गाछी वृक्ष लगेबाक चाही
चढल बैसाख प्रचण्ड भेल धाही
शीतल वयार लेल ताकी छाही,
जीव जन्तु जनमानस हपसै,
मचल चहुँ दिश त्राहि त्राहि।
झुलसै लागल गाछ वृक्ष सब,
बरसाबै आइग पवनक संग नभ,
धार पोखरि मे पपड़ी पड़ि गेल,
हरियर मुँह पर लागल लाही।
बिसरि गेलहुँ पुर्वज कें मंतर,
गाछ बाँस लगौने सभतर,
लेकिन सबटा काटि कूटि केँ,
प्रकृति केर संग लेलहुँ ढाही।
आब नहि चेतब, चेतब कहिया,
धरा सुडाह बनि जायत जहिया,
फकसि फकसि केँ प्राण गँबायब
आबो तऽ किछु सोचबाक चाही।
एसी पंखा कतेक काल धरि,
सीर मे ठंढा तेल भरि भरि,
मानत नहि तहु पर जरलाही,
चलत सनैक कें लू सनकाही,
लातुर बना देत सगरो जग केँ,
गाछी वृक्ष लगेबाक चाहि।