के छलाह महर्षि दधीचि – कियैक अमर भेल हिनक नाम

महर्षि दधिचिक कथा जरुर पढि लेब

हिन्दू दर्शनक एक अविस्मरणीय पात्रः महर्षि दधीचि

– अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी (मूल – भारतकोश)

dadhichiदधीचि प्राचीन काल केर परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि छलाह। हुनकर पत्नीक नाम ‘गभस्तिनी’ छलनि। महर्षि दधीचि वेद शास्त्र आदिक पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव सँ बहुते दयालु छलाह। अहंकार तऽ हुनका छूबियो नहि पबैत छल। ओ सदिखन दोसरेक हित करब अपन परम धर्म बुझैत छलाह। हुनकर व्यवहार सँ ओहि वन केर पशु-पक्षी तक संतुष्ट छल, जतय ओ रहैत छलाह। गंगाक तट पर हुनकर आश्रम छलनि। जे कियो अतिथि महर्षि दधीचिक आश्रम पर अबैथ, स्वयं महर्षि तथा हुनकर पत्नी अतिथि केँ पूर्ण श्रद्धा भाव सँ सेवा करैत छलाह। एना त ‘भारतीय इतिहास’ मे कतेको दानी भेला अछि, मुदा मानव कल्याण केर लेल अपन अस्थि केर दान करयवला मात्र महर्षि दधीचि टा भेलाह। देवताक मुंह सँ ई जानिकय जे मात्र दधीचिक अस्थि सँ निर्मित वज्र द्वारा असुर केर संहार कैल जा सकैत अछि, महर्षि दधीचि अपन शरीर त्याग कय अस्थि केँ दान कय देलनि।

परिचय

लोक कल्याण केर वास्ते आत्म-त्याग करनिहार मे महर्षि दधीचिक नाम बड़ा आदर केर संग लेल जाएत अछि। यास्क केर मतानुसार दधीचिक माता ‘चित्ति’ और पिता ‘अथर्वा’ छलाह, ताहि लेल हुनकर नाम ‘दधीचि’ पड़ल छलनि। कोनो-कोनो पुराण केर अनुसार ओ कर्दम ऋषि केर कन्या ‘शांति’ केर गर्भ सँ उत्पन्न अथर्वाक पुत्र छलाह। अन्य पुराणानुसार ओ शुक्राचार्य केर पुत्र छलाह। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता केर प्रतिमूर्ति छलाह। भगवान शिव केर प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य मे हुनका जन्महि सँ निष्ठा छलन्हि।

कथा

कहल जाएत अछि जे एक बेर इन्द्रलोक पर ‘वृत्रासुर’ नामक राक्षस द्वारा अधिकार स्थापित कैल गेल आर इन्द्र सहित देवता लोकनि केँ देवलोक सँ निकालि देल गेल छल। सब देवता अपन व्यथा लऽ कय ब्रह्मा, विष्णु ओ महेश केर पास गेलाह, लेकिन कियो हुनका लोकनिक समस्याक निदान नहि कय सकलाह। बाद मे ब्रह्मा जी द्वारा देवता सब केँ एकटा उपाय बतायल गेल जे पृथ्वीलोक मे ‘दधीचि’ नाम केर एक महर्षि रहैत छथि। यदि ओ अपन अस्थि केँ दान कय दैथ तऽ ओहि अस्थि सँ एकटा वज्र बनायल जाय। ओहि वज्र सँ वृत्रासुर मारल जा सकैत अछि, कियैक तँ वृत्रासुर केँ आरो कोनो टा अस्त्र-शस्त्र सँ नहि मारल जा सकत। महर्षि दधीचि केर अस्थि टा मे ओ ब्रह्म तेज़ अछि, जाहि सँ वृत्रासुर राक्षस मारल जा सकैत अछि। एकर अलावे और कोनो दोसर उपाय नहि अछि।

