भगवानक भक्तिः नवधा भक्तिक अनुपम उदाहरण शबरी

स्वाध्याय आलेख

– प्रवीण नारायण चौधरी

shabariभक्ति भगवान् प्रति पूर्ण समर्पणकेर नाम होइछ। भगवान् राम द्वारा शबरीक भक्ति केर सराहना हमरा सभ लेल अनुकरणीय अछि। नवधा भक्तिक चर्च कयलन्हि अछि श्रीराम!

‘प्रथम भगति संतन कर संगा’

शबरीकेँ दोसर कोनो काज नीके नहि लगैन, सिवाये साधू-संतकेर कुटियामें सेवा प्रदान करबाक। कतबो लोक अछूत कहि हुनका भगैयो देलकैन, मुदा ओ बस टकटकी लगौने केवल सेवाभाव आ समर्पण संग आश्रम नजदीक एक कुटिया बनाय रहलीह आ गुरुप्रेममें पागल शबरी गुरुवचनकेँ सदिखन स्मृतिमें रखलीह जे अहाँ संग प्रभुजी एक दिन जरुर साक्षात्कार होयत, बस हुनका लेल गुरुवचन अन्तिम सत्य छल।

अपन गुरुक नित्य दर्शन करैत दूर कातमें पड़ल शबरी पूर्ण समर्पण भाव आ बिना कोनो तरहक केकरो लेल, एतय तक जे साधूसमूह झारि-फटकारि गुरुसेवा सँ वञ्चित करैत आश्रम सऽ बाहर निकाइल देने छलन्हि… तेकरोप्रति कोनो दुर्भावना केँ अपनामें जगह नहि दैत बस केवल गुरुवचनकेँ सत्य मानैत नित्य रामजीक एबाक प्रतीक्षा करैत रहलीह।

ओ रामजीक स्वागत-सत्कार लेल नित्य फल तोड़ि लाबैथ। प्रेम कतेक अबोध आ बालबुद्धि सन छलन्हि जेकर परावार नहि। भगवान्‌ केँ भोग लगेती, लेकिन मीठ फर… आ मीठ फर पहिले अपने जीह पर स्वादि लेती… अर्थात्‌ जे मीठ वैर छैक प्रभुजी लेल वैह टा डालीमें संग्रह करती। हाय रे निश्छल प्रेम! आँखिमें नोर भरैछ जखन-जखन हुनक ई प्रसंग केँ ध्यान करैत छी। यैह भावकेँ राम स्थान दैत छथि। बहुत चाव सऽ ओ शबरीक आँइठ वैरक भोग लगबैत छथि नहि कि आश्रमक अनमोल कंद-मूल-फल के छूबो करैत छथि!

‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा’

साधू समाज हुनका एहि लेल नीक लगैत छलन्हि जे ओहिठाम अन्य कोनो अर्र-दर्र बाते नहि बल्कि जेम्हर-तेम्हर रामहि-राम!

‘गुरु पद सेवा तीसरी भक्ति अमान’

पहिले कहि चुकल छी, गुरुप्रेम शबरीक निश्छल, निष्कपट आ पूर्ण समर्पण संग छलन्हि। रामजीक कृपा, गुरुओ हुनका लेल ओतबे सोचैथ। अंततोगत्वा गुरु हुनका लेल सभ साधूसमाज तक सऽ मोहभंग करैत अपन सर्वस्व हुनकहि संरक्षणमें छोड़ि समाधिस्थ भऽ गेलाह। गुरु-शिष्याक पवित्र सम्बन्धकेँ अमरत्त्व सेहो प्रदान कय गेलाह। शिष्या सेहो शिक्षा लेनिहैर नहि, बस सेवा-सुश्रुषा देनिहैर। एकमात्र दासत्वकेँ स्वीकार केनिहैर शबरी, अपन जीवनक एकहि टा उद्देश्य जे आन काज हम किऐक करी, हुनकर सेवा करी जे रामजीक सेवामें निरंतर अपन जीवन लगौने छथि।

वाह! वाह! मुँह सँ हृदयक आवाज आइ युगो उपरान्त ई लेखनी करैत निकैल रहल अछि जे हम बड़भागी बनैत छी यदि शबरीकेँ सुमिरैत छी। शबरीक सुमिरन सऽ रामजीक सुमिरन पर्यन्त भऽ रहल अछि। आगू देखी, रामजी स्वयं कहि रहल छथि।

‘चौथी भक्ति मम गुणगान, करै कपट तजि गान’

संगत साधू-संतक रहलापर एहि बातक गारंटी छैक, गान केकर करत लोक सिवाये भगवान् केर? अवश्य एक अवलंब छथि दीनबंधु! तखन भटकब किऐक? शबरी तऽ गार्हस्थ जीवनमें प्रवेश कदापि नहि करब आ ता-उम्र ईशक सेवा कयनिहारकेँ सेवा करब सोचि आयल छलीह। दोसर काजे कि? बस प्रभुक गुण गाउ, रुख-सुख खाउ! कपट काजक नहि! सावधान!

