संस्थाएं हज़ार नेता भरमार समाज बीमार
– करुणा झा, राजविराज, नेपाल। (समाजसेवी, लेखिका एवं संचारकर्मी)
निगाहें क़हर को गुलशन नज़र आता है वीराना
निगाहे मेहर वीराने में गुलशन देख लेती है
समाज भले ही निरंतर पतनशील हुआ जा रहा हो, समाज में आडंबर, कुरीति, कुसंस्कार और कुप्रथा सर चढ़ कर बोल रहा हो, राजनीति के नक़्शे कदम पर चलकर सामाजिकता की गर्दन तोड़ी जा रही हो मगर संप्रति सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की बाढ़ देखकर ऐसा भ्रम होता है कि सामाजिकता और धार्मिकता की जड़ें मज़बूत हुई जा रही हैं.
सामाजिक- धार्मिक संस्था का दावा करनेवाली संस्थाओं, यहाँ तक कि फेसबुक और अन्य सोशल साईट कही जानेवाले माध्यम में भी, के ढेरों विज्ञापन निरंतर यह भ्रम पैदा करते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है और धार्मिकता तथा सामाजिकता प्रगति पथ पर अग्रसर है. लोगों में सामाजिक चेतना का विकास हो रहा है और धर्म समाज को एकसूत्र में बाँध रहा है.
सामाजिक संस्थाओं के आयोजनों में भले आयोजक भीड़ को तरसें मगर धार्मिक आयोजन में भजन के साथ भोजन का आनंद लेने जब लोग दल के दल पहुंचते हैं तो नज़ारा देखने लायक होता है. फ़िल्मी धुनों पर बन रहे अश्लील गीतों की पैरोडी पर निर्लज्ज तरीके से नाचते आज के युवक-युवतियों को देखना नरक में विचरण करने जैसा कष्टदायी अनुभव देता है. आधुनिकता की लहर में भजन अब भजन नहीं रहे फिल्मी व्यंजन बन चुके हैं. फ़िल्मी धुनों पर गीत की मधुरता कामुकता की हदें पार कर रही हैं. फिर एक नया आयाम जुड़ा है गीत के साथ नृत्य का. आजकल धर्मगुरु भी अपने प्रवचन की शुरुआत फिल्मी धुनों पर आधारित गीत और नृत्य से करते हैं ताकि प्रवचन के रूप में उनके बकबास को लोग गंभीरता से लेने की स्थिति में न रहें.
हमारी परंपरागत शास्त्रीयता, लोकगीतों की समृद्ध परम्परा एवं सुमधुर संगीत की बेमिसाल रिवायत को पीछे छोड़ नयी पीढी ने जिन गीतों को चुना है उनमें और कुछ भी हो भक्तिभावना तथा मानसिक शांति प्रदान करने वाली शब्दावली तो बिलकुल ही नहीं है. इन दिनों प्रसाद भी प्रतीकात्मक नहीं रहा. वह छप्पनभोग का रूप ले चुका है. प्रसाद के परिमाण और भीड़ से कार्यक्रम की सफलता सुनिश्चित होती है.
प्रवचन और धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की भीड़ अधिक होती है. लोगों की हिन्दू देवी-देवताओं में अभी भी आस्था है. तिरुपति बालाजी, खाटू श्याम, श्री राणी सती दादी झुंझुनू, सालासर हनुमान जी, नाथद्वारा, वृंदावनसहित सभी तीर्थों में लोग खूब जा रहे हैं. आजकल तो सरकार भी धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने पर तुली है और सारे नियम-क़ानून को ताक पर रखकर लोगों को पूरी शिद्दत से मनमानी करने की छूट दी जा रही है ताकि वे धर्म के फंदे में फंसे रहे और अपने अधिकारों की बात भूलकर भी न करें.
अभी-अभी केरल के एक मंदिर में जो कुछ हुआ जिसमें 100 से अधिक श्रद्धालु भगवान को प्यारे हो गए उसके बारे में भी यही पता चला कि पुलिस ने वहाँ पटाखा न छोड़ने की हिदायत दी थी पर धर्मपागल अक्ल के दुश्मनों को इससे क्या पड़ी है? उन्हें तो अपने धर्म की रक्षा करनी है चाहे वह जानलेवा ही क्यों न साबित हो?
आजकल पूजा-अर्चना की विधियों एवं प्रसाद में विविधता आ रही है. कई तीर्थों में चढ़ावे की रकम को लेकर रिकार्ड बन रहे हैं. लेकिन सामाजिक क्षेत्र की स्थिति बिल्कुल अलग है. यहाँ मंच पर आसीन होने की मारामारी है. कई बार तो मंचासीन नेताओं की तुलना में दर्शक और श्रोता कम देखे जाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है बेजमीन, बेज़मीर नेता आखिर समाज को क्या विचार देंगे?
जबसे फेसबुक प्रचलन में आया है तबसे तो जैसे संस्थाओं की सुनामी आ गई लगता है. फेसबुक को दफ्तर के नियमानुसार उपयोग में लानेवाले भी बहुत हैं जो किसी खास व्यक्ति या संस्था यहाँ तक कि राजनीतिक विचारधारा के लिए समर्पित रूप से काम करते हैं और अपने विरोधी को अपशब्दों के तीर से ऐसे बिंधते हैं कि यदि विरोधी में तनिक भी भद्रता बची हो तो वह अपना सा मुंह लेके खिसक ले. इसमें विजयीभाव का तो पूछिए मत. गाली देनेवाले को जग जीतने जैसा स्वर्गीय सुख मिलता है. वह अपने आका को अपनी बहादुरी दिखाकर पुरस्कृत भी होता है. पिछले दिनों आपने भी इसका अनुभव किया होगा जब कई अपशब्द के कारीगरों को भारत के सर्वश्रेष्ठ सेवक के हाथों पुरस्कृत किया गया था.
