मिथिलाक पाहुन श्रीराम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कोनाः पढू आ सिखू

भगवान्‌ श्रीराम केर दैनिक जीवनचर्या 

लेखक: श्री कमल प्रसादजी श्रीवास्तव

(स्रोत: कल्याण जीवनचर्या विशेषांक – भाया: धर्ममार्ग, अर्कुट, प्रवीण ना. चौधरी) मैथिली अनुवादकः प्रवीण नारायण चौधरी

sitaram1भगवान्‌ श्रीराम अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायक परम पिता परमेश्वर केर अवतार छलाह आर धर्मक मर्यादा रखबाक लेल भारतभूमि अयोध्या मे राजा दशरथ केर ओतय पुत्ररूप मे अवतरित भेल छलाह। ओहि समय राक्षसादिक बीभत्स रूप एतेक प्रचण्ड भऽ गेल जे ऋषि-मुनि, गौ एवं ब्राह्मण केर जीवन संकट मे पड़ि गेल छल। जतय-जतय कोनो शास्त्र-विहित यज्ञ-कर्म आदि कैल जाएत छल, राक्षसगण ओकरा विध्वंस करबाक लेल सदैव तत्पर रहैत छल। राक्षस केर राजा रावण भारत-भूमिपर अपना एकच्छत्र राज्य स्थापित करबाक लेल चारू दिस जाल पसारि रहल छल। देवता लोकनि केर आग्रह एवं अनुनय-विनय केर फलस्वरूप भगवान्‌ स्वयं अपन अंश सहित राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्नक रूपमे अवतरित भेलाह।

भगवान्‌ श्रीरामक आदर्श चरित्र केर विवरण हम भिन्न-भिन्न रामायण मे पबैत छी; जाहि मे वाल्मीकीय रामायण, अध्यात्मरामायण तथा परम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजीरचित श्रीरामचरितमानस प्रमुख अछि। एहि निबन्धक आधार जाहि मे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामजीक दिनचर्याक दिग्दर्शन कराओल गेल अछि, गोस्वामी तुलसीदासजीकृत रामचरितमानस थीक।

साधारण बालक सब जेकाँ बालकपन मे अपन छोट भाइ लोकनि आर बाल-सखा सबहक संग भगवान्‌ श्रीराम सरयू नदीक तटपर कन्दुकक्रीड़ा एवं अन्य खेल सब मे एना मस्त भऽ जाएथ जे हुनका खेबाक-पीबाक सुधि सेहो नहि रहि जाएत छलन्हि।

भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई॥रा.च.मा. १/२०३/६-७॥

अपन भाइ सबहक संग वेद-पुराण केर चर्चा करब, माता-पिता, गुरुकेर आज्ञानुसार प्रतिदिन दैनिक कार्य मे लागि जायब हुनक नित्य केर कार्यक्रम छल –

जेहि विधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥

बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥

आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥रा.च.मा. १/२०५/५-८॥

विश्वामित्र मुनि केर यज्ञक रक्षा भगवान्‌ श्रीराम द्वारा जाहि तत्परताक संग भेल तथा राक्षस सबहक भय सँ हुनका कोना निर्भय कएलनि, एहि सबहक झाँखी जखन हम रामचरितमानस मे देखैत छी तऽ हुनक वीरता, धीरता एवं कार्य-तत्परताक दिशा मे हमरा लोकनिक ध्यान बरबस आकर्षित भऽ जाएत अछि और हुनका हम सब धर्मक परम आदर्श केर रूप मे पबैत छी।

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥

होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥

बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥

मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥

भगति हेतु बहु कथा पुराना॥ कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥रा.च.मा. १/२१०/१-८॥

विश्वामित्र मुनि केर यज्ञक पूर्णाहुति पश्