मैथिली कथाः बाबूजी
– सुजीत कुमार झा, जनकपुरधाम
जखन रिक्सा बाहर आबि कऽ रुकल तऽ भोर भेलाक बादो एखनो दूरसँ अन्हारे लगैत छल । ओ अपन घरक गेटक आगाँ रिक्सा रुकबौलन्हि आ सामान उतारि कऽ ओकरा पैसा दऽ बिदा कएलन्हि ।
रिक्सा गेलाक किछुदेर बादधरि ओ अपन सामान लऽ ओतहि ठाढ़ रहलाह । हुनकर घरबला पंक्तिमे चारिटा नवका घर बनि गेल छल । दूटा घर बनएकेँ खबरि तऽ ओ सुनने रहथि मुदा ई तेसर चारिम प्लट कहिआ बिका गेल आ घरो बनि गेल ? सोचैत ओ घर दिस निहारए लगलथि ।
फेर ओ काँलबेल बजौलन्हि । माँ गेट खोललाक बाद आश्चर्यसँ हुनका दिस ताकए लगलीह । माँ हुनका चिन्हएकेँ कोशिस कऽ रहल रहथि ? पहिचानक एहन संकट ? ओ डेरा गेलथि । कि डेढ़ सालमे एतेक बदलि गेलथि अछि ? केश किछु बेसी उज्जर भऽ गेल अछि मुदा ओ तऽ असमय अछि …..। शायद मोटा बेसी गेल छथि ।
‘आ ….भीतर आ ।’
‘गोर लगैत छिऔक,’ ओ पयर छुलन्हि ।
घुसिते पहिल नजरि ओछाएन पर पड़लन्हि । बाबूजी ओतए नहि रहथि ।
‘बाबूजी कि एतेक ठण्ढमे सेहो …..?’
‘आओर की, नियम धर्मकेँ पक्का छथि……,’ माँ बिहुँसैत बजली ।
माँ सिरकमे पयर राखि कऽ बैसि रहलीह । ओहो कुर्सी खिच कऽ ओतहि बैसि रहलाह । माँ हुनका दिस देखि कऽ बिहुँसि रहल छलीह । ओ माँकेँ ध्यानसँ देखए लगलाह । एहिसँ पहिले एक्कहुँ बेर माँँ लग नहि बैसि पाएल छलाह । माँ कतेक बदलैत जा रहल छथि हरेक बेर ओ दोसर माँ पबैत छथि । चेहरा घोकचि रहल छल ।
‘माँ, तो तऽ बुढ़ भऽ रहल छेँ,’ ओ बिहुँसि कऽ बजलाह ।
‘जखन हमर सन्तान बुढ़ होबए लागल तऽ हम तऽ बुढ़ होबे करब,’ माँ हुनका निकलैत जा रहल पेट दिस देखि कऽ बिहुँसिलीह ।
ओ लजा गेलथि आ नजरि हटा कऽ रुमकेँ चारु दिस देखए लगलाह । अलमारीमे नव सीसा लागल छल । उपरबला खन्नासँ रेडिमेड फुलसभ हटा देल गेल छल आ ओतए भगवानक किछु फोटो आ मूर्ति राखल छल ।
नीचाबला खन्ना पर किछु किताब आ बीचबला खन्ना पर दूटा फोटो राखल छल । एकटा फोटो माँ आ बाबूजीक छल । युवावस्थामे जखन बाबूजी मोछ रखैत छलथि से ई फोटो प्रमाण अछि । दोसर फोटो पूरे परिवारकेँ छल जाहिमे माँ बाबूजी आगा कुर्सी पर बैसल छलथि आ ओ तथा छोटू कूर्सीक पीठ पर हाथ राखि ठाढ़ छलथि ।
‘ई भगवानक फोटो आ मूर्ती ड्राइङ्ग रुममे किए राखल छैक ?’ ओ अलमारी दिस देखैत पुछलन्हि ।
‘तोहर बाबूजी प्रत्येक दिन पूजा करैत छथुन,’ माँ बतबैत हँसए लगलीह ।
‘की …..? बाबूजी आ पूजा ?’ ई सुनि हुनका बहुत आश्चर्य भेल । जाहिमे ओ बहुत देरधरि डूबल रहलथि । बाबूजी तऽ शुरुएसँ महानास्तिक लोक छलथि जे माँकेँ पूजा पाठ आ उपवासक विरोधमे नम्हर—नम्हर लेक्चर पियबैैत छलथि । आ आब स्वयं पूजा …..?