‘मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा, पंचम भजन जो वेद प्रकाशा’

वेदक प्रकाश यैह छैक जे मंत्र जपू, नाम सुमिरू, लेकिन ई सभ करू तखन जखन दृढ विश्वास हो जे आब अन्य किछु उपाय हमरा लेल अछिये नहि। निःसन्देह, शबरी बाल्यावस्थामें अपन बड़-बुजुर्गसँ ई सुनलीह जे जीवन बस मृत्यु लेल भेटैत छैक आ जीवनकालमें यदि माधवसेवा हो तऽ पार लगैत छैक, बस फेर कि छलैक, ओ नित्य देव-सुमिरन में देवपुरुष केर सत्संग सँ आनन्दपूर्वक करय लगलीह!

ओ ताहि समाज लेल अछूत छलीह, लेकिन मन गंगा सँ पखारल छलन्हि। ओ निर्मल छलीह जे एतेक अटूट विश्वास के संग पूर्ण निर्णय आ दृढताक संग यैह कार्य लेल अपन जीवन समर्पित कयलीह। कहू! ई अनुकरणीय नहि तऽ आर कि? भटकैत रहबाक विचार हो तऽ स्वतंत्र छी प्रवीण!

‘छठा दास शील बिरति बहु कर्मा, निरत निरंतर सज्जन धर्मा’

कहि चुकल छी, शबरी लेल अन्य कोनो काज नहि! बस सेवा आ सेवा! सेवा बड़ पैघ कर्म छैक। आजुक प्रोफेशनल सभक युगमें सेवा मूल्य प्राप्ति लेल कैल जैछ, मूल्य केहेन तऽ भौतिक सुख! परञ्च जे सेवा निष्काम आ केवल ईशक हेतु बुझि कैल जाय तऽ ओकरा असल प्रभु-दासतामें समर्पित मानी।

सज्जनकेर सेवा धर्म थीक। आब सज्जन के से विचारयमें बहुत समय लगा देबैक तऽ देरी नहि भऽ जाय! सावधान प्रवीण!

‘सप्तम सम मोहि जग देखा, मो ते संत अधिक कर लेखा’

बस हंसी लगैछ! देखैत छी कि आ देखा रहल अछि कि! जी! शबरी सभ संसारमें केवल हुनकहि देखलैथ। संतक सेवामें मेवा देखलैथ। कारण पहिले गुरु, तखनहि गोविन्द-ब्रह्म! भगवान् राम स्पष्ट कहलैन अछि जे संत समाजक सेवा केँ शबरी रामहु सँ बेसी महत्व दैत रहलीह। कारण, राम त अन्तिम ईष्ट छथिन, हुनका धरि पहुँचबाक लेल त संतक सेवा सीढीक काज करत।

‘आठवाँ यथा लाभ संतोषा, सपनेउ नहि देखै परदोषा’

सुखक मूल जे जतेक भेटल तहीमें प्रसन्न छी। शबरीकेँ आर कि चाही? प्रवीण बौआइत छथि। भूखल डिरियैत छथि। लेकिन शबरी तऽ पहिले सभकेँ प्रसन्न करैत छथि, तखन जे भेटल तहीमें हैप्पी! तहुँ सीख ले प्रवीण, यैह टा सिद्धान्त काज दैत छैक लोक केँ! संतोषम् परमं सुखम्!! भगवान् राम शबरीक संतोषी होयबाक बात केँ हुनकर आठम भक्तिक रूप मे निरूपण कएलनि अछि। अर्थात् संतोषी होयब भक्तमान बनब एक्के भेल।

‘नवमाँ सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हिय हरष न दीना’

एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित जातक तुलसीदास!

संसारमें जे छैक बस वैह छथि, एहि विश्वास केर संग सरल आ सभ संग छलविहीन व्यवहारक संग प्रभुजीक भरोसा रखैत बिना सुखी-दुःखी भेने जीवन शबरी जिलैथ, हे मानव समुदाय अहुँ लेल एहि जीवनधन केर सुरक्षा व सदुपयोग लेल यैह शुभकामना बेर-बेर देब जे नवधा भक्ति प्राप्त करू।

हरिः हरः!!