दहेज मुक्त मिथिला केँ समर्पित एक कविता
– साभार अरविन्द झा केर संकलन, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी
एक कवि नदीक कछेर पर ठाढ!
तखनहि बहैत देखैछ एगो लड़कीक लाश…
नदी मे हेलैत जा रहल छल।
तऽ ओ कवि ओहि लाश सँ पूछैछ —-
के छी अहाँ हे सुकुमारी,
बहि रहल छी नदीक जल मे ?
कियो तऽ होयत अहाँक अपन,
मानव निर्मित एहि भू-तल मे !
कोन घर केर बेटी थिकहुँ अहाँ,
कोन क्यारी केर कली छी अहाँ ?
के एना अहाँ केँ छल केलक बाजू,
कियैक दुनिया छोड़ि चललहुँ अहाँ ?
केकर नाम केर मेंहदी बाजू,
हांथ सब पर रचल अछि अहाँक ?
बाजू केकर नाम केर टिकली,
मांथा पर लगौने छी अहाँ ?
लागैत छी अहाँ राजकुमारी,
या देव लोक सँ आयल छी ?
उपमा रहित ई रूप अहाँक,
ई रूप कतय सँ आनल छी ?
……….
दोसर दृश्य—-
कवि केर बात सुनिकय
लड़कीक आत्मा बजैत अछि…
कवी राज हमरा क्षमा करू,
गरीब पिताक बेटी छी !
तैँ मृत माछ जेकाँ,
जल धारा पर पड़ल छी !
रूप रंग और सुन्दरता टा,
हमर पहिचान बताबैत अछि !
कंगना, चूड़ी, टिकली, मेंहदी,
सुहागिन हमरो बनाबैत अछि !
पिता केर सुख केँ सुख बुझलहुँ,
पिता केर दुख मे दुखी छलहुँ !
जीवन केर एहि मूक बाट पर,
पति केर संग चलल छलहुँ !
पति केँ हम तऽ दीपक बुझलहुँ,
हुनकहि इजोतक हम टेमी छलहुँ !
माता-पिता केर साथ छोड़ि
हुनकहि रंग मे ढलल छलहुँ !
मुदा ओ निकलला एक सौदागर,
लगा देलनि हमरो जे मोल !
दौलत और दहेज़ केर खातिर
पिया देलनि जल मे विष घोल !
दुनिया रुपी एहि उपवन मे,
छोट सनक एक कली छलहुँ !
जेकरे हम माली बहुझलहुँ,
ओकरे द्वारा छलल गेलहुँ !
ईश्वर सँ आब न्याय मांगय,
शव शैय्या पर पड़ल छी हम !
दहेज़ केर लोभी ई संसार मे,
दहेज़ केर भेंट चढल छी हम !
दहेज़ केर भेंट चढ़ल छी हम !!