ईश्वर केर सतत स्मरण सँ अन्त मे मुक्ति सुनिश्चित अछि

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

gita krishna(निरंतरता मे – अध्याय ७ मे भगवान् भक्तिक विभिन्न रूप केर चर्चा करैत केना हुनका देखल जा सकैत अछि, के हुनका प्राप्त कय सकैत अछि, भक्त कतेक प्रकार होएत अछि… तेकर बाद अध्याय ८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

श्रीमद्भगवद्गीता

अथ अष्टमोऽध्याय:

आठम अध्याय

[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर सँ प्रकाशित गीता टीका “साधक संजीवनी” सँ ]

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ १॥

अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥ २॥

अर्जुन कहलखिन — हे पुरुषोत्तम! ई ब्रह्म कि थीक? अध्यात्म कि थीक? कर्म कि थीक?अधिभूत केकरा कहल गेल अछि? और अधिदैव केकरा कहल जाएत अछि? एतय अधियज्ञ के अछि? और ओ एहि देहमे कोना अछि? हे मधुसूदन! वशीभूत अन्त:करणवाला मनुष्य केर द्वारा अन्तकाल मे अहाँ कोना चिन्हय मे अबैत छी?

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित:॥ ३॥

श्रीभगवान् कहलखिन — परम अक्षर ब्रह्म थीक और परा प्रकृति (जीव)-केँ अध्यात्म कहल जाएत अछि। प्राणी केर सत्ता केँ प्रकट करनिहार त्याग कर्म कहल जाएत अछि।

अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ ४॥

हे देहधारी सब मे श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत थीक, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव छथि और एहि देह मे (अन्तर्यामी-रूपसँ) हमहीं अधियज्ञ थिकहुँ।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ ५॥

जे मनुष्य अन्तकाल मेे सेहो हमरे स्मरण करैत शरीर छोड़िकय जाएत अछि, ओ हमरे स्वरूप केँ मात्र प्राप्त होएत अछि, एहि मे सन्देह नहि छैक।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥ ६॥

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मनुष्य अन्तकाल मे जाहि-जाहि तरहक भाव केँ स्मरण करैते शरीर छोड़ैत अछि, ओ ओहि (अन्तकालक) भाव सँ सदा भावित होएत ओहि-ओहि टा केँ मात्र प्राप्त होएत अछि अर्थात् ताहि-ताहि योनि मे चलि जाएत अछि।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

म्य्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्  ॥ ७॥

तैँ अहाँ सब समय मे हमर स्मरण करू और युद्ध सेहो करू। हमरहि मे मन और बुद्धि अर्पित करयवाला अहाँ नि:सन्देह हमरे टा प्राप्त होयब।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥ ८॥

हे पृथानन्दन! अभ्यासयोग सँ युक्त और अन्य केँ चिन्तन नहि करयवाला चित्त सँ परम दिव्य पुरुष केर चिन्तन करैते (शरीर छोडऩिहार मनुष्य) ओही केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।

कविं पुराणमनुशासितार-

मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-

मादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥ ९॥

जे सर्वज्ञ, अनादि, सबपर शासन करयवाला, सूक्ष्म सँ अत्यन्त सूक्ष्म, सबहक धारण-पोषण करयवाला, अज्ञानसँ अत्यन्त परे, सूर्यक समान प्रकाश-स्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप — एहेन अचिन्त्य स्वरूपक चिन्तन करैत अछि।

प्रयाणकाले मनसाचलेन

भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्-

स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ १०॥

ओ भक्तियुक्त मनुष्य अन्तसमय मेंअचल मन सँ और योगबल केर द्वारा भृकुटीक मध्य मे प्राण केँ बढियां जेकाँ प्रविष्ट कय केँ (शरीर छोडलापर) ओहि परम दिव्य पुरुष केँ मात्र प्राप्त भऽ जाएत अछि।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति

विशन्ति यद्यतयो वीतरागा:।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ ११॥

वेदवेत्ता लोक जेकरा अक्षर कहैत छथि, वीतराग यति जेकरा प्राप्त करैत अछि और साधक जेकरा प्राप्त करबाक इच्छा करैते ब्रह्मचर्य केर पालन करैत अछि, ओ पद हम अहाँ वास्ते संक्षेप सँ कहब।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ १२॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ १३॥

(इन्द्रियकेर) सम्पूर्ण दरबाजा केँ रोकिकय मन केँ हृदय मे निरोध कय केँ और अपन प्राण केँ मस्तक मे स्थापित कय केँ योगधारणा मे सम्यक् प्रकार सँ स्थित भेल जे साधक ‘ॐ’ एहि एक अक्षर ब्रह्म केर (मानसिक) उच्चारण और हमर स्मरण करैते शरीर केँ छोड़िकय जाएत अछि, वैह परम गति केँ प्राप्त होएत अछि।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ १४॥

हे पृथानन्दन! अनन्य चित्तवाला जे मनुष्य हमर नित्य-निरन्तर स्मरण करैत अछि, ओहि नित्य-निरन्तर हमरहि मे लागल रहल योगी केर वास्ते हम सुलभ छी अर्थात् सुलभता सँ प्राप्त भऽ जाएत छी।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ १५॥

