विचार आलेख
– डा. देवेश कुमार ठाकुर, काशी (मूलः सीतामढी)
भारत एक बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवादी देश है, इसमें निवास करने वाले असंख्य लोग अलग-अलग रीती-रिवाजों, भाषा, संस्कृति को मानने वाले है। हज़ारों भिन्नताएं होने के पश्चात् भी सबमें एक भावनात्मक एकता हमेशा विद्यमान रही है।
इन अलग-अलग भाषाओँ का उत्थान प्राचीन काल से ही पल्लवित होता रहा है। अनेकों राजाओं-रजवाड़ों ने अपने-अपने क्षेत्र में कला-संस्कृति और भाषाओँ का संपोषण कर उन्हें विकसित किया। चक्रवर्ती सम्राटों के काल में भी अलग-अलग क्षेत्रों के विद्वानों को हमेशा संरक्षण प्राप्त होता रहा।
लोकतंत्र और आजादी मिलने के बाद से देश का नया भविष्य लिखा जाने लगा। संविधान बनाकर अभी तक लगभग 22 भाषाओँ को 8वीं अनुसूची में डाला गया है। किंतु स्वार्थपूर्ण राजनीतिवश इसमें कही-कही घोर पक्षपात भी हुआ है। जो भाषा जिस क्षेत्र समूह द्वारा बोली और लिखी जाती है उनका दो प्रकार का आरोप लगता है, पहला कि उनको संघ भाषा सूची में शामिल किया जाये और दूसरा जो पहले से शामिल है उनके विकास और संवर्धन के नाम पर क्षेत्रीय असंतुलन। उदहारण स्वरुप भोजपुरी भाषी लोग, मारवाड़ी भाषी लोग अपनी भाषा को संविधान की अनुसूची में डालने पर जोर दे रहे है वहीं दूसरी तरफ अनुसूची में शामिल मैथिलि, डोगरी, संथाली और नेपाली भाषा का विकास अन्य समानान्तर भाषाओँ जैसे- बंगाली, मलयालम, तमिल, तेलुगु की तुलना में कम होने या निष्प्राणित होने जैसा हो गया है।
ऐसा क्यों है कि कुछ भाषाएं इस बदलते परिदृश्य में भी अपने-आप को न सिर्फ बचाएँ हुए है वरन उनका महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ ही रहा है, वही दूसरी तरफ कई भाषाएं अपना वजूद खो रही है।
इसका सटीक उत्तर, भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन होने में मिलता है। जिन राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है वो अपनी कला-संस्कृति को भी बचाये हुए है, उदहारण के लिए तमिल बोलने वालों के लिए तमिल, मलयालम-केरल, मराठी-महाराष्ट्र, बंगाली-बंगाल, गुजराती-गुजरात, कन्नड़-कर्नाटक और अनेकों भाषाएं है। भाषा के विकसित और शक्तिशाली होने के पीछे राज्यसत्ता का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि प्राचीन काल के राजाओं से लेकर नवगठित लोकतान्त्रिक भाषायी राज्यों के निर्माण से संस्कृतिपरक मूल्यों के विकास में राज्यसत्ता एक प्रमुख कारक रही है। प्रत्येक राज्य अपने भाषा-संस्कृति के संरक्षण और संपोषण में सक्रिय योगदान देती है, इसलिए वे विकसित रूप में है। वही दूसरी ओर ऐसे राज्य है जहाँ भाषा कई है और संरक्षण किसी का नहीं हो पाता, या यूँ कहे जिस भाषा का नेता उसी भाषा का संपोषण।
भाषा का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर, समाज पर, और हमारी संस्कृति पर पड़ता है। भाषा के लोप होने से संस्कृति का लोप हो जाता है, इसे अधिकतर विद्वान मानते है। आज अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश भी अपनी स्वयं की संस्कृति न होने के कारण दिग्भ्रमित है, जिसका प्रभाव उसे आर्थिक नुकसान झेलकर उठाना पड़ता है। कॉपी/चोरी की हुई संस्कृति का तमगा अमेरिका के मस्तक पर चिपका हुआ है, तथा वहां आर्थिक उन्नति की अधिकतम सीमा पार कर लेने पर भी सांस्कृतिक आत्मविश्वास का घोर अभाव झलकता है।
