मिरानिसे का जनजागरण का असर प्रदेश से केन्द्र तकः विचार
– प्रवीण नारायण चौधरी
पता ही है कि पिछले दो महीनों से सोशल मीडिया और यथार्थ राजनीतिक पटल पर पूरे भारत में मिथिला राज्य की औचित्य और माँग पर सभी कोई सोचने के लिये मजबूर हुए हैं। बड़े राजनीतिक दल हों या फिर छोटे-छोटे कार्यसमूहों में विभक्त सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हों, इन सभी ने २०१३-१४ के बाद फिर से मिथिला राज्य की आवश्यकता को स्वीकार करने लगे हैं।
बिहार ऐसे तो साझा संस्कृति, भाषा और धर्म का एक बेहतर कल्पना से बना राज्य था, परन्तु इसके बेईमान नेताओं और सत्ता-संचालकों ने आखिरकार साझा सम्पत्ति व प्रतिष्ठा को सरकारी माल समझकर लूटने के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं किये। और परिणाम सभी के सामने है, बिहार व बिहारी पूरे संसार में एक गाली बनकर रह गया है।
यहाँ के गरीब मजदूरों से ही देश निर्माण होता है, परन्तु उन्हें बिहारी कहकर कुत्तों की तरह रोटी पर पलते देख, झूग्गी-झोपड़ी में रहने के लिये मजबूर होते देख, बाकी राज्य के लोगों के नजर में अपमानजनक पहचान बनना स्वाभाविक ही है। थोड़े-बहुत लोग जो अपने साथ ‘बिहारी स्वाभिमान’ का बिल्ला लगाकर इधर-उधर भटकते नजर भी आ जाते हैं तो उन्हें गृहराज्य की चौपट और भ्रष्ट जातिवादी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती है, वो तो बस अपने ओहदा और भौतिक सुख की लालसा में खुद के स्वर्ण-लंका निर्माण ही धर्म मानते हैं, जीते-जीते मर जाते हैं, कहानी खत्म हो जाती है।
सच्चाई यह भी है कि बिहार में मिथिला का सबसे अधिक नुकसान हुआ है। जानकी प्राकट्यस्थली होते हुए भी यहाँ धार्मिक पर्यटनका अभीतक कोई विकास नहीं हुआ। जनक जैसे महान शिक्षक और संपूर्ण विश्व से चलकर यहाँपर लोगों द्वारा शिक्षा ग्रहण करने की परंपरा तो कब का नाश हुआ, अभी उलट धारा इस हद तक बहने लगा है जो यहाँ के लोगों द्वारा अपने बच्चों को समुचित शिक्षा देने के लिये करोड़ोंकी धनराशि दूसरे राज्यों को पलायन करती है। राज्य की व्यवस्था मे सुबह, दोपहर, शाम आदि पता नहीं कितना खराती खिचड़ी का व्यवस्था करने के नाम पर शिक्षकों को भी उसी में भ्रष्टाचार करते हुए कुछ अतिरिक्त आमदनी करने का मार्ग भर दिया गया है।
बाढका निदान – भूकम्प क्षेत्र होने के कारण भूकम्पनिरोधी मकान निर्माण – हिमालय से गंगाके बीच की तराई है तो पर्यावरणीय संरक्षण – जलविहार क्षेत्र – जल परिवहन – जल कृषि ना जाने ऐसे कितने सारे मौलिक और यथार्थ मुद्दे हैं जिसपर राज्य को निरंतर सोचते हुए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं से आगे विकास का मार्ग प्रशस्त करना था। यथार्थ प्रगति किसी से छुपी नहीं है। सड़क का निर्माण कार्य स्वतंत्रता के कई दसकों बाद विकासपुरुष कहलानेवाले नीतीश के जमाने में आकर सुधार तो पाया परन्तु फिर से अति राजनीति में हालात जस के तस दिखने लगे हैं। स्वास्थ्य के लिये तो राज्य आज भी बहरा और सोया हुआ ही दिखता है। जनस्वास्थ्य चौकी तक प्रत्येक पंचायत में स्थापित नहीं किया गया है। पेयजल की समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण किये जा रही है, लोगों में खतरनाक संक्रामक रोग घर करने लगे हैं। बिजली की व्यवस्था में भी पिछली सरकार ने प्रगति तो की है परन्तु इससे आत्मसंतोष हो ऐसा कुछ भी नहीं है। उद्योग और कल-कारखानों की हाल तो अंग्रेज के जमाने से भी बदतर हो गया है। सारे चीनी मिल और पेपर मिल बन्द पड़े हैं। नयी औद्योगिक नीति – राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण और उद्योग प्रवर्धन हेतु आवंटन का कार्य बियाडा के द्वारा शुरु तो किया गया है, परन्तु अभी तक इसका कहीं पर क्रान्तिकारी प्रभाव नजर नहीं आया है। खासकर मिथिलाक्षेत्रों में कहीं भी मेगा परियोजना सफल नहीं हो पायी है। राज्य इन सरोकारों पर सोये नजर आ रही है।
सौ बीमारी का एक इलाज – खुद का राज्य, खुद का सरोकार और खुद का विकास – यानि स्वराज्य का सिद्धान्त अनुरूप मिथिला को अलग राज्य के रूप मे स्थापित करना ही एकमात्र विकल्प उपरोक्त समस्याओं के समुचित निदान के लिये दिख रहा है। मिथिला राज्य निर्माण सेना बनाकर यहाँ के पढे-लिखे युवकों ने जो जनजागरण का प्रयास आरम्भ किया है वह यहाँ की जनताको अधिकारसंपन्न बनाने के लिये है। और इस अभियान का सकारात्मक रूप अब चौतर्फा दिखने भी लगा है। टार्गेट है २०१९ तक का। अगले चुनाव में इस मुद्दे पर हंगामा होना तय है। यहाँ के लोगों में जागृति आ गयी तो यथास्थितिवादी का खात्मा तय है। मिथिला राज्य बनाने के लिये लोग उठकर खड़े होने लगे हैं।