Yog Ki Thik: Geetaa

औझका प्रसाद (Today’s Bliss): (पुनरावृत्ति – जुन २०१२ उपरान्त)

yoga

अनुरोध: एक बेर मे पढला पर कम बुझायत, दोसर बेर ताहि सँ बेसी, तेसर बेर आरो बेसी आ बेर-बेर पढब तऽ अमृतपान करब समान अनुपम अभीष्टक प्राप्ति होयत। तैँ, कनेक मन थिर कऽ के आजुक साधना – स्वाध्याय करब। बहुत अनुपम प्रसाद थी ई:

(योग करब कर्तव्य थीक, योग कि? आउ मंथन करी। एहि अवस्थामे पहुँचबाक लेल सेहो ईश्वर संग प्रार्थना करी। कोनो बात असंभव नहि, बस ईश्वर केँ संभव मानि हुनकहि मे रत रही।)

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६-२०॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‌बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६-२१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६-२२॥
तं विद्याद्‌दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्‌।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥६-२३॥

योगकेर अभ्यास सऽ निरुद्ध (रोकल गेल) चित्त जाहि अवस्था मे उपराम (विषयक भोग सँ विरक्तिक अवस्था) भऽ जाइछ आ जाहि अवस्था मे परमात्माकेर ध्यानसँ शुद्ध भेल सूक्ष्म बुद्धि सँ परमात्माक साक्षात्कार करैत सच्चिदानन्दघन परमात्मा टा मे सन्तुष्टिक अवस्था रहैत अछि;

सुखमात्यन्तिकं – सुखं आ आत्यन्तिकं यानि अनन्त सुख, यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् – यत् बुद्धि ग्राह्यं अतीन्द्रियम् यानि जेकरा बुद्धि या इन्द्रिय केर ग्रहणक्षमता टा सँ, वेत्ति – जानल जा सकैत अछि, यत्र न चैवायं स्थितिश्चलामि तत्त्वत: – यत्र न च एव अयं स्थितिस् चलति तत्त्वत: – तत्त्व-दर्शनक जाहि स्थिति सँ कदापि डिगैत (हँटैत) नहि अछि;

दोसर शब्द मे:
इन्द्रिय सभ सँ अतीत, मात्र शुद्ध बनल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करय योग्य जे अनन्त आनन्द अछि; ओकरा जाहि अवस्थामे अनुभव करैत अछि आ जाहि अवस्थामे स्थित ओ योगी परमात्माक स्वरूप सँ विचलित नहि होइत अछि;

यं लब्ध्वा – जेकरा पाबिकय, चापरं लाभं – कोनो अन्य लाभ, मन्यते नाधिकं तत: – ओहि सँ ऊपरका कोनो अन्य लाभ प्राप्त करबाक इच्छा तक नहि रखैत अछि, यस्मिन्स्थितो – एहेन स्थिति सँ, न दु:खेन गुरुणा अपि – अनेको दु:ख भेलो पर, विचाल्यते – मन नहि विचलित यानि डिगैत अछि;

दोसर शब्द मे:
परमात्माकेर प्राप्तिरूप सन लाभ केँ प्राप्त कय ओहिसँ अधिक दोसर कोनो लाभ नहि मानैत अछि आ परमात्माप्राप्तिरूप केर अवस्थामे स्थित योगी बड़ भारी दुःखो भेला सँ चलायमान नहि होइत अछि;

तं विद्याद्‌दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् – ताहि दु:खसंयोग सँ वियोग यानि दु:खक अनुभूति तक नहि करयवला स्थिति मे पहुँचयवला अवस्थाकेँ योग केर संज्ञा देल जाइछ, स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्ण चेतसा: – ताहि योग केर अभ्यास निर्विण्णचेतना यानि वगैर कोनो प्रकारक शोकादि अर्थात् धैर्य उत्साह भरल चित्त सँ करब कर्तब्य थीक।

दोसर शब्द मे:
जे दुःखरूप संसारक संयोगसँ रहित अछि ओकर नाम योग थिकैक; ओकरा जानबाक चाही। एहि योगकेँ बिना कोनो अगुताहट अर्थात्‌ धैर्य आ उत्साहयुक्त चित्तसँ निश्चयपूर्वक करब कर्तव्य थीक।

हरि: हर:!!