ऐसे ही कई सालों से देख रहा हूँ कि मिथिला को लेकर फेसबुक पर चर्चाओं का बाज़ार हमेशा गर्म रहता है. सैकड़ों संस्थाएं सिर्फ फेसबुक पर विराजमान हैं. सबके अपने नियम-कायदे हैं और सबकी अपनी विचारधारा भी. मगर जमीनी पकड़ एक की भी नहीं. मिथिलांचल से दूर बैठे ये शब्दवीर सिर्फ शब्दों की कहर बरपाकर अलग मिथिला राज्य का सुख पाने को बेताब हैं. इनके आपसी झगड़े भी फेसबुक पर खूब प्रशंसित होते हैं जिसे लाइक और कमेंट की संख्या से जांचकर अगली रणनीति तय होती है.
मुझे ताज्जुब होता है कि इतनी समृद्ध सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत के रखवाले मैथिल कैसे अपनी पहचान के लिए परमुखापेक्षी हैं. भारत की ऋषि परंपरा हो या साधक परंपरा, ज्ञान-विज्ञान के अनुसंधानी हों या साहित्यानुरागी, न्यायविद हों या व्याकरणाचार्य सभी क्षेत्रों में जिस क्षेत्र ने एक से बढकर एक विभूति दिए हों उस क्षेत्र के युवा जब सामान्य जीवन यापन की शर्तों पर अपना ज़मीर गिरवी रख देते हैं तो क्षोभ के साथ साथ क्रोध भी जाग उठता है.
ऐसा कहने के पीछे यथार्थ कारण है क्योंकि मैंने अनुभव किया है कि फेसबुक के अपशब्द कारीगरों में बहुत बड़ी संख्या मिथिलांचल क्षेत्र के होनहारों की है जिनको यह भ्रम है कि वे देशभक्ति का अनूठा प्रयोग कर रहे हैं जो नितांत ही निंदनीय कृत्य है. ऐसे लोगों के लिए मुझे ये शेर प्रासंगिक लगता है:
मलबूस(पहनावा) खुशनुमा है मगर खोखले हैं ज़िस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दूकान पर
एक ओर धार्मिक आयोजनों में भीड़ बढ़ रही है दूसरी ओर समाज में व्यभिचार और पापाचार की मात्रा लगातार उठान पर है. धर्म की आड़ में कुकर्म के किस्से आम हो गए हैं. आपसी प्रेम के उदाहरण पुस्तकों में पढ़ने को मिलते हैं. कुछ अपवाद जरुर हैं पर अपवाद तो अपवाद ही है. विरोधाभास में जी रहे समाज की ऐसी परिणति को देखकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह एक सहज, सरल, स्वाभिमानी समाज की तस्वीर है?
जहां तक मेरा अनुभव है मुझे यह लगता है कि समाज अपने लक्ष्य से कहीं दूर भटक गया है. सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की बाढ़ जरुर सतह पर दिखती है मगर तहकीकात करके देखेंगे तो पायेंगे कि अधिकाँश संस्थाएं कतिपय चेहरों की नुमाइश मात्र है. सब स्वघोषित नेता हैं. नेता बनने के लिए संस्थाएं बन रही हैं. दो-चार चाटुकार साथ हैं तो नेतागिरी का जलवा है. इनके समक्ष न कोई दृष्टि है, न दिशा और न ही कार्य योजना. समाज के युवा वर्ग का बड़ा हिस्सा इन दिनों धार्मिकता के नशे में चूर है. पहले भी चंदा माँगने की प्रवृति थी मगर तब चंदे की रकम से स्कूल. कॉलेज, अस्पताल, दातव्य चिकित्सालय, धर्मशाला आदि का निर्माण होता था. 19 वीं और 20 वीं सदी में चंदे की रकम से समाज के पुरोधाओं ने जो सामाजिक स्थापत्य बनाए उस पर आज भी पूरे देश को गर्व है.
सामाजिक क्षेत्र में आज जो भयावह स्थिति है उसकी कल्पना तक मेरे मन में नहीं थी. आज जो सामाजिक नेता हैं वे विचारशून्य और अव्यवहारिक हैं. वे समाज की कीमत पर अपना प्रचार कर रहे हैं. धन का प्रदर्शन अहम हो गया है. आडंबर की चकाचौंध में सामाजिकता दब गई है. आबरू बचाने में आबरू लुट रही है.
महसूस ये होता है ये दौर-ए-तबाही है
शीशे की अदालत है पत्थर की गवाही है
दुनिया में कोई ऐसा तफ्सील नहीं मिलता
सिपाही ही लूटेरा है क़ातिल ही सिपाही है
आज के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को चाहिए कि वे कम से कम अतीत के उन महापुरुषों से सबक लें, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का अनुसरण करें तथा ऐसी योजनायें हाथ में लें जिससे समाज की छबि चमके. दूरदर्शी सोच के साथ दीर्घकालीन योजनायें ही आम आदमी का खोया विश्वास लौटा सकती है और सामाजिक क्षेत्र में नवजागरण का शंखनाद हो सकता है.