‘… आ सुन, माछ माउस सेहो खाएब छोडि़ देलखुन अछि । कहैत छथि, अहाँ नहि खाति छी तऽ हमरो नहि खएबाक चाही । माछ माउसबला सभबर्तनकेँ स्टोरमे राखि देने छी,’ माँ ओहि गतीमे बता रहल छलीह ।
हुनका बुझएमे बाबूजीक ई क्रियाकलाप नहि आबि रहल छलन्हि ।
हुनका भऽ की गेल छन्हि ? हुनका आगा बाबूजीक कड़ा चेहरा घूमि आएल । हुनका अपन बाल्यपनक, पूरान दिन स्मरण आबए लागल, जखन बाबूजी घरमे तानाशाहक हैसियत रखैत छलथि । एतेक कड़क जे हुनका आगा जाएमे डर लागए आ एतेक अनुशासनवला की घरक गाछवृक्ष सेहो हिलएसँ पहिने हुनकर आदेश लए । पुरुष होबएकेँ अभिमान हुनका पूर्खेसँ भेटल छल । बाबा गामक जमिन्दार रहथि आ ओ पूरे जीवनमे दाईसँ एक्कोबेर प्रेमसँ बात नहि कएलन्हि । बाबूजी हुनकोसँ दू कदम आगा छलथि । ओ माँकेँ हरेक बात, चाहे ओ सही हुए वा गलत एतेक डपटि कऽ कहैत छलथि माँ डेरा जाइत छलीह ।
कारण शायद रहल हेतन्हि अवचेतनमे बैसल किछु बात आ किछु संस्कार । बाबा आ हुनकर मण्डली आपसमे बैसि कऽ बात करैत छलथि तऽ तेज आवाजमे किछु शिक्षा निकलैत छल जे अप्रत्यक्ष रुपसँ होइत छलन्हि ।
महिला पयरक खराम होइत अछि, ओकरा बेसी माथ पर नहि चढ़ाओल जाए, पुरुषकेँ महिलाकेँ कोनो बात नहि मानबाक चाही, महिलाकेँ भोजन बनाबएसँ बच्चा पालब बाहेक किछु नहि सोचबाक चाही आदी—आदी ।
माँ पूरे बात दाईसँ सुनि कऽ फेर अपन अनुभवसँ शिक्षा प्राप्त कऽ अपना लेल एकटा सीमा खिचने छलीह । माँ कहैत छलीह जे बाबूजी विवाहक बाद कए—कए दिनधरि माँसँ बजबे नहि करैत छलाह । माँ शाकाहारी छलीह आ ओ ओहि वर्तनमे माछ, माउस खाएत छलीह । कहिओ बजारसँ किनकऽ अनैत छलथि आ कहिओ लाबि कऽ माँकेँ बनाबएकेँ आदेश दैत छलथि । माँ नाक बन्द कऽ कनैत बनबैत रहैत छलीह । ओहि समय माछ माउस बनाबए सेहो नहि अबैत रहन्हि मुदा बादमे ओ बहुत नीक बनाबए लागल छलीह । एकर किछु दिनक बाद तऽ ओ स्वयं कहिओ—कहिओ बजारसँ माछ माउस आनि हमरा आ बाबूजीकेँ प्रेमपूर्वक खुअबैत छलीह ।
