जानकी
– प्रवीण नारायण चौधरी
अपनहि माया सृजित ओ देवी
जनकक यज्ञ सँ प्रकट भेली,
मथल भूमि मिथिला केर अंगना
मैथिली सिया जानकी कहेली!!
रूप कुमारि सुबोध बालिका
माय सुनयना संग भेली,
उठा धनुष बस बाम हाथ सँ
घर भगवतीक निप देली!!
अपनहि माया…..
पिता जनक मायो आ परिजन
देखि देवि केर ई लीला,
सोचि लेलनि जे धनुष भंग कर
हुनकहि संग हेतनि बिहा!!
अपनहि माया….
विश्वामित्रक संग घुमय लऽ
राम लखन दुहु भाइ एला,
विधक विधान जे विश्व पछाडि
रामहि शिव केर धनुष तोड़ला!!
अपनहि माया…..
भेल पुष्प वर्षा सब देवता
आबि जनकपुर शुभ बेला,
सिया राम चारु बहिन-भाई
जुड़बन्धन में बन्हा गेला!!
अपनहि माया…..
भेल अयोध्या कांड राम केँ
चौदह वर्ष भेटलनि वनवास,
पति रहता वनवास कहू कि
सीता राजमहल कोन आस!
अपनहि माया…..
एक सुकुमारी राजकुमारी
पतिक संगहि वन गमन केली,
छोड़ि राजसुख सर्वधर्म अन्य
पतिव्रता एक धर्म धेली!
अपनहि माया….
केहेन कठिन छल वन केर जीवन
संग राम पुरुषोत्तम छथि,
लखन वीर दियर अवतारी
स्वयं शेष जे रक्षक छथि!
अपनहि माया….
थीक सब लीला हमरे अहाँ लेल
बुझु धरा केर नर नारी,
जीवन केर सुख दुःख दुनु थीक
हँसिकय सहू ई नीति भारी!
अपनहि माया…..
महाबिपत्ति केर फाँस में सीता
रावण सन अपहरणकारी,
नहि हारल निज स्वत्व नजरियो
राखल निष्ठा दुःख सहैत भारी!
अपनहि माया….
अंत सदा जीतय बस सत्ये
तहिना राम केर बल भारी,
मारल हारल दम्भ अहंकार
राक्षस रावण गण मारी!
अपनहि माया….
रामहु केँ जँ प्रजाके चिन्ता
त्यागल सीता पतिव्रत नारी,
पोसि कोखि लव-कुश रामक सुत
सिद्ध केली निज कर्म करी!
अपनहि माया….
बेर आबि गेलय ई लीला
अंत करब सुनु नर-नारी,
पति परमेश्वर बात न बुझलनि
जाएब नैहर जतय सँ एली!
अपनहि माया…..
गाबथि कविगण सिया चरित केँ
जिनकर जेहेन भाव सुनु,
हमर सभक बस भर एक सीता
सतति जपी सियाराम कही!
अपनहि माया….
हे जगज्जननी, हे मिथिला धिया
एक बेर फेरो सिद्ध करू,
पिता जनक चारू बहिनक संगहि
फेरो मैथिली रूप धरू!
अपनहि माया….
हरिः हरः!!