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भगवान् के छथि – कोना जानब भगवान् केँः गीता

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
 
gita krishna(निरंतरता मे….. योग, योगी, भगवान् केर दर्शनक क्षमता होयब, भगवान् सेहो केकरा पर दृष्टि रखैत छथि, अर्जुनक प्रश्न जे मन चंचल रहत तऽ योग कोना संभव होयत, भगवानक जबाब जे मन बिना स्थिर केने योग संभव नहि, पुनः मन स्थिर करबाक लेल निरंतर अभ्यास आर वैराग्य केर उपाय बतेनाय…. आउ आब गीताक सबसँ महत्वपूर्ण अध्याय – भक्ति योग पर भगवान् केर वचनामृत पढी-गुनी…. अध्याय ७ मे)
 
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 
श्रीमद्भगवद्गीता
 
अथ सप्तमोऽध्याय:
 
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर सँ प्रकाशित गीता टीका “साधक संजीवनी” सँ ]
 
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १॥
 
श्रीभगवान् कहलखिन — हे पृथानन्दन! हमरहि मे आसक्त मनवाला, हमरहि आश्रित भऽ कय योग केर अभ्यास करैते अहाँ हमर जाहि समग्ररूप केँ नि:सन्देह जाहि प्रकार सँ जानब, ओकरा (ओही प्रकारसँ) सुनू।
 
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ २॥
 
अहाँ लेल हम ई विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णता सँ कहब, जेकरा जानि गेलाक बाद फेर एहि विषय मे जानबा योग्य आन (किछुओ) शेष नहि रहत।
 
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ ३॥
 
हजारो मनुष्य मे कियो एक सिद्धि (कल्याण)-केर लेल यत्न करैत अछि और ओहि यत्न करनिहार सिद्ध (मुक्त पुरुष)-मे कियो एक्कहि टा हमरा यथार्थरूप सँ जानैत अछि।
 
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ ४॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ ५॥
 
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (—ई पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि तथा अहंकार—एहि प्रकार ई आठ प्रकारक भेदवाली हमर ई अपरा प्रकृति अछि; और हे महाबाहो! ई अपरा प्रकृति सँ भिन्न जीवरूप बनल रहल हमर परा प्रकृति केँ जानू, जेकरा द्वारा ई जगत् धारण कैल जाएत अछि।
 
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥ ६॥
 
सम्पूर्ण प्राणी केँ उत्पन्न होयबा मे अपरा और परा—यैह दुनु प्रकृति केर संयोग मात्र कारण थीक—एना अहाँ बुझू। हम सम्पूर्ण जगत् केर प्रभव तथा प्रलय छी।
 
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ ७॥
 
ताहि सँ हे धनंजय! हमर सिवाय (एहि जगत् केर) दोसर कियो किंचिन्मात्र सेहो (कारण तथा कार्य) नहि अछि। जेना सूतकेर मणि सूतकेर धागा मे गाँथल रहैत अछि, तेनाही ई सम्पूर्ण जगत् हमरहि मे मात्र ओत-प्रोत अछि।
 
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥ ८॥
 
हे कुन्तीनन्दन! जल मे रस हम छी, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) हम छी, सम्पूर्ण वेद मे प्रणव (ओंकार), आकाश मे शब्द और मनुष्य मे पुरुषत्व हम छी।
 
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥ ९॥
 
पृथ्वी मे पवित्र गन्ध हम छी और अग्नि मे तेज हम छी तथा सम्पूर्ण प्राणी मे जीवनीशक्ति हम छी और तपस्वि सब मे तपस्या हम छी।
 
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥ १०॥
 
हे पृथानन्दन! सम्पूर्ण प्राणी केर अनादि बीज हमरहि जानू। बुद्धिमान मे बुद्धि और तेजस्वी मे तेज हम छी।
 
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥ ११॥
 
हे भरतवंशी सब मे श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानो सब मे काम और राग सँ रहित बल हमहीं छी और प्राणियो सब मे धर्म सँ अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम हमहीं छी।
 
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥ १२॥
(और तऽ कि छी—) जतेको सात्त्विक भाव अछि और जतेको राजस तथा तामस भाव अछि, ओहो सबटा हमरहि सँ होएत अछि—एना ओकरा बुझू। परन्तु हम ओहिमे आर ओ हमरा मे नहि अछि।
 
क्रमशः……
 
हरिः हरः!!

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