बाबूजी पढ़ल लिखल रहैथि आ विवाहक डेढ़ दू बर्षक बाद शहरमे नोकरीक लेल आबि गेलाह, एहिद्वारे ककरो शिक्षाकेँ बहुत दिन धरि आवश्यकता नहि पड़लन्हि । किछु दिनक बाद ओ माँसँ बढि़या जकाँ व्यवहार करए लगलाह ।
बढि़या जकाँ व्यवहार करएकेँ अर्थ ई नहि छल जे माँकेँ काजमे हाथ बटाएब वा माँकेँ कहला पर कोनो निर्णय लेब । हँ, माँकेँ बातक बात पर डाँटब छोडि़ देलन्हि आ हुनकर बातकेँ एकबेर सुनि अवश्य लैत छलथि, भलेही अन्तिम निर्णय स्वयं लैत छलथि माँ बतौने छलीह जे सुनएमे भलेही ई परिवर्तन छोट लागए मुदा हुनका जेहन मनुष्यक लेल ई बहुत क्रान्तिकारी छल ।
‘चाह पिबएँ ?’ माँ ओछाएन परसँ उतरैत पुछलीह ।
‘हँ…हँ….बनोने,’ हुनकर तन्द्रा टुटल । माँ किचेनमे चलि गेलीह आ ओ टहलए लगलथि ।
‘परसू राति टिभी पर तोहर कार्यक्रम देखलिऔ, बहुत बढि़या छल,’ माँ किचेनसँ बजलीह ।
‘हँ …बाबूजी सेहो देखलखुन ?’ ओ आवाज कनि जोड़ कऽ कऽ पुछलन्हि ।
‘हँ…हँ..ओहो देखलखुन ।’
हुनकर मोन भेलन्हि ओ पुछैथि जे बाबूजीकेँ कार्यक्रम केहन लगलन्हि मुदा चुप्प रहलथि । माँकेँ स्वयं बतेबाक चाही । ओ बुझैत तऽ छथि एहि सम्बन्धमे बाबूजी कहिओ हुनकर प्रशंसा नहि करता आ ओ कहिओ ई देखाबएकेँ प्रयास नहि करताह जे बाबूजी हुनका विषयमे जे सोचैति छथि, ओकरा बुझबाक हुनका भीतर कोनो इच्छा वा उत्कण्ठा अछि ।
माँ चाह लऽ कऽ ओछाएन पर चलि अएलीह । ओ बहुत प्रशन्न देखाई दऽ रहल छलीह । वर्तमान घटनाक्रमकेँ जेना हुनका पर कोनो असरे नहि पड़ल छल । की माँ छोटुक कारण कनिको दुःखित नहि अछि ? जखन ओ अपने मोनसँ स्वजातीयमे विवाह कएने रहथि तऽ सुनने रहथि जे माँ हप्तो अन्न-जल त्याग कएने छलीह । छोटू तऽ दोसर धर्मबलासँ विवाह कएलन्हि अछि । फेर माँ एतेक प्रसन्न कोना देखा रहल छथि, ओहो मात्र ५-६ महीनामे…..?
