कविता
– विजय इस्सर ‘वत्स’
नकल भरल जग (२५-६-२०१६)
केकरा देखब नकल भरल जग, देखब तँ किछु सुच्चा देखू
स्वार्थ मे बान्हल सभ संबंधी, निश्चल कोरक बच्चा देखू ।
भद्र लोक केर जियब कठिन भेल, मूक-बधिर भेल घर में बैसल
डकैतक राजमे चोर सिपाही, सभठाँ लोफर-लुच्चा देखू ।
ज्ञान- बुद्धि आ परिश्रमें की, पाओब आब मान-सम्मान
चमचा भक्तक माथे टांगल, पुरस्कार केर गुच्छा देखू ।
कीनल डिग्री, घूस सँ नौकरी, गरीबक छै बुत्ते कत्ते
पैरबीक सींग साहेबक नाड़रि, नेता केर पुच्छी आ पुच्छा देखू।
लोक मरओ वा देश ई बूड़ौ, नेता के दूनु हाथे लड्डू
चिक्कन भाषण में –फंसाक’ देलक केहन गच्चा देखू।
‘वत्स’ मृत्यु सँ आर ड’र नैञ, एहि जीवनमे तिल-तिल मरल
लड़िते रहब साँस जखन धरि, पहिरन सदिखन कच्छा देखू ।