हनुमान्-रावण संवाद
– प्रवीण नारायण चौधरी (मार्च २८, २०१२)
संत सदिखन कल्याण मात्र चाहैत छथि! कि मिथिला संतविहीन भऽ गेल?
आइ, पहिले लिखब किछु छंद:
तूँ हंसि ले मुदा मानि ले एतबा हमरो बात
जुनि कर अगबे मनमर्जी लऽ ले प्रभुकेर साथ!
बल जे छौ से छल छौ देखाबा,
एखन छौ जानि तखन कि हेतौ
तैयो दमक के धमक चमक सऽ,
जुनि कर जीवन केँ बर्बाद!
मानि ले एतबा हमरो बात!
लऽ ले प्रभुकेर साथ!
धन्य पिता ओ जगमें सभक,
हमर तोहर कोन खेती?
सभ हुनकहि थीक, तैयो हम तूँ,
जानि कतेको भटकी!
बस मानि ले – बस मानि ले
तू जानि ले – सत् जानि ले
जुनि कर जीवन केँ बर्बाद!
मानि ले एतबा हमरो बात!
लऽ ले प्रभुकेर साथ!
एहि संवादमें बहुत किछु सिखयवाला बात अछि। एहिपर हम सभ मनन करी। एहेन नहि छैक जे रावण हमरा-अहाँ वा केओ व्यक्तिमें नहि अछि। अछि! हमर अहं, हमर झूठ के अभिमान, छल, बल, कपट, द्रोह, संदेह, द्वंद्व, हठ, मूढता – एहेन हरेक लक्षण जे हमरा सभके क्षणिक सुख लेल प्रेरित करैछ, ओ सभ रावणकेर प्रतिनिधित्व कय रहल अछि। लेकिन संगहि परमपिता परमेश्वर सेहो हमरहि अहाँमें छथि – रावणमें सेहो ओ छलाह। जीवनकेर स्वतंत्र अस्तित्वमें हुनक सनातन नियम अनुसार हमहुँ-अहाँ स्वतन्त्र छी कर्म करय लेल। अवश्य नियंत्रण एखन आ हर घड़ी हुनकर छन्हि, लेकिन जाहि अभियांत्रिकी सऽ हमरा सभक निर्माण भेल अछि ताहि पर कार्य करब आ भविष्य लेल गति तय करबा लेल हम सब अवश्य स्वतन्त्र छी, जे स्वतन्त्रता हुनकहि देल अछि।
आब यदि हम सब जीवनके एहि अनमोल घड़ीकेँ ईश्वरक ऐश्वर्य चोरी करयमें खर्च करी तऽ एक बेर केर लेल तऽ केओ नहि रोकत… परन्तु रोकय लेल हनुमानजी निज-प्रकृतिमें तऽ विराजमान छथिये, समस्त जनमानसमें संत-समाज – श्रेष्ठ गुरुजन सभ सेहो हमरा अहाँक लेल आवश्यक स्वरूप निर्धारण करैत छथि। लेकिन निज-स्वतंत्रताक दमन केओ नहि कय सकैछ। ईश्वरकेर यैह सर्वमान्य सिद्धान्त छन्हि।
सुन्दर काण्डमें आजुक प्रसंग अछि रावणसंग हनुमानजीक संवाद – ब्रह्मास्त्र प्रयोग कयलापर इन्द्रजीत मेघनाद द्वारा स्वयं बन्हनमें पड़ैत हनुमानजी रावणकेर विलक्षण दरबार में निःशंक ठाड़्ह छथि। ई देखि अभिमानी रावण हुनका सऽ पूछि बैसैछ जे सारा वाटिका उजाड़ि एतेक लोक केँ संहार करैतो – एतय तक जे हमर पुत्र अच्छकुमार केर बध केर अपराध केने हनुमान तों एतेक निःशंक – निडर हमर दरबार में ठाड़्ह कोना छेँ?
हनुमानजी बहुत युक्तिपूर्वक रावणके बुझेलखिन:
जिनक बल पाबि माया संपूर्ण ब्रह्माण्डकेर रचना करैछ,
जिनक बल सऽ सृष्टिके सृजन, पालन, संहार होइछ,
जिनक बलसँ सहस्रमुख शेषजी ब्रह्माण्डकेँ सिरपर रखैछ,
जे देवगणकेर रक्षा लेल अनेको प्रकार केर देह मे जाएथ,
जे मूढ-अभिमानी-क्रोधी-कामी केँ शिक्षा दैथ,
जे शिव-धनुष तोड़ि सभ राजा केर घमंड हरैथ,
जे खर-दूषण-त्रिशिरा-बाली सम अतूल्यकेँ मारैथ,
जिनक लेशमात्र बलसँ तों जगकेर स्वामी बनें!