‘कनियाँ केहन….. ? आ साक्षी….?’ माँ चाह पिबैत पुछलीह ।
इहे विषय अछि जाहि पर माँ आ बाबूजीसँ बात करैत ओ स्वयंकेँ अपराधी बुझए लगैत छथि ।
बाबूजी तऽ एहि मुद्दा पर एक दू बेरक बाद तऽ बाते नहि कएलन्हि मुदा माँ …..? ओ तऽ जेना अपना आपकेँ सम्हारि लेने छथि ।
‘ठीक अछि दुनू,’ ओ खिड़की दिस तकैत जबाब देलन्हि ।
‘साक्षी तऽ आब बड़का भऽ गेल हएत ?’ माँ वात्सल्यसँ बिहुँसैत पुछलीह ।
‘हँ, आब स्कूल सेहो जाए लागल छैक ।’
‘अच्छा….हमरा ओकरा देखबाक मोन करैत अछि मुदा …..,’ माँ किछु कहैत–कहैत रुकि गेलीह ।
‘सत्ते…? तऽ चल ने हमरासँग । जखन मोन करौ एतए छोडि़ देबौक,’ ओ चहैक उठला ।
‘तोरा बुझल नहि छौ बाबूजी असगरे भऽ जेताह,’ माँ ठण्ढा श्वास लेलीह ।
‘माँ किछुए दिनक लेल चल ने …। बाबूजीसँ सेहो कही ने चलए लेल,’ ओ माँकेँ ठेहुन पर हाथ राखि प्रसंगकेँ भावनात्मक बनबैत कहलन्हि मुदा तुरन्ते अनुभव भेलन्हि ओ एकटा असम्भव बात कहि देलन्हि अछि । ओ एकटा सम्भव विकल्प रखलन्हि, ‘तो चल ने माँ । बाबूजी असगरो रहि सकैत छथि किछु दिन । हम हुनकासँ बात करब ।’
‘नहि–नहि ओ हमरो नहि ….।’
‘किए, तोरा किए नहि जाए देथुन ? की हमरा एतबो अधिकार नहि अछि…?’
माँ किछु परेशान भऽ सोचए लगलीह । फेर अचानक बिहुँसैत बजलीह, ‘हुनकर किछु पता नहि, हमरा जाए नहि देताह । बुझल छौक की कहैत छथि ? पहिने कहैत छलथि जखन हमर बच्चेकेँ हमर चिन्ता नहि अछि तऽ हम ओकरासभकेँ किए करु आ आब …..।’
‘आब की कहैत छथि ?’ ओ बुझएकेँ लेल उत्सुक भऽ उठलथि । किए की पहिनेबला बात ओ बुझैत छलाह मुदा आब बाबूजी की सोचए लागल छलथि ?
‘आब …? आब बच्चा सभ पर कोनो तामस नहि करैत छथि बच्चाकेँ अपन जीवन जिबए दिअ सुनिता हम अपन फर्ज पूरा कऽ देलहुँ । हमरा आब ओकरासभसँ कोनो अभिलाषा नहि रखबाक चाही । हम कोनो व्यापारी छी जे हरेक बातकेँ बदला खोजब ? ओ किछु करैत अछि हमरा लेल तऽ ठीके, हम स्मरण करैत छी, हमरा लग अबैत अछि, तैयो ठीक नहि तऽ हम एक दोसरकेँ अकेलापन बाँटि सकैत छी । हमरा बेसी मोह माया नहि बढेबाक चाही आ आओर तऽ हमरा गीताकेँ पता नहि की–की श्लोक सूना कऽ ओकर अर्थ कहए लगैत छथि,’ माँ बिहुँसैत बतबैत जा रहल छलीह । ओ माँकेँ प्रशन्न देखि खुश रहथि ।
‘हँ एहन बात करए लागल छथि ओ ….?’ हुनका विश्वासे नहि भऽ रहल छन्हि, अपन जीद्दकेँ हरेक समय सही बुझएबला आ जीवनमे कहिओ हार नहि मानएबला मनुष्यक विषयमे सुनि कऽ हुनक हृदय एहि बातकेँ सत्य होबए पर विश्वास नहि कऽ पावि रहल छल ।
