गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरन्तरता मे – आठम अध्याय मे अन्त जतय ध्यान रहत तेहने गति भेटत – एहि पाँति पर आधारित विभिन्न बाटक निरूपण भगवान् कएलनि आर अपन लोक केर प्राप्ति लेल सदैव हुनक भजन-सुमिरन-स्मरण मे रत रहबाक उपदेश केलनि अछि। तेकर बाद नवम अध्याय….)
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ नवमोऽध्याय:
नवम अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर सँ प्रकाशित गीता टीका “साधक संजीवनी” पर आधारित ]
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १॥
श्रीभगवान् कहलखिन—ई अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित अहाँ वास्ते हम फेरो बढियां जेकाँ कहब, जेकरा जानि लेलाक बाद अहाँ अशुभ सँ अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार सँ मुक्त भऽ जायब।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥ २॥
ई (विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् समग्ररूप) सम्पूर्ण विद्या केर राजा और सम्पूर्ण गोपनीय केर राजा थीक। ई अति पवित्र तथा अति श्रेष्ठ अछि और एकर फलो प्रत्यक्ष अछि। ई धर्ममय अछि, अविनाशी अछि और करय मे बहुत सुगम अछि अर्थात् एकरा प्राप्त करब बहुत सुगम अछि।
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥ ३॥
हे परन्तप! एहि धर्मक महिमापर श्रद्धा नहि रखय-वाला मनुष्य हमरा प्राप्त नहि भऽ कय मृत्युरूप संसार केर मार्ग मे लौटि अबैत रहैत अछि अर्थात् बेर-बेर जन्मैते-मरैते रहैत अछि।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥ ४॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥ ५॥
ई सब संसार हमर निराकार स्वरूप सँ व्याप्त अछि। सम्पूर्ण प्राणी हमरहि मे स्थित अछि; परन्तु हम ओहि सब मे स्थित नहि छी तथा ओ प्राणी सेहो हमरा मे स्थित नहि अछि—हमर एहि ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य)-केँ देखू। सम्पूर्ण प्राणी केँ उत्पन्न करयवाला और प्राणी सबहक धारण, भरण-पोषण करयवाला हमर स्वरूप ओहि प्राणी सब मे स्थित नहि अछि।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥ ६॥
जेना सब जगह विचरयवाली महान् वायु नित्य रूप सँ आकाश मे स्थित रहैत अछि, तहिना सम्पूर्ण प्राणी हमरहि मे स्थित रहैत अछि—एना अहाँ मानि लियऽ।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ ७॥
हे कुन्तीनन्दन! कल्प केर क्षय भेलापर (महाप्रलयक समय) सम्पूर्ण प्राणी हमरे प्रकृति केँ प्राप्त होएत अछि और कल्पकेर आरम्भ मे (महासर्ग केर समय) हम फेर सँ ओकरा सभक रचना करैत छी।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥ ८॥
प्रकृतिक वश मे भेला सँ परतन्त्र भेल एहि सम्पूर्ण प्राणिसमुदायक (कल्पक आदिमे) हम अपन प्रकृति केर वश मे कय केँ बेर-बेर रचना करैत छी।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥ ९ ॥
हे धनंजय! ओहि (सृष्टि-रचना आदि) कर्म मे अनासक्त और उदासीन केर समान रहैते हमरा ओ कर्म नहि बान्हैछ।
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥ १०॥
प्रकृति हमर अध्यक्षता मे चराचरसहित सम्पूर्ण जगत केर रचना करैत अछि। हे कुन्तीनन्दन! यैह कारण सँ जगत् केर (विविध प्रकारसँ) परिवर्तन होएत रहैछ।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ ११॥
मूर्ख लोक हमर सम्पूर्ण प्राणी केर महान् ईश्वररूप श्रेष्ठभाव केँ नहि जनैते हमरा मनुष्यशरीर केर आश्रित मानिकय अर्थात् साधारण मनुष्य मानिकय हमर अवज्ञा करैत अछि।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥ १२॥
