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महापुरुषों को जातीय परिधि में परिवेष्ठित करना बन्द करो

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

vidyapatiमिथिला के कुछेक लोगों ने कुटिलतापूर्वक मिथिला और मैथिली को किसी एक जाति का बपौती प्रमाणित करने पर तुले हुए हैं, वो अक्सर विद्यापति जैसे महान क्रान्तिकारी नाम अनुरूप गुणी विद्वान् और जनप्रिय कवि पर भी जातिवादी टिप्पणी करने से नहीं चूकते हैं…. ऐसे लोगों को विद्यापति का परिचिति तो सच में कभी रहता नहीं, बस वो अपने मन के भीतर का दुर्गंध से वातावरण दूषित करते रहते हैं। इस भ्रम में हमारे कुछ मित्र भी दुर्भाग्यवश पड़ जाते हैं…. जैसे संजय रिक्थ… वो बेचारा हरियाणा में चुनाव मैनेजमेन्ट करने के बाद से अभी तक उस फोबिया से ऊबार नहीं पाया है और मिथिला बनाने के लिये वो एक शार्टकट रास्ता खोजता फिर रहा है कि कैसे ब्राह्मण के अलावे अन्य जातियों को भी मिथिला राज्य आन्दोलन में जोड़ा जाय… इसके लिये वो उन्हीं कुटिल लोगों के सोच के साथ होकर आज राष्ट्रकवि दिनकर जैसा क्रान्तिकारी छवि वाला लेखक – साहित्यकार को खोजने में लगा हुआ है। उसे और ऐसे सोचवाले अन्य मित्रों को टूटा-फूटा हिन्दी में समझाना जरुरी समझते हुए नीचे विद्यापति के कुछ ऐसे गुणों का वर्णन कर रहा हूँ जिससे दुनिया को सीख मिलती है, सीख लेनी चाहिये।

 

विद्यापति जैसा क्रान्तिकारी बात करनेवाले स्रष्टा यदि आज भी मिथिला समाज को आगे ले जाना चाहें तो जरुर ले जा सकते हैं। विद्यापति राष्ट्रकवि दिनकर के भी उतने ही चहेते थे। कौन मर्द का बेटा साहित्य सृजना करते संस्कृत की विरासत से ‘देसिल वयना’ को ‘सब जन मिट्ठा’ कहकर उस समय के विद्वत् समाज से आमजनों की बोली अवहट्ठा (मैथिली) को सम्मान देने के लिये अपील कर सका है? कौन साहित्य सर्जक केवल मसि और कलम का प्रयोग कागज या पत्र पर करने के साथ अपने राज्य संचालक के लिये अपना सब कुछ दाव पर लगाकर रानियों और बौद्धिक सम्पदाओं को बचाने के लिये गुप्त ठिगानों पर वर्षों-वर्षों तक भटकता रहा है? कौन माय का लाल साहित्य सृजना की धारा और विद्या पर अधिपत्य रखकर अपने राजा के लिये प्राणदान लेकर यवन शासकों से अपने मिथिला सम्राज्य का सुरक्षार्थ कुछ भी कर पाया है? दिखायें!

 

जिस विद्यापति ने अपने धूर विरोधी और प्रखर आलोचक ब्राह्मण एवं उनकी भाषा संस्कृत के समर्थक केशव मिश्र की लाख आलोचनाओं को झेलकर भी आमजनों की बोली में ही रचनाधर्मिता का पक्ष लिया, उसे कुछ छुद्र ज्ञानियों के द्वारा आज ब्राह्मणका प्रतीक सिद्ध करने जैसा स्वार्थी खेल किया जा रहा है। ये तो संयोग है स्थापित इतिहास का, नहीं तो ऐसे बेवकूफों की कमी नहीं होती जो आज मिथिला के सिरताज विद्यापति को कहीं का न छोड़ते।

 

आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो मुश्किल से २% ब्राह्मणों के बौद्धिकता की खौफ से समूचा मिथिला और मैथिली पर उनका एकाधिकार मानकर खुद को अपने ही जन्म लिये भूमि में अपमानित पहचान के साथ जीने जैसा व्यवहार करते हैं…. अब उन्हें कैसे समझाया जाये कि प्रकृति ने तुम्हें जिस गर्भ और आवोहवा में जन्म दिया है कम से कम उसका सम्मान करो, करना सिखो।

 

और तो और, विद्यापति की रचना का मिठास और संपूर्ण लोकमानस की भावना को समेटने का कलात्मक सिद्धि देखो कि वो सभी के कंठ में जाकर बस गये। उनकी रचनाओं को जाति देखकर लोगों ने स्वीकारा ऐसा नहीं है, उनमें सराबोर लोकभावनाओं का और लोकमनसाओं का जो छौंक है, समर्पण है, स्वाद है… उन्हें लोगों ने स्वीकार किया और तभी वे महाकवि के साथ-साथ जनकवि भी कहलाये हैं। तो, मेरे मित्रों! ऐसे महान् पुरुषों के बारे में पहले ढंग से अध्ययन करो, समझो उनको, और फिर जनेऊ के ताग में उन्हें बांधकर जातिवादिता की धारा में बहा देना, उच्च और पूज्य मानकर पूजा कर लेना, अपनी राजनीतिक मनसाओं की सिद्धि के लिये जैसे मन करे प्रयोग-उपयोग-दुरुपयोग सब कर लेना।

 

हरिः हरः!!

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