‘ओ तऽ बहुत बदलि गेल छथिन…,’ माँकेँ ई बात सुनि कऽ बहुत प्रसन्नता भेल । प्रसन्न तऽ ओहो छलथि मुदा एकर पाछु तऽ कोनो ठोस आधार नहि बुझि पाबि रहल छलथि ।
‘एहन परिवर्तन कहिआसँ आएल अछि हुनका भीतर….? की छोटूक विवाह कएलाक बादसँ ……?’ हुनका मोनमे जे आशंका रहन्हि, ओ आगा राखि देला ।
माँ कनि देरक लेल रुकि गेलीह, फेर अचानक जेना किछु स्मरण आएल होयन्हि, ‘हँ एकदम ओकरे बाद नहि….परिवर्तन तऽ तोरे विवाहक बाद शुरु भऽ गेल रहन्हि ।’
‘केहन अछि छोटू……?’ ओ पुछलन्हि ।
‘बढि़या अछि । हरेक दू तीन दिनक बाद फोन कऽ हालचाल पुछैत रहैत अछि, महिना डेढ़ महिनामे घरो अबैत अछि । एहिबेर तऽ अपन कनियाँकेँ सेहो अनने छल । ओहो बढि़या छथि । बहुत जल्दी पूरे हिन्दु संस्कार सिख लेने छथि ओ । तोहर बाबूजीसँ तऽ खूब बात करैत छलीह, तोहर बाबूजी सेहो हुनकर खूब प्रशंसा करैत छलथि ।’
हुनका बड़का झटका लगलन्हि । बाबूजी बात करैत छथि अपन पुतहुँसँ, ओ पोतहुँ जे दोसर धर्मक छथि, जेकरा लेल बेटा घरक विरोध कऽ कऽ विवाह कएलन्हि । हुनकर दृष्टिकोण एतेक विस्तृत भऽ गेल अछि हुनका बाबूजीसँ भेटएकेँ उत्कंठा बढैत जा रहल छल ।
‘तो तऽ जेना पूरे सम्बन्धे समाप्त कऽ लेने छएँ । अबैत छएँ साल—साल भरि पर आ चलि जाए छेँ एक दू दिनमे, कनियाँ आ बच्चाकेँ सेहो नहि लबैत छेँ । कतेको बेर कहलिऔ तोरासँ जे कनियाँ आ बच्चाकेँ छुट्टिमे एतए पहुँचादे, दस दिनक लेले किए नहि । मुदा तोरा तऽ अपन बाबूजीसँ ठनल रहैत छौ,’ माँ जेना शिकायतक पुरिआ खोलि देलन्हि ।
‘बाबूएजी तऽ कहने रहथि एहि महिलाकेँ अपन घरमे घुसए नहि देब । आब जहिआधरि ओ स्वयं नहि कहता, तहिआधरि हम हुनका नहि लाएब,’ ओ माँकेँ आँखिसँ आँखि मिलबैत बीना कहलन्हि । ई बात ओ बहुत पहिने तय कऽ लेने रहथि । आखिर ओकरो तऽ कोनो स्वभिमान छैक ।
‘आ तो मानि लेलए ? ओ तऽ तामसमे कहने छलखुन । स्मरण नहि छौ तोरा आ छोटू पर कतेक गर्व करैत छलाह, देखने नहि छहून जखन तोहर काकासँ झगड़ा भेलैक तऽ ओ सभकेँ आगा कहने छलाह हमरा कोनो मतलबी कुटुम्बक आवश्यकता नहि, हमर दूटा बेटा दू करोड़क अछि आ तोसभ आइधरि कोनो बात नहि मानलए, हुनकर मोन लायक कोनो काज कएलए ? तामस आएब तऽ स्वभाविक छल ।’