जे आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति केर मात्र आश्रय लैत अछि, एहेन अविवेकी मनुष्य केर सब आशा व्यर्थ होएत अछि, सब शुभकर्म व्यर्थ होएत अछि और सब ज्ञान व्यर्थ होएत अछि अर्थात् ओकर आशा, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देमयवाला नहि होएछ।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥ १३॥
परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिक आश्रित अनन्यमनवाला महात्मा लोक हमरा सम्पूर्ण प्राणीक आदि और अविनाशी बुझिकय हमरहि भजन करैत अछि।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥ १४॥
नित्य-निरन्तर हमरहि मे लागल रहल मनुष्य दृढ़व्रती बनिकय लगनपूर्वक साधन मे लागल रहैत और प्रेमपूर्वक कीर्तन करैते तथा हमरहि नमस्कार करैते निरन्तर हमर उपासना करैत अछि।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥ १५॥
दोसर साधक ज्ञानयज्ञ केर द्वारा एकीभाव सँ (अभेदभावसँ) हमर पूजन करैत हमर उपासना करैत अछि और दोसरो कतेको साधक (अपना केँ) पृथक् मानिकय चारू तरफ मुंहवाला हमर विराट्-रूप केर अर्थात् संसार केँ हमर विराट्-रूप मानिकय सेव्य-सेवक भाव सँ हमर अनेक प्रकार सँ उपासना करैत अछि।
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥ १६॥
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥ १७॥
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ १८॥
क्रतु हम छी, यज्ञ हम छी, स्वधा हम छी, औषध हम छी, मन्त्र हम छी, घृत हम छी, अग्नि हम छी और हवनरूप क्रिया सेहो हमहीं छी। जानबा योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद सेहो हमहीं छी। एहि सम्पूर्ण जगत् केर पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज सेहो हमहीं छी।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ १९॥
हे अर्जुन! (संसार केर हित केर लेल) हमहीं सूर्यरूप सँ तपैत छी, हमहीं जल केँ ग्रहण करैत छी और (फेर ओहि जल केँ हमहीं) वर्षारूप सँ बरसा दैत छी। (और तऽ कि कही) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् सेहो हमहीं छी।
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्-नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥ २०॥
तीनू वेद मे कहल गेल सकाम अनुष्ठान केँ करनिहार और सोमरस केँ पीबनिहार जे पापरहित मनुष्य यज्ञ केर मार्फत (इन्द्ररूप सँ) हमर पूजन कय केँ स्वर्गप्राप्तिक प्रार्थना करैत अछि, ओ (पुण्य केर फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोक केँ प्राप्त कय केँ ओतय स्वर्गक देवतादिक दिव्य भोग सब केँ भोगैत अछि।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं-
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना-
गतागतं कामकामा लभन्ते॥ २१॥
ओ ओहि विशाल स्वर्गलोक केर भोग सब केँ भोगिकय पुण्य क्षीण भेलापर मृत्युलोक मे आबि जाएत अछि। एहि प्रकार सँ तिनू वेद मे कहल गेल सकाम धर्मक आश्रय लैत भोग केर कामना करयवाला मनुष्य आवागमन केँ प्राप्त होएत अछि।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ २२॥
जे अनन्य भक्त हमर चिन्तन करैत हमरा खूब नीक सँ उपासना करैत अछि, हमरहि मे निरन्तर लगैत अछि, ओहि भक्त केर योगक्षेम (अप्राप्तक प्राप्ति और प्राप्तक रक्षा) हम वहन करैत छी।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥ २३॥
