मिथिलाक अपन माछ विलोपान्मुख

कतय गेल अपन पहिचान?

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टेंगरा, पोठी, गैंचा, गरै, गोलही, काँटी, बुआरी, भौंरा, भुन्ना, रोहु, कतला, सिल्वर, भाकुर, छही, मारा, इचना, सिंगी, मांगुर, कबै, कोतरी, सुहा, आदि…. नहि जानि कतेको आर तरहक माछक अंबार मिथिलाक तीन मुख्य प्रतीक चिह्न माछ, मखान आ पान मध्य एक केर अनेक रूप थीक। मिथिलाक्षेत्रीय भूगोलक स्वरूप – हिमालय सँ बहैत आबि रहल कतेको पहाड़ी नदीक किछु विशालकाय रूप – जेना कोसी, कमला-बलान, बागमती, गंडक, महानन्दा तऽ कतेको रास छोट-मोट मुदा अपन विशिष्ट पहिचानक संग चारूकात मायाजाल पसारने अछि। माछ, काउछ, सितुआ, डोका, काँकौड़ आ तरह-तरहकेर जलजीवक संग जल-जमाव क्षेत्र मे जल-पौधाक अंबार देखल गेनाय स्वाभाविके छैक। लेकिन ई सबटा धीरे-धीरे विलुप्त भऽ रहलैक अछि। या तऽ बेसम्हार बाढिक असर सँ कहियो-कभार दर्शन होइत छैक एहि जीव सबहक या फेर बान्हे-बान्ह – पेटे-पेटे ई सबटा बहिकय मिलि जाइछ गंगा मे आ गंगा सँ फेर कतय जाइछ तेकर कोनो लाभ मिथिलावासीकेँ नहि होइत छैक।

आब जे माछ लोक पाइ कमेबाक धुन मे पोखैर मे पोसैत अछि, ताहि मे विकेट, पेटफूल्ला, विकासी रोहु, विकासी मांगुर, विकासी कबै आ कतेको तरहक विकासी माछ जेकर बढोत्तरी कम दिन मे वजन बेसी होयबा सँ होइत छैक। कछुआ तऽ विश्व सँ गायब भऽ रहलैक अछि तखन मिथिला सँ सेहो गायब हेतैक तऽ कोनो बड़का बात नहि। मुदा एहि मे दोष केकर मानल जाय – प्रकृति विरुद्ध राज्य-व्यवस्थापनक आ कि मनुष्यक भौतिकवादी मानसिकताक, एहि सब पर आबयवला समय मे शोधक आवश्यकता हेतैक। एक तरफ अवैज्ञानिक बाँध परियोजना सँ नदी सबहक पानिक बिना कोनो लाभ मिथिलाक लोककेँ भेटने पानिक बर्बादी, दोसर दिशि पोखैर-चभच्चा-डोबरा आदिक निरन्तर उड़ाही नहिकय उनटे भरिकय वासडीह बनाकय बेचबाक फैसन, जँ पोखैर बचलो अछि तऽ ओहि मे जहर दय पुरान तरह-तरहकेर मछरीकेँ मारि विकासी माछक पोसनाय… ई सब शोधक विषय होयत जे आखिर विदेहक धरतीक एक सौभाग्य माछक विविधता एना कतय हेरा गेल।

मिथिलाक माछ पर एक रचना:

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माछ आ मिथिला

माछ, माछ, माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!
मिथिला महान्‌ – मिथिला महिमा महान्‌,
माछो महान्‌ – मखान आ पानो महान्‌,
माछ..माछ..माछ! मिथिलाके माछो महान्‌!

इचना के झोरमें ललका मेर्चाइ,
मारा के झोरमें सुरसुर मेर्चाइ,
चाहे जलखैय या हो खाना… होऽऽऽ!
छूटबैय सर्दी जहान!
माछ, माछ, माछ…
मिथिलाके माछो महान्‌!

गैंचाके काँटो बीचहि टा में,
नेनी के काँटो सगरो पसरल,
सदिखन काँटो कऽ के निकालय… होऽऽऽ!
स्वादमें सभटा महान!
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

आउ चलू देखी पोखैर में मच्छड़…
आइ निकलतै भून्नो के पच्चड़…
रौह, भाकुर, नेनी कऽ के पूछतैय… होऽऽऽ…
महाजाल फंसतय सभ माछ…
माछ..माछ.. माछ..
मिथिलाके माछो महान्‌!

बंसीमें देखू पोठी बरसय,
गरचुन्नी आ सरबचबा फंसय,
बड़का बंसीमें आँटाके बोर यौ… होऽऽ
से फंसबैय रौह माछ,
माछ..माछ..माछ…
मिथिलाके माछो महान्‌!

जतय माछ होइ लोक ततय हुलकल
माछ हाट के रूप रहय लहकल
एम्हर तौलह ओम्हर तौलह … होऽऽऽ
सरिसो रैंची संग जान…
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

मिथिलाके पोखैर कादो भोजन
ताहि माछो के सुधरल जीवन
खायवाला सभ पेटहि पाछू … होऽऽऽऽ
काजक बेर उड़य प्राण…
माछ, माछ, माछ…
मिथिलाके माछो महान्‌!

सुरसुर काका के माछक मुड़ा…
प्रभुजी काका के पेटीके हुड़ा…
सभमिलि बैसल चूसि-चूसि मारैथ होऽऽ
सगरो माछ के मजान…
माछ, माछ, माछ…
मिथिलाके माछो महान्‌!

प्रयागमें छैक मैथिल पंडा
सभ के अपन-अपन धंधा
पहिचान वास्ते होइछै जे झंडा… होऽऽ
ताहू में छै मिथिला माछ…
माछ, माछ, माछ,
मिथिलाके माछो महान्‌!

गोलही काँटी छही आ सुहा
सिंघी मांगूर बामी टेंगरा
जानि हेरायल कतय ई मिथिला.. होऽऽ
आन्ध्रा के भेलय तूफान…
माछ, माछ, माछ…
मिथिलाके माछो महान्‌!

सच्चाई इहो छैक जे पानिक धाराकेँ मोड़ला सँ माछक संग-संग मिथिलाक पानो आ मखानो हेरा गेलैक अछि। एहि सब विन्दु पर शोध करबाक गूढ आवश्यकता छैक। सारा संसार प्रकृति-प्रदत्त देनक संग घर-वापसी चाहि रहल अछि। मिथिलाकेँ सेहो एहि दिशा मे सोचय पड़तैक।

– प्रवीण नारायण चौधरी