सत्ते कहैत छथि माँ बाबूजी सहीमे हुनका आ छोटूकेँ बहुत मानैत छलथि । एकटा हुनकर मित्र पुलिसमे बड़का पोष्ट पर छलथि, हुनकासँ जेठकाक लेल नोकरीक बात कएने छलथि । तहिना घर बनबैत समय छोटूक लेल आगाक स्थान दोकान, शो रुम वा अफिस खोलए लेल सुरक्षित रखने छलथि । एकटा बेटा पुलिसक बर्दीमे देखएकेँ हुनकर सपना रहन्हि । एकटा बेटा घरमे रहबाक चाही, हुनकर एहन अटल मान्यता छल । मुदा हुनकर बेटा हुनकर छोट—छोट अभिलाषा सेहो पूरा नहि कऽ पेलन्हि । ओ पढ़ाई पूरा करिते मित्रकेँ सँग काठमाण्डू चलि गेलथि । आ संघर्ष करैत—करैत मिडियामे अपन बढि़या नाम कमा लेलन्हि । ओतहि अपन सहकर्मीसँग विवाह कऽ लेलन्हि । छोटू पोखरा चलि गेला आ कैन्टिनकेँ ठिक्का लेबए लगलथि । बहुत पैसा भेलाकबाद हुनकोसँ दू कदम आगा निकैलि कऽ एक गैर हिन्दुसँ विवाह कऽ लेलन्हि । बाबूजीक प्रतिक्रिया तऽ ठीके रहन्हि । हुनकर बेटा लायक भेलाक बादो हुनकर बात नहि मानलकन्हि । तामस तऽ होएबे करत । मुदा हुनकर आ बाबूजीक मानसिक संघर्षमे बेकारमे माँ पिसा रहल छलीह । आब ओ अवश्य प्रमिला आ साक्षीकेँ लऽ अएता । यदि बाबूजी एकबेर स्वयं लाबएकेँ लेल कहि देताह तऽ …..।
बाबूजीकेँ भोरमे मर्निङ्ग वाक करएकेँ नियम पुरान छन्हि । जखन ओ छोट रहथि तऽ बाबूजी हुनको घुमाबए लऽ जाइत छलाह, मुदा जेना—जेना बड़का होइत गेला, बाबूजीक लगाएल सभ आदत छुटैत गेलन्हि ।
किछु देरक बाद काँलवेल बाजल । गेट खोलए वएह गेलथि ।
‘आरे तो ….?’
‘गोर लगैत छी बाबूजी,’ ओ पयर छुलन्हि ।
‘नीके रह, की हालचाल ।’
हुनका लागल जेना बाबूजीक चेहरा पर वएह भाव अएतन्हि जे पहिने हुनका देखि कऽ अबैत रहन्हि । मुदा हुनकर चेहरा एकदम शान्त छल । ओ भीतर जा कऽ शोफा पर बैसैत बजला, ‘आ बेटा, भीतर आ ।’
हुनका शब्द पर विश्वासे नहि भऽ रहल छल । बाबूजी नहि जान्हि कतेको बर्षक बाद बेटा कहने रहन्हि । ओ जा कऽ हुनका आगामे बैसि रहलाह । ई एकटा साधारण घटना कतहुँ नहि छल ।
‘कखन अएलएँ ?’
‘जी, एक डेढ़ घण्टा पहिने……।’ ओ बात करैत स्वयंकेँ असहज अनुभव कऽ रहल रहथि ।
‘पेट कोना रहैत छौक, आइ काल्हि ?’
अत्यधिक आश्चर्य । हुनका लागल जेना ओ कोनो सपना देखि रहल होइथ । बाबूजी हुनकर स्वास्थ्यक बारेमे पुछि रहल छथि । पेटक रोगी ओ बच्चेसँ छलथि । ओ बहुत सम्हरलाक बाद बजला, ‘जी ….आइ काल्हि ठीक अछि ।’
‘चल बढि़यां । आओर सभ ….?’
‘जी सभ किछु ठीके अछि ।’
‘कनियाँ आ साक्षी बेटी ?’
