जिनका भगवान् सँ हाथ भेटल छन्हि, हुनकर कहबे कि! ओ वर्षा, शीत, धूपसँ अपन कष्ट निवारण कय सकैत छथि। जे दुःख बिना हाथक दीन, दुर्बल आर मूक प्राणी सहैत अछि, सौभाग्यवश ओ सब त अहाँ केँ नहि सहय पड़ैत अछि। भगवान् केर बड़ पैघ दया बुझू जे अहाँ गीदड़, कीड़ा, मूस, साँप या बेंग आदि कोनो दोसर योनि मे नहि जन्म लेलहुँ।’
‘काश्यप! आत्महत्या करब बड़ पैघ पाप थिक। यैह सोचिकय हम एना नहि कय रहल छी; अन्यथा देखू, हमरा ई कीड़ा काटि रहल अछि, मुदा हाथ नहि होयबाक कारण हम अपन रक्षा नहि कय सकैत छी, तथापि हम अपन एहि शरीरक परित्याग नहि करैथ छी; कियैक त हमरा भय ई होएत अछि जे अहू सँ बढिकय कोनो दोसर पापयोनि मे नहि खैस पड़ी।
अकार्यमिति चैवेमं नात्मानं संत्यजाम्यहम्॥
नातः पापीयसीं योनिं पतेयमपरामिति॥महाभारत, शान्तिपर्व १८०/२१॥
अहाँ हमर बात मानू, अहाँ केँ वेदोक्त कर्मक वास्तविक फल भेटत। अहाँ सावधानी सँ स्वाध्याय और अग्निहोत्र करू। सत्य बाजू, इन्द्रिय सब केँ काबू (नियंत्रण) मे राखू, दान दियौक, केकरो सँ स्पर्धा नहि करू। विप्रवर! ई शृगाल योनि हमर कुकर्मक परिणाम थिक; कियैक त हम नास्तिक, सब पर सन्देह करनिहार तथा मूर्ख रहितो अपना केँ पण्डित मानयवला रही। आब त राति-दिन हम कोनो एहेन साधना करय चाहैत छी जाहि सँ कोनो प्रकारें अपने-जेहेन मनुष्ययोनि प्राप्त भऽ सकय।’
काश्यप केँ मानवदेहक महत्ताक ज्ञान भऽ गेलनि। हुनका ईहो भान भेलनि जे ई कोनो प्राकृत शृगाल नहि, अपितु शृगाल-वेश मे शचीपति इन्द्र स्वयं थिकाह। ओ हुनकर पूजा कएलनि आर फेर हुनकहि आज्ञा पाबिकय घर वापस आबि गेलाह।
(स्रोतः महाभारत)
हरिः हरः!!