विचार
– प्रवीण नारायण चौधरी
जानकी जी ने आह्वान किया है कि मेरे पिता का राज्य ‘मिथिला राज्य’ वापस लाओ, फिर देश की प्रगति देख लो। जिस भारत को मिथिला के विद्वानों-दार्शनिकों ने इतना सम्मान और दीर्घकालीन पहिचान दिलाया, आज वही मिथिला यदि अपने पहिचान की विशिष्टता के लिये रोता रहे तो फिर भारत की शानोसौकत में इजाफा कैसे संभव होगा। तुम देख ही रहे होंगे कि मिथिला आज किस तरह दो देशों में सुगौली संधि के कारण बँट गया। चलो, दोनों देश में बँटा तो दोनों देशों में इसे राज्य के रूप में स्थापित करो, फिर दोनों में प्रगति और विकास होना तय है। शापित स्थिति में तुम्हारा विकास भला कैसे हो सकता है?
मनन करने योग्य बात है – राजा जनक भी सूर्यवंशी इक्ष्वाकु कुल के निमि के संतान मिथि का राज्य मिथिला के नरेश थे। इनके राज्यों में ब्राह्मणों (गौतम, याज्ञवल्क्य आदि) के साथ-साथ आज के दलित और महादलित कहलानेवाले डोम-दुसाध-चमार के घर भी मणि-माणिक्य का ढेर रहा करता था, वे इतने संपन्न थे। इनकी संपन्नता को विभिन्न कवियों ने अपने कविताओं में विशेषता के साथ गाया है। तुलसीदास ने तो रामचरितमानस में यहाँ तक कह दिया है कि उस समय के तिरहुत को देखकर देवलोक का राजा इन्द्र भी मोहित हो गये थे।
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥
भावार्थ:-उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥4॥
तो क्या हो गया जनक के मिथिला को जो आज कई वर्षों से यहाँ पर दरिद्रा ताण्डव करे जा रही है? कभी महाप्रलयंकारी बाढ के चपेट में आना तो कभी भयानक सूखे की मार से त्राहिमाम मच जाना…. कौन है यहाँ का वर्तमान सत्ता-संचालक जिसमें इतनी भी सिद्धि नहीं कि वो इसे फिर से जनक की मिथिला की तरह संपदाओं से संपन्न कर दे?
यथार्थतः मिथिला पर गैर-विदेहों का शासन आज कई सैकड़ों वर्षों से चल रहा है। उन्हें यहाँ की सम्पन्नता से कोई लेना-देना नहीं है, वो तो बस जनक की मिथिला को वगैर जाने-बुझे यहाँ की कुछेक ऊँची जाति के लोगों के हाथों निलाम कर रखा है। यहाँ की मृदुल-मधुर भाषा मैथिली जो आज विभिन्न बोलियों (अंगिका, बज्जिका, ठेंठी आदि) सहित अपनी बहुआयामी और बहुस्वीकार्यता को प्रमाणित करके भी खुद के सृजनशील शिल्पकारों के साथ समृद्ध रूप में जीवित है, लाखों राजकीय षड्यन्त्र के बावजूद वो निरंतर अपने चमक-दमक से दुनिया भर में अपनी विशालता को स्थापित कर रही है, इस भाषा को भी आखिरकार ये सत्ता पर कब्जा जमानेवाले कुत्सित मानसिकता के धनी राजनीति करनेवालों ने उन्हीं खास ऊँचे जातियों का अधिकृत सम्पत्ति मानकर कूप्रचार कर रही है, जबकि यह भाषा आज भी यहाँ की आम जनमानस की प्राकृतिक वाणी में समाहित है। यह सभी कूकार्य भारत स्वतंत्र होने के बाद लगभग सात दसक बीत जाने के बाद भी नहीं रुक पाया है, बल्कि यह दिन-ब-दिन बढते ही जा रहा है। जनक-जानकी के घोर दुश्मन अपने जालों में यहाँ की मृदुल भोली-भाली जनता को फाँसते ही जा रहे हैं, केवल अपना सत्ताभोग का सुख को कायम रखने के लिये उनके द्वारा डाले गये चाराओं में यहाँ की जनता फँसती ही जा रही है।
उम्मीद है कि मिथिला राज्य निर्माण सेना के द्वारा उठाया गया आवाज अब भी अपने जमीन पर रह रहे तथा जमीन से जुड़े हुए लोगों के भावना में जानकी का आह्वान और ऊपर वर्णित जमीनी हकीकत को उजागर कर पायेगी। इस महाभारत युद्ध में मिथिलापुत्र अर्जुन बनकर अपने श्रेष्ठ विचारकों एवं सहयोगियों को कृष्णकी तरह समझ आदर करते हुए कौरवों पर जीत हासिल कर सकेंगे। इस युद्ध में सभी को जुड़ना होगा जो अपने जीवन का महत्व और मिथिला में जन्म का अर्थ से वाकिफ हैं, वरना यह जीवन अधूरा और घोर कलिकाल की मायामें ही उलझकर रह जायेगी।
हरिः हरः!!