आध्यात्मिक चिन्तन तथा जीवनशैली: गुरु वंदना सँ सीख
रामचरितमानस केर लोकप्रियता सँ सब कियो परिचित छीहे। एतय हम महाकवि तुलसीदास द्वारा एहि रचनाक पूर्व मे जाहि शालीनता सँ भूमिका बान्हल गेल अछि तेकर किछु दृष्टान्त राखि रहल छी।
हमर मान्यता अछि जे मिथिला मे सृजनशील लेखकक कमी नहि। एहि वर्ष हम सब १०० लेखक द्वारा १०० पोथी लिखल जाय, ओकर प्रकाशन हो आ मैथिलीक बाजार-विस्तार होएत ई संसारक हरेक कोण मे पहुँचय जतय तक मैथिल आइ रोजी-रोटीक खोजी मे पहुँचि गेल छथि। एहि महान कार्य मे सिद्धि हेतु महाकवि तुलसीदास सँ प्रेरणा पेबाक लेल अपन जीवन मे साक्षात् अनुभूति कैल लाभ केँ मैथिली भावानुवादक संग हम राखि रहल छी।
गुरु वंदना
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
ई सोरठा थीक। एकरा पुनः सही क्रम मे उच्चारण एना कैल जायः
कृपा सिंधु नररूप हरि, बंदउँ गुरु पद कंज।
जासु बचन रबि कर निकर, महामोह तम पुंज॥५॥
हम ओहि गुरु महाराज केर चरणकमल केर वंदना करैत छी, जे कृपाक समुद्र आ नररूप मे स्वयं श्रीहरि छथि, आर जिनकर वचन महामोहरूपी घनगर अन्हार केँ नाश करयवला सूर्यक किरण-समूह थीक।
चौपाई : (चौपाई पढबाक भाव सदैव चारू लब्धि प्राप्ति करबाक समान बुझैत मनन करब, अर्थ, धर्म, काम आ मोक्ष)
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
हम गुरु महाराज केर चरणकमल केर रज (धुलकण) केर वन्दना करैत छी, जे सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस सँ पूर्ण अछि। ओ अमर मूल (संजीवनी जड़ी) केर सुंदर चूर्ण थीक, जे सम्पूर्ण भव रोग केर परिवार केँ नाश करय वाला अछि॥1॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
ओ रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी केर शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति थीक और सुंदर कल्याण एवं आनन्द केर जननी थीक, भक्त केर मन रूपी सुंदर दर्पण केर मैल केँ दूर करयवाली और तिलक कएला सँ गुण केर समूह केँ वश मे करय वाली थीक॥2॥
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज केर चरण-नख केर ज्योति मणि केर प्रकाशक समान होएछ, जेकर स्मरण करिते हृदय मे दिव्य दृष्टि उत्पन्न भऽ जाएत अछि। ओ प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार केँ नाश करयवाला होएछ, ओ जेकर हृदय मे आबि जाएत अछि, ओकर बड़ पैघ भाग्य होएछ॥3॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
जेकर हृदय मे अबिते देरी हृदय केर निर्मल नेत्र खुजि जाएत अछि और संसार रूपी रात्रि केर दोष-दुःख मेटा जाएत अछि एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जतय जे कोनो खदान मे रहैछ, सबटा देखाय लगैत अछि-॥4॥
दोहा :
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
जेना सिद्धांजन केर नेत्र मे लगाकय साधक, सिद्ध और सुजान पर्वत, वन और पृथ्वी केर अंदर कौतुक सँ मात्र बहुते तरहक खजाना सब देखैत छथि॥1॥
चौपाई :
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज केर चरण केर रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन थीक, जे नेत्र केर दोष केँ नाश करयवला होएछ। ओहि अंजन सँ विवेक रूपी नेत्र केँ निर्मल कय केँ हम संसाररूपी बंधन से छोड़ेनिहार श्री रामचरित्र केर वर्णन करैत छी॥1॥