गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥ ११॥
शुद्ध भूमि जाहिपर (क्रमश:) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछायल अछि, जे न खूबे ऊँचे अछि आर नहिये बेसी नीचें, तेहेन अपन आसन केँ स्थिर स्थापित कयकेँ..
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ १२॥
ओहि आसनपर बैसिकय चित्त आर इन्द्रियक क्रिया सब केँ वश मे रखैत मन केँ एकाग्र कयकेँ अन्त:करणक शुद्धिक लेल योग केर अभ्यास करय।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ १३॥
काया, सिर आर गला केँ सीधा अचल धारण कयकेँ तथा दिशा सब केँ नहि देखिकय केवल अपन नासिकाक अग्रभाग केँ देखैत स्थिर भऽ कय बैसय।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:॥ १४॥
जेकर अन्त:करण शान्त छैक, जे भयरहित अछि और जे ब्रह्मचारिव्रत मे स्थित अछि, एहेन सावधान ध्यानयोगी मन केर संयम कयकेँ हमरे मे चित्त लगबैत रहैत हमर परायण भऽ कय बैेसय।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ १५॥
वशमे कय चुकल मनवाला योगी मन केँ एहि तरह सँ सदैव (परमात्मामे) लगबैत रहैत हमरहि मे सम्यक् स्थितिवाली जे निर्वाणपरमा शान्ति अछि, तेकरा प्राप्त भऽ जाएत अछि।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ १६॥
हे अर्जुन! ई योग नहि तँ बेसी खायवालाक आर नहिये एकदम्मे नहि खायवालाक एवं नहिये बेसी सूतयवालाक आर नहिये एकदम्मे नहि सुतयवाला टा के सिद्ध होएत अछि।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ १७॥
दु:ख केर नाश करयवला योग तऽ यथायोग्य आहार एवं विहार करयवलाक, कर्म सब मे यथायोग्य चेष्टा करयवलाक तथा यथायोग्य सूतय आर जागयवलाक मात्र सिद्ध होएत अछि।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ १८॥
वश मे कैल जा गेल चित्त जाहि समय मे अपन स्वरूप मे मात्र स्थित भऽ जाएछ आर स्वयं सम्पूर्ण पदार्थों सँ नि:स्पृह भऽ जाएछ, ताहि समय मे ओ योगी थीक — एहेन कहल गेल अछि।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥ १९॥
जेना स्पन्दनरहित वायुक स्थान मे स्थित दीपकक लौ चेष्टारहित भऽ जाएत अछि, योगक अभ्यास करैते वश मे कैल गेल चित्तवाला योगीक चित्त केँ तेहने उपमा कहल गेल अछि।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ २०॥
योगक सेवन कएला सँ जाहि अवस्था मे निरुद्ध चित्त उपराम भऽ जाएत अछि तथा जाहि अवस्था मे स्वयं अपना-आपसँ अपना-आपकेँ देखैते अपनहि-आपमे सन्तुष्ट भऽ जाएत अछि।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ २१॥
जे सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य अछि, ओहि सुख केँ जाहि अवस्था मे अनुभव करैत अछि और जाहि सुख मे स्थित भेल ओ ध्यानयोगी तत्त्व सँ फेर कहियो विचलित नहि होएत अछि।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥ २२॥
जाहि लाभ केर प्राप्ति भेलापर ओहि सँ बेसी कोनो दोसर लाभ ओकर मानब मे सेहो नहि अबैछ, आर ओहि मे स्थित भेलापर ओ बड भारी दुःख सँ सेहो विचलित नहि कैल जा सकैत अछि।
तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ २३॥
जाहि मे दु:ख केर संयोगे केर वियोग छैक, ओकरे ‘योग’ नाम सँ जानबाक चाही। (वैह योग जाहि ध्यानयोग केर लक्ष्य थीक), वैह ध्यानयोगक अभ्यास बिना अगुतायल चित्त सँ निश्चयपूर्वक करबाक चाही।
हरिः हरः!!