‘जी ….दुनू ठीक अछि,’ ओ आँखि फारिकऽ एहि सत्य पर विश्वास करएकेँ कोशिस करैत बजला ।
बाबूजी किछु देरक लेल चुप भऽ गेलथि । माँ जलपान बना कऽ लौने छलीह । जलपान बीचमे राखि कऽ बाबूजीक बगलमे बैसि रहलीह । बाबूजी चाह उठबैत बजला, ‘तो केहन होइत जा रहल छेँ दिनप्रतिदिन ? जेना ४५ सालक अधेड़ हुए । केश एतेक उज्जर होइत जा रहल छौ आ पेट ….? एना लगैत अछि जेना हलुवाई हुए । देखैत छियैक सुनिता ? हमरा लागाओल मर्निङ्गवाकक आदत अपनौने रहति तऽ आइ ३५क उमेरमे ५४ केँ नहि लगैत ….कनी स्वास्थ्यकेँ सेहो ध्यान राख बेटा ।’
ओ बिहुँसए लगलाह । बाबूजी सेहो बिहुँस रहल छलाह । माँ दुनूकेँ एहि प्रकार बात करैत देखि प्रशन्न छलीह । ओ किछु देरमे उठि कऽ किचेनमे चलि गेलीह ।
‘एखन रहबएँ ने किछु दिन ?’ बाबूजी खोज खबरिकेँ हिसाबसँ पुछलन्हि ।
‘जी मात्र एक दिनक काज टिभीकेँ अछि ….काल्हि साँझमे चलि जाएब ।’
बाबूजी किछुदेर धरि हुनका देखैत रहला, फेर आवाज उच्च करैत माँसँ कहलन्हि, ‘सुनिता हमरा तरकारी दऽ दिअ । मुहँ धोलाकेँ बाद तरकारी काटि देब आ अहाँ आटाँ सानि लेब ।’
ओ मुहँ धोबए बाथरुममे चलि गेलथि । हुनका बाबूजीसँ भेटि कऽ, हुनकर ई रुप देखि कऽ आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता भेल छल । मुदा पता नहि किए एकटा आओर आश्चर्यजनक भावना मोनमे घुमडि़ रहल छल । उदासी, निराशा, तामस, आत्मग्लानी वा एहिमेसँ कोनो भावनासँ मिश्रित कोनो नव भावना जेकरा पहिचानलाक कारण ओ कोनो संज्ञा देबएमे असमर्थ छलथि । ई भावना हुनक प्रशन्नताकेँ रोकि रहल छल । एहिमे एतेक प्रशन्नता होबएबला बातो नहि । सत्य तऽ इहे छल बाबूजीक ओ रुप शुरुसँ देखैत अबैत रहथि, ओहिमे एक सय अस्सी अंशक परिर्वतन हुनका बहुत बढि़या नहि लागि रहल छल । ओ शुरुएसँ एकटा तानाशाह जकाँ रहल छलथि । हुनका एहि प्रकारे हँस्सी कऽ, हुनक बराबरीमे बैसि कऽ बात करब बढि़या नहि लागि रहल रहिन्ह । ओ माँकेँ काजमे सेहो हाथ बटाबए लागल छलथि । हुनकर दृष्टि निश्चते बदलल अछि, मुदा किए ? ओ सहीमे माँकेँ सहायता करए चाहैत छथि वा हुनका डर छन्हि माँ सेहो हुनका हुनकर बेटा जकाँ असगरे नहि छोडि़ दैथि ? बाबूजी मुहँ धो कऽ आबि गेल छलाह । सोफा पर बैसि कऽ ओ अखबार उठौलन्हि आ कुर्ताक जेबमेसँ चश्मा निकालि कऽ लगा लेलन्हि आ बढि़या जकाँ अखबारक पन्ना पलटेए लगला । ओ आश्चर्यमे छलाह । हुनकर माथ जेना चकराए लागल छल । बाबूजी हुनकर चश्मा लगौने छथि । वएह चश्मा, जाहि तरहक चश्मासँ हुनका बहुत चीढ़ रहन्हि ।