हमारे देश में केंद्र स्तर पर भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए जो प्रयास किये जाते है वह नाकाफी है। उस स्तर पर सभी भाषाओँ को एक-समान देखा जाता है, क्योंकि वो नहीं चाहते की भाषाओँ का पक्ष लेने से भाषायी समूहों में वैमनस्यता फैले। भाषायी राज्यों के निर्माण से उन्हें अपनी भाषा को संरक्षण देने की खुली छूट मिल जाती है, किन्तु राज्य न होने से उन भाषा वर्ग को भारी उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
भाषा का प्रभाव सिर्फ संस्कृति के संरक्षण भर तक सिमित नहीं रहता, वरन यह देखा गया है कि जिन राज्यों की भाषा और संस्कृति में एकरूपता है वह राज्य भारत में अग्रणी राज्य के रूप में स्थापित है। वही उत्तर प्रदेश और बिहार ऐसे राज्य है जहाँ किसी एक भाषा का प्रभाव न होने से पिछड़े राज्यों में गणना होती है। व्यक्ति का आत्मविश्वास और आत्मगौरव उसकी भाषा-संस्कृति एवं उनके द्वारा दिए गए मूल्यों और परम्पराओं से निर्मित होता है। कई लोगों को आपने कहते हुए सुना होगा कि अमुक राज्य में भाषा के प्रति लोग बहुत कठोर है या लचीले नहीं है, असल में वह कठोरता नहीं बल्कि अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति अगाध लगाव के कारण ऐसा है। जहाँ की भाषा और संस्कृति निष्प्राण हो जाती है वहां पर निवास करने वाला व्यक्ति और समाज भी निष्प्राणित हो जाता है साथ ही खीज में बाकी भाषा और संस्कृति पर नकारात्मक प्रहार करने लगता है, ऐसा करना राष्ट्रीय एकात्मकता के लिए खतरा भी बन जाता है। जो व्यक्ति और समाज अपनी संस्कृति और परम्परा खो चुका होता है वह दूसरे व्यक्ति या समाज के प्रति अनुदार होने के साथ कभी भला नहीं सोच सकता। मैं कई युवाओं से मिला जो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बहुसंख्य आबादी वाले राज्यों से आते है, इनमे अधिकतर लोग स्वनिन्दा के शिकार है और यह तेजी से फैल रहा है। आत्मनिन्दा एक भयानक कैंसर है जो राज्य और संघ दोनों के लिए घातक है। ऐसे लोग जब दूसरे देशों में कही जाते है तो भारत देश की बुराई करते है, दूसरे राज्यों में जाते है तो अपने राज्य की बुराई करते है, राज्य स्तर पर एक जिले से दूसरे जिले की बुराई करते है और विश्वासहीन नाकामी का तुलनात्मक बखान करते है। यह आत्मनिन्दा स्वयं की भाषा संस्कृति के नष्ट होने या उसका गलत ज्ञान होने तथा आत्मविश्वास की कमी से आते है।
अतः राजनीतिक नेतृत्व इन भाषा वर्गों को चिन्हित कर जरुरत के हिसाब से राज्य का पुनर्गठन करें। मैथिलि भाषी के लिए मिथिला, भोजपुरी भाषी के लिए उनके अनुरूप राज्य इत्यादि। ऐसी भाषा या बोलियां जो बहुत कम संख्या द्वारा बोली जाती है या स्थानीय है उनको जिले स्तर पर संरक्षित कर स्वायत्ता मिलनी चाहिए। इससे उनकी भाषा और परंपरा को सहेजने में मदद मिलेगी तथा युवाओं और नयी पीढ़ी में अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम भी बढ़ेगा। भाषा रोजगार एवं नवाचार का ससक्त माध्यम बनेगी, साथ ही आत्मगौरव से परिपूर्ण ये भाषायी संस्कृतियां एक राष्ट्र के आत्मगौरव को भी बढाने का कार्य करेगी।