जिनक निज अंगकेर तों चोरी केलें!
रे मूढ रावण! हम हुनकहि दूत छी!
तोहर सभ खेल हमरा पता अछि,
तों सहसबाहु संग लड़लें,
बालि संग युद्ध कय कोन जस पेलें!
अरे! भूख लागल तऽ फल हम खेलहुँ,
बानर छी से गाछो तोड़लहुँ,
हमरा जे मारलक ओकरे मारलहुँ,
देह सभक प्रिय हमहुँ बुझलहुँ!
यैह अपराध मोर, पुत्र तोर बान्हल,
एहि सऽ नहि हम बनल अभागल,
हम प्रभुजी केर काजहि लेल बनल!
हाथ जोड़ि एतबी तोरा कहबौ,
छोड़ अभिमान सीख मोर सुनि ले,
त्यागि भ्रम बस प्रभुजी केँ भजि ले,
जे सभ कालहु केँ छथि खाए,
हुनका संग के बैरी करए,
मान कहब मोर जानकी दे भाए!
ओ छथि प्रिय शरणागतवत्सल,
रक्षा-दया केर सागर धाम,
शरण जे जाय से माफी पाबय,
तोरो रखथुन शरणमें राम!
धरे हुनक पद हृदयमें हरदम,
अचल राज्य चलबे तों सदिखन,
पुरखाकेर यश चन्द्र समान,
जुनि बन करिया दाग बयमान!
राम नाम बिनु शोभा नहि छै,
मद-मोह छोड़ि तों सोच-विचार,
सजल-धजल नारी बिनु कपड़ा,
कथमपि नहि शोभय संसार!
रामविमुख संपत्ति-प्रभुता सभ,
रहितो बनय खुद काल समान,
बिन स्रोत कोनो नदीक जेना,
बरखा बितैत बनैय अन्जान!
सुन दसकंधर! केओ न बचेतौ,
द्रोह तोहर बड़का दूर्भागी,
कोटि देव रक्षा नहि करथून,
रामक द्रोही जँ तूँ अभागी!
मोह जेकर बस मुख्य मूल छौ,
अभिमान तमी तों बस छोड़ि दे,
स्वामी कृपालु केवल एक रामचंद्र,
हुनक भजन तोंहूँ बस गाबि ले!
लेकिन हनुमानजी केर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति सँ भरल हितवाणीक बात पर मनन करबाक बदला अभिमानक नशा मे चूर रावण एहि समस्त बातकेँ हंसीमें उड़ाबैत अछि आर उलट हनुमानजीकेँ कहैछ जे मृत्यु हुनकहि नजदीक अछि….!
हनुमानजी आब केवल मुस्कुराइत ई बुझि जाएत छथि जे एकरा मतिभ्रम छैक, कहैत छथिन जे उल्टा हेतौक। खिसियायल रावण पुनः अपन क्रोधक दंभ भरैछ, राक्षस सभ हनुमानजीक तरफ दौड़ैछ – लेकिन नीति-निपुण विभीषणजी ताहि घड़ी ओहिठाम अबैत छथि आ दूतपर संहार केर विरोध करैत छथि – सभ हुनकहि बातकेँ मानैछ आ तेकर बाद आगू सुननहिये होयब जे ढेर होशियार लोक कोना कऽ ढेरी होशियारी देखबैछ आ कोना लंकामें आगि लगैछ।
मिथिलाक पुरखा पुलस्त्य ऋषि समान आ आजुक संतान रावण समान दंभी-अभिमानी पुत्र जेकाँ जे पुरखाक ऐश्वर्यपर चमैक रहल अछि… केओ बुझेबो करैत छैक जे एना केला सँ कल्याण छैक तऽ रावण समान खोंखिया उठैछ। तदापि किछु विभीषण तऽ रहिते छथि स्थिति एहि तरहक अभैर रहल अछि।
मिथिलाकेँ हनुमानजी केर कल्याणकारी उपदेश जरुर बचा सकैत छैक। विभीषण कदापि रावणक अहित नहि चाहैत छलाह। बस, मनन योग्य बात एतबा छल जे हनुमान आर विभीषण तथा रावण अन्यमें खोजऽ सऽ बहुत नीक जे सभकेँ स्वयंमें दर्शन हुअय आ मातृभूमि केर अस्मिता (मैथिली – जानकी – धिया सिया) केर रक्षा लेल – मैथिली केर रक्षा लेल हम सब प्रण ली।
मैथिली जिन्दाबाद!!
हरिः हरः!!