इन्द्र केर संकोच

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि केर पास जाय नहि चाहैथ, कियैक तँ इन्द्र हुनका एक बेर अपमान कएने छलाह, जाहि कारण ओ दधीचिक पास जेबा सँ कतरा रहल छलाह। मानल जाएत अछि जे ब्रह्म विद्या केर ज्ञान पूरे विश्व मे केवल महर्षि दधीचि टा केँ छल। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति केँ एहि विद्याक ज्ञान देबय चाहैथ, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करबाक परम इच्छुक छलाह। दधीचि केर दृष्टि मे इन्द्र एहि विद्याक पात्र नहि छलाह। ताहि सँ ओ इन्द्र केँ ई विद्या केर ज्ञान देबा सँ मना कय देलनि। दधीचिक मना केलापर इन्द्र हुनका कोनो आरो व्यक्ति/देवता केँ ई विद्या देबा सँ रोक लगबैत कहि देलनि जे – “यदि अहाँ एना केलहुँ त हम अहाँक सिर धड़ सँ अलग कय देब”। महर्षि कहलखिन – “यदि हुनका कियो योग्य व्यक्ति भेटत तऽ ओ अवश्ये टा ब्रह्म विद्या ओकरा प्रदान करता।” किछु समय बाद इन्द्रलोके सँ अश्विनीकुमार महर्षि दधीचिक पास ब्रह्म विद्या लेबाक लेल पहुँचलाह। दधीचि केँ अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पेबा योग्य लगलाह। ओ अश्विनीकुमार केँ इन्द्र द्वारा कहल गेल बात कहलनि। तखन अश्विनीकुमार सेहो महर्षि दधीचि केँ अश्व केर माथ लगाकय ब्रह्म विद्या प्राप्त कय लेलनि। इन्द्र केँ जखन ई जनतब भेटलनि तऽ ओ पृथ्वीलोक मे एला आर अपन घोषणा अनुरूप महर्षि दधीचि केर सिर धड़ सँ अलग कय देलनि। अश्विनीकुमार तखन महर्षि केर असली सिर केँ फेर सँ लगा देलनि। इन्द्र तखन अश्विनीकुमार केँ इन्द्रलोक सँ निकालि देलखिन। यैह कारण छल कि आब इन्द्र महर्षि दधीचिक पास हुनक अस्थि केर दान माँगय लेल नहि आबय चाहैत छलाह। ओ ई कार्य केर लेल अत्यन्ते लज्जित होयबा समान बुझि रहल छलाह।

दधीचि द्वारा अस्थिक दान

देवलोक पर वृत्रासुर राक्षसक अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़िते जा रहल छल। ओ देवता सब केँ भांति-भांति सँ परेशान कय रहल छल। अन्ततः देवराज इन्द्र केँ इन्द्रलोक केर रक्षा व देवता सबहक भलाई वास्ते और अपन सिंहासन केँ बचेबाक लेल देवतादि सहित महर्षि दधीचि केर शरण मे जाइये पड़लनि। महर्षि दधीचि द्वारा इन्द्र केँ पूरा सम्मान देल गेलनि तथा आश्रम पहुँचबाक कारण पूछल गेलनि। इन्द्र द्वारा महर्षि केँ अपन सब व्यथा सुनायल गेलनि, तखन दधीचि कहलखिन जे – “हम देवलोक केर रक्षाक लेल कि कय सकैत छी।” देवता सब हुनका ब्रह्मा, विष्णु व महेश केर कहल गेल सब बात बतौलनि तथा हुनकर अस्थि केर दान मँगलनि। महर्षि दधीचि बिना कोनो हिचकिचाहट केँ अपन अस्थिकेँ दान देबय लेल स्वीकार कय लेलनि। ओ समाधि लगबैत अपन देह त्यागि देलनि। ताहि समय हुनक पत्नी आश्रम मे नहि छलीह। आब देवता सभक सोझाँ ई समस्या आयल जे महर्षि दधीचि केर शरीरक माँस केँ के उतारत। एहि कार्य केर ध्यान मे अबिते सब देवता सिहैर उठलाह। तखन इन्द्र कामधेनु गाय केँ बजौलनि आर हुनका सँ महर्षि केर शरीर सँ माँस उतारबाक लेल कहलनि। कामधेनु अपनी जीह सँ चाटि-चाटिकय महर्षिक शरीरक माँस उतारि देलनि। आब मात्र अस्थिक पिंजर टा रहि गेल छल।