जखन एकबेर ओ अपन पावरकेँ सीसा नव फ्रेममे लगा कऽ अनने रहथि तऽ बाबूजी बहुत तमसाएल छलथि ।
‘ई सिनेमा फैसनबला चश्मा पहिरबएँ तो ? एतेक छोट—छोट सीसा जाहिमेसँ आँखि बाहर तकैत रहैत अछि ? उठा कऽ बाहर फेकि एकरा । जा कऽ बड़का सीसाबला चश्मा आनि लए जे सभ्य लागए, चश्मा जकाँ । जेना विद्यार्थी लगबैत अछि….,’ बाबूजी कड़ैक कऽ बाजल रहथि । आ सहीमे डेरा कऽ ओ चश्माकेँ नुका देने रहथि आ दोसर चश्मा आनि लेने रहथि । बादमे ओ एहि तरहक चश्मा बाबूजीक आगा नहि लगौने छलथि । ई चश्मा ओ गल्तीसँ छोडि़ गेल रहथि जखन अगिला बेर आएल रहथि तऽ ।
‘बाबूजी, ई चश्मा ….?’ ओ किछु नहि बुभए पाबएकेँ स्थितिमे रहथि, बहुत परेशान आ बहुत कन्फ्युज्ड ।
‘हँ ई तऽ तोरे छौक,’ बाबूजी चश्मा निकालि कऽ एकबेर देखला आ फेर लगा लेलन्हि ।
‘अहाँ बला ….?’
‘ओ ? ओ तऽ अलमारी पर राखल छैक । हमरा लगैत अछि ओहिसँ एहिमे साफ देखाइत अछि ।’
‘हँ ….।’ ओ फेर चकित छलथि ।
‘तो फ्रेस त्रेस भऽ जो फेर सँगे खाएब, ‘बाबूजी फेर अखबार पढ़ए लगलथि ।
ओ बेचैन भऽ गेला आ उठि कऽ टहलए लगलथि । बाबूजीसँ एहि तरहक मित्रवत व्यवहारकेँ नहि ओ कहिओ अभिलाषा रखने रहथि आ नहि हुनका बढि़या लागि रहल छलन्हि । एकटा चट्टानकेँ एहि प्रकारे धसब, एकटा पहाड़केँ झुकि जाएब हुनका अखरि रहल छल । जे कहिओ ककरो आगा नहि झुकला, भगवानक आगा सेहो नहि, आई ओ एतेक नरम भऽ गेल छथि । पूरे परिवारकेँ, पूरे अनुशासन आ कठोरतासँ नेतृत्व करएबला सम्राट आई स्वयं हारि गेल छथि । एहि सम्झौताक लेल हुनका केँ विवश कएलक, हुनकर सन्ताने तऽ । एतेक असुरक्षित स्वयंकेँ ओ अपन बेटेक कारणसँ अनुभव कएलन्हि अछि । ओ लगातार अपराधबोधमे धसैत जा रहल छथि ।
टहलथि ओ अलमारीक लग गेलाह आ बाबूजीक पुरान चश्मा उठा कऽ देखए लगलाह । ओ चश्मा लगेलाक बाद हुनका लागल जेना हुनको ई पहिरला पर पहिनेसँ साफ देखा रहल छल हुनकर स्वयंकेँ चश्मासँ बेसी साफ । किछु देरधरि ओ चश्मा लगौने घुमैत रहला आ फेर आबि कऽ बाबूजीक आगा बैसि रहलाह ।
‘एहि बेर प्रमिला आ साक्षीकेँ लऽ कऽ आएब बाबूजी,’ चश्मा हुनका एकदम फिट लागल छल ।
‘हँ बेटा, एहिबेर छुट्टी किछु बेसीए दिन निकालि कऽ अबिहएँ,’ बाबूजी अखबार पढैत बजला ।
भानस घरसँ कचरीक सुगन्ध आबि रहल छल । सायद माँके हाथक कचरी दुनूके अपना दिस तानएकेँ प्रयास कऽ रहल छल ।