सृष्टि मे नीक-बेजा दुनू बातः अहाँक रुचि कि से अहींके हिसाब

आइ थीक महाकवि तुलसीदास केर जन्म जयन्ति - पढू विशेष संस्मरण

आइ थीक महाकवि तुलसीदास केर जन्म जयन्ति - पढू विशेष संस्मरण

स्वाध्याय केर महत्व सर्वविदित अछि, विगत किछु समय सँ रामचरितमानस मे महाकवि तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त संस्कार – मंगलाचरण केर माध्यम सँ जेना व्यक्त कैल गेल अछि ताहि पर चर्चा करैत आबि रहल छी। एहि सँ पूर्व मे भगवान्, गुरु, ब्राह्मण-संत आ खल वन्दना पर चर्चा कय चुकल छी। आइ चर्चा करब संत-असंत वन्दनापरः

संत-असंत वंदना

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
आब हम संत और असंत दुनुक चरणक वन्दना करैत छी, दुनु बड दुःख देनिहार छथि, मुदा ओहिमे किछु अन्तर कहल गेल अछि। ओ अंतर यैह अछि जे एक (संत) तऽ बिछैड़ते समय प्राण हैर लैत छथि और दोसर (असंत) भेटिते साथ बहुते दारुण दुःख दैत छथि। (अर्थात्‌ संत केर बिछुड़ब मरन समान दुःखदायी होएछ और यैह हाल असंत केर मिलन सँ होएत अछि।)॥2॥
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
दुनु (संत और असंत) जगत मे एक्के संग पैदा होएत छथि, लेकिन (एक्के संथ पैदा भेनिहार) कमल और जोंक केर समान हुनका लोकनिक गुण अलग-अलग होएछ। (कमल दर्शन और स्पर्श सँ सुख दैत अछि, मुदा जोंक शरीर केर स्पर्श पबिते रक्त चूसय लगैत अछि।) साधु अमृत केर समान (मृत्यु रूपी संसार सँ उबारयवाला) और असाधु मदिरा केर समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करयवाला) होएत छथि, दुनुक उत्पन्न करनिहार जगत रूपी अगाध समुद्र एक्के टा अछि। (शास्त्र मे समुद्रमन्थने सँ अमृत और मदिरा दुनुक उत्पत्ति कहल गेल अछि।)॥3॥
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
भला आ बद (बुरा) अपन-अपन करनी केर अनुसार सुंदर यश और अपयश केर सम्पत्ति पबैत अछि। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग केर पापक नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करनिहार व्याध, एकर गुण-अवगुण सब कियो जनैत अछि, मुदा जेकरा जेहेन रुचि होएत छैक, ओकरा वैह नीक लगैत छैक॥4-5॥
दोहा :
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
भला लोक भलाई टा ग्रहण करैता अछि और नीच नीचता टा ग्रहण करैत रहैत अछि। अमृत केर सराहना अमर करबा मे होएत छैक और विष केँ मारबा मे॥5॥
चौपाई :
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
दुष्टक पाप और अवगुण केँ तथा साधु सबहक गुणक कथा – दुनू टा अपार और अथाह समुद्र थीक। एहि सँ किछु गुण और दोष केर वर्णन कैल गेल अछि, कियैक तँ बिना पहिचान केने ओकरा ग्रहण करब या त्याग करब संभव नहि भऽ सकैछ॥1॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
भला-बुरा सबटा ब्रह्माक पैदा कैल थीक, लेकिन गुण और दोष केर विचार करैत वेद ओकरा अलग-अलग कय देलक अछि। वेद, इतिहास और पुराण कहैत अछि जे ब्रह्माक एहि सृष्टि मे गुण-अवगुण दुनू सानल अछि॥2॥
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-राति, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ई सबटा पदार्थ ब्रह्माक सृष्टि मे अछि।) वेद-शास्त्र सब एकर गुण-दोष केर विभाग कय देने अछि॥3-5॥
दोहा :
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
विधाता द्वारा एहि जड़-चेतन विश्व केँ गुण-दोषमय रचल गेल अछि, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल केँ छोड़िकय गुण रूपी दूध मात्र केँ ग्रहण करैत अछि॥6॥
चौपाई :
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
विधाता जखन एहि तरहक (हंस जेकाँ) विवेक दैत छथि, तखन दोष केँ छोड़िकय मन गुण मे अनुरक्त होएत अछि। काल स्वभाव और कर्म केर प्रबलता सँ भले लोक (साधु) सेहो मायाक वश मे भऽ कहियो-कभार भलाई सँ चूकि जाएत छथि॥1॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भगवान केर भक्त जेना ओहि चूक केँ सुधारि लैत छथि और दुःख-दोष केँ मेटाकय निर्मल यश दैत छथि, तेनाही दुष्ट सेहो कहियो-कहियो उत्तम संग पाबिकय भलाई करैत अछि, मुदा ओकर कहियो भंग नहि होमयवला मलिन स्वभाव नहि मेटाएत छैक॥2॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
जे (वेषधारी) ठग अछि, ओकरो नीक (साधु जेकाँ) वेष बनायल देखिकय वेषहि केर प्रताप सँ जगत पूजैत अछि, लेकिन एक न एक दिन ओ अपन असली रंग मे आबिये टा जाएत अछि, अंत तक ओकर कपट नहि निमहैत छैक, जेना कालनेमि, रावण और राहु केर हाल भेल॥3॥
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
खराबो वेष बना लेलापर साधु केर सम्माने होएत छैक, जेना जगत मे जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी केँ भेलनि। बद (खराब) संगत सँ हानि और भला संगत सँ लाभ होएत छैक, ई बात लोक और वेद मे प्रसिद्ध अछि आर सब लोक ई जनैत अछि॥4॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
पवन केर संग सँ धूरा आकाश पर चैढ़ जाएत अछि और वैह नीच (नीचाँ दिस बहयवाला) जल केर संग सँ थाल-कीचड़ मे मिल जाएत अछि। साधु केर घरक तोता-मैना राम-राम सुमिरैत अछि और असाधु केर घरक तोता-मैना गानि-गानिकय गाइर दैत अछि॥5॥
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
कुसंग केर कारण धुआँ कारिख कहाएछ, वैह धुआँ (सुसंग सँ) सुंदर रोशनाइ (स्याही) बनिकय पुराण लिखबाक काज मे अबैछ और वैह धुआँ जल, अग्नि और पवन केर संग सँ बादल बनिकय जगत केँ जीवन देनिहार (बरखा) बनि जाएत अछि॥6॥

दोहा :

ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र – ई सब सेहो कुसंग और सुसंग पाबिकय संसार मे बुरा आ भला पदार्थ बनि जाएत अछि। चतुर एवं विचारशील पुरुष टा एहि बात केँ बुझि पबैत छथि॥7 (क)॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥

महीनाक दुनू पख मे उजियाला आ अन्हरिया समाने रहैछ, मुदा विधाता एकर नाम मे भेद कय देलनि अछि (एक केर नाम शुक्ल और दोसर केर नाम कृष्ण राखि देलनि)। एक केँ चन्द्रमाक बढ़ाबयवाला और दोसर केँ ओकरा घटाबयवाला बुझिकय जगत द्वारा एकटा केँ सुयश और दोसर केँ अपयश देल जाएछ॥7 (ख)॥