गभस्तिनी केर जिद

महर्षि दधीचि त अपन देह देवताक भलाई लेल त्यागि देलनि, लेकिन जखन हुनक पत्नी ‘गभस्तिनी’ वापस आश्रम मे एलीह तऽ अपन पतिक देह केँ देखिकय विलाप करय लगलीह, आर सतीय होयबाक जिद्द करय लगलीह। तखन देवता सब हुनका बहुते मना केलनि, कियैक तऽ ओ गर्भवती छलीह। देवता सब हुनका अपन वंश केर वास्ते सती नहि होयबाक सलाह देलखिन। लेकिन गभस्तिनी नहि मनलीह। तखन सब कियो हुनका अपन गर्भ केँ देवता लोकनिकेँ सौंपबाक निवेदन केलनि। ताहि पर गभस्तिनी राजी भेलीह और अपन गर्भ देवता सब केँ सौंपिकय ओ स्वयं सती भऽ गेलीह। देवता सेहो गभस्तिनी केर गर्भ केँ बचेबाक लेल पिपर केँ ओकरा लालन-पालन करबाक दायित्व सौंपलनि। किछु समय बाद ओ गर्भ पोसाकय शिशु भेल तऽ पिपर द्वारा पालन पोषण करबाक कारण ओकर नाम ‘पिप्पलाद’ राखल गेल। यैह कारण दधीचि केर वंशज ‘दाधीच’ कहाएत छथि।
 

देवता सबहक विजय

इन्द्र ऋषि दधीचि केर अस्थि केँ लऽ कय विश्वकर्माक पास गेलाह। विश्वकर्मा द्वारा ओहि अस्थि सबसँ वज्र केर निर्माण कैल गेल आर इन्द्र केँ देल गेल। आब एक बेर फेर सँ देवता एवं दैत्य सबहक बीच मे भयंकर युद्ध भेल। हजारोंक संख्या में दैत्य, दानव, यक्ष आदि लड़बा लेल सामने आयल। मुदा ओहि वज्र सँ सब राक्षस और दानव मारल गेल। वृत्रासुर अपन त्रिशूल फेकलक और गदा सँ देवराज इन्द्र केर वाहन ऐरावत पर आक्रमण केलक। ऐरावत केर माथ पर चोट आयल, परंतु इन्द्र द्वारा अपन विद्या सँ ऐरावत केर माथेक चोट केँ ठीक कैल गेल। फेर वृत्रासुर पर आक्रमण केलनि। किछु समय बाद इन्द्र केर हाथ सँ छूटिकय वज्र युद्ध भूमि मे खैस पड़ल। वृत्रासुर बाजल − “जाहि तरहें अहाँ विश्वरूप केर सिर काटने रही, ओही तरहें हम अहाँक सिर काटिकय अपन भाइ केर बदला लेब। भूतनाथ पर अहाँक सिर केँ चढ़ायब।” इन्द्र कहालखिन – “युद्ध एक प्रकारका जुआ थीक। एहि मे प्राणक बाजी लगैत छैक। बाण पासाक काज करैत छैक आ वाहन चौसर थीक। ताहि कारण एहिमे ई पता नहि चलैत छैक जे के जीतत?” एवम् प्रकारेन इन्द्र वृत्रासुर केँ बात बझाकय मौका पाबि अपन वज्र उठा लेलनि आर वृत्रासुर केर सिर काटिकय ओकर इह लीला समाप्त कय देलनि। ओकरा मारल गेला पर देवता सब प्रसन्नता प्रकट करैत इन्द्र पर फूलक वर्षा केलनि। वृत्रासुर केर ज्योति ओकरा शरीर सँ निकलिकय भगवान मे लीन भ गेल।