महात्मा सब हमरा प्राप्त कय केँ दु:खालय अर्थात् दु:ख केर घर और अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलयवाला पुनर्जन्म केँ प्राप्त नहि होएछ; कियैक तँ ओ परम सिद्धि केँ प्राप्त भऽ गेल रहैछ अर्थात् ओकरा परम प्रेम केर प्राप्ति भऽ गेल रहैछ।

आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ १६॥

हे अर्जुन! ब्रह्मलोक धरि सब लोक पुनरावर्तीवाला होएछ अर्थात् ओतय गेलापर फेर सँ लौटिकय संसार मे आबय पड़ैत छैक; मुदा हे कौन्तेय! हमरा प्राप्त भेलापर पुनर्जन्म नहि होएछ।

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ १७॥

जे मनुष्य ब्रह्मा केर एक हजार चतुर्युगीवाला एक दिन केँ और एक हजार चतुर्युगीवाली एक रात्रि केँ जानैत अछि, ओ मनुष्य ब्रह्माक दिन और राति केँ जाननिहार होएछ।

अव्यक्ताद्-व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥

ब्रह्माक दिन केँ आरम्भकाल मे अव्यक्त (ब्रह्माक सूक्ष्मशरीर)-सँ सम्पूर्ण शरीर पैदा होएत अछि और ब्रह्माक रातिक आरम्भकाल मे ओहि अव्यक्त नामवाला (ब्रह्माक सूक्ष्मशरीर)-मे मात्र सम्पूर्ण शरीर लीन भऽ जाएत अछि।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥ १९॥

हे पार्थ! वैह एहि प्राणिसमुदाय उत्पन्न भऽ-भऽ कय प्रकृतिक परवश रहैत ब्रह्माक दिन केर समय उत्पन्न होएछ और ब्रह्माक रात्रिक समय लीन होएत अछि।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ २०॥

परन्तु ओहि अव्यक्त (ब्रह्माक सूक्ष्मशरीर)-सँ अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप जे अव्यक्त (ईश्वर) छथि, ओ सम्पूर्ण प्राणी केर नष्ट भेलाक बादो नष्ट नहि होएत छथि।

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ २१॥

ओही अव्यक्त और अक्षर लेल — एना कहल गेल अछि आर ओकरे परम गति कहल गेल अछि और जेकरा प्राप्त भेलापर जीव फेर लौटिकय संसार मे नहि अबैछ, ओ हमर परम धाम थीक।

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥

हे पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जेकर अन्तर्गत अछि और जेकरा सँ ई सम्पूर्ण संसार व्याप्त अछि, वैह परम पुरुष परमात्मा तँ अनन्यभक्ति सँ प्राप्त होबय योग्य छथि।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ २३॥

परन्तु हे भरतवंशी सब मे श्रेष्ठ अर्जुन! जाहि समय अर्थात् मार्ग मे शरीर छोड़िकय गेल योगी अनावृत्ति केँ प्राप्त होएछ अर्थात् पाछू घूरिकय नहि अबैछ आर जाहि मार्ग मे गेल ओ आवृत्ति केँ प्राप्त होएछ यानि फेर सँ घूरिकय अबैछ, ओहि काल (समय) केँ अर्थात् दुनू मार्ग केँ हम कहैत छी।

अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ २४॥

जाहि मार्ग मे प्रकाशस्वरूप अग्नि केर अधिपति देवता, दिन केर अधिपति देवता, शुक्लपक्ष केर अधिपति देवता और छ: महीनावाला उत्तरायणक अधिपति देवता छथि, ओहि मार्ग सँ शरीर छोड़िकय गेनिहार ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहिले ब्रह्मलोक केँ प्राप्त होएछ पाछाँ ब्रह्माक संग) ब्रह्म केँ प्राप्त भऽ जाएत छथि।

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥ २५॥

जाहि मार्ग मे धूमकेर अधिपति देवता, रात्रि केर अधिपति देवता, कृष्णपक्ष केर अधिपति देवता और छ: महीनावाला दक्षिणायनक अधिपति देवता छथि, शरीर छोड़िकय ओहि मार्गसँ गेनिहार योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाक ज्योति केँ प्राप्त भऽ कय घूरि अबैत छथि अर्थात् जन्म-मरण केँ प्राप्त होएत छथि।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥ २६॥

कियैक तँ शुक्ल और कृष्ण—ई दुनू गति अनादिकाल सँ जगत् (प्राणिमात्र)-केर संग सम्बन्ध रखनिहारि मानल गेली अछि। एहि मे सँ एक गति मे जायवाला केँ लौटय नहि पड़ैत अछि और दोसर गति मे जायवाला केँ फेरो लौटय पड़ैत अछि।

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ २७॥

हे पृथानन्दन! यैह दुनू मार्ग केँ गेनिहार कोनो टा योगी मोहित नहि होएछ। अतः हे अर्जुन! अहाँ सब समय मे योगयुक्त (समता मे स्थित) बनि जाउ।

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव

दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा

योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥

योगी (भक्त) एकरा (एहि अध्याय मे वर्णित विषय केँ)जानिकय वेद मे, यज्ञ मे, तप मे तथा दान मे जे-जे पुण्यफल कहल गेल अछि, वैह सबटा पुण्यफल केँ अतिक्रमण कय जाएत अछि और आदि-स्थान परमात्मा केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्याय:॥ ८॥