हे कुन्तीनन्दन! जे कोनो भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवतादिक पूजन करैत अछि, ओहो हमरहि पूजन करैत अछि, मुदा करैत अछि अविधिपूर्वक अर्थात् देवतादि केँ हमरा सँ भिन्न मानैत अछि।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥ २४॥
कियैक तँ सम्पूर्ण यज्ञ केर भोक्ता और स्वामी सेहो हमहीं छी; मुदा ओ हमरा तत्त्व सँ नहि जनैत अछि, ताहि सँ ओकर पतन होएत छैक।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रता:।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥ २५॥
(सकामभाव सँ) देवतादिक पूजन करनिहार (शरीर छोडलापर) देवतादि केँ प्राप्त होएत अछि। पितर केर पूजन करनिहार पितरादि केँ प्राप्त होएत अछि। भूत-प्रेतक पूजन करनिहार भूत-प्रेतादि केँ प्राप्त होएत अछि। परन्तु हमर पूजन करनिहार हमरे प्राप्त होएत अछि।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥ २६॥
जे भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-केँ प्रेमपूर्वक हमरे अर्पण करैत अछि, ओ हमरहि मे तन-मन सँ लागल अन्त:करणवाला भक्त केर द्वारा प्रेमपूर्वक देल गेल उपहार (भेंट, चढावा)-केँ हम खा लैत छी अर्थात् स्वीकार कय लैत छी।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ २७॥
हे कुन्तीपुत्र! अहाँ जे किछु करैत छी, जे किछु भोजन करैत छी, जे किछु यज्ञ करैत छी, जे किछु दान दैत छी और जे किछु तप करैत छी, ओ सब हमरे अर्पण करू।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥ २८॥
एहि प्रकारें (हमरा अर्पण केला सँ) कर्मबन्धन सँ और शुभ (विहित) आर अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्म केर फल सँ अहाँ मुक्त भऽ जायब। एना अपनासहित सब किछु हमरे अर्पण करनिहार और सब सँ सर्वथा मुक्त भेल अहाँ हमरा प्राप्त भऽ जायब।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥ २९॥
हम सम्पूर्ण प्राणी सब मे समान छी। (ओहि प्राणी सब मे) नहि तऽ कियो हमर द्वेषी अछि आर नहिये कियो प्रिय अछि। मुदा जे प्रेमपूर्वक हमर भजन करैत अछि, ओ हमरहि मे अछि आर हम ओकरहि मे छी।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥ ३०॥
अगर कियो दुराचारियो-सँ-दुराचारी पर्यन्त अनन्यभक्त बनिकय हमर भजन करैत अछि तऽ ओकरा साधुए मानबाक चाही। कारण जे ओ निश्चय बहुते बढियां जेकाँ कय लेने अछि।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥ ३१॥
ओ तत्काल (ओही क्षण) धर्मात्मा बनि जाएत अछि आर निरन्तर रहयवाली शान्ति केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि। हे कुन्तीनन्दन! हमर भक्तक पतन नहि होएछ—एना अहाँ प्रतिज्ञा करू।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥ ३२॥
हे पृथानन्दन! जे कियो पापयोनिवाला हो तथा जे भी स्त्रिी, वैश्य और शूद्र हो, ओहो सर्वथा हमर शरण अबैछ ओ नि:सन्देह परमगति केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ ३३॥
जे पवित्र आचरण करयवाला ब्राह्मण और ऋषि-स्वरूप क्षत्रिय भगवान् केर भक्त हो, (ओ परमगति केँ प्राप्त भऽ जाय) एहि मे तऽ कहबाके कि अछि! ताहि लेल एहि अनित्य और सुखरहित शरीर केँ प्राप्त कय केँ अहाँ हमर भजन करू।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ ३४॥
अहाँ हमर भक्त बनि जाउ, हमरे मे मनवाला बनि जाउ, हमर पूजा करयवाला बनि जाउ और हमरे नमस्कार करू। एहि तरहें अपना-आपकेँ हमरा संग लगाकय हमरे परायण भेल अहाँ हमरा अवश्य टा प्राप्त होयब।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम
नवमोऽध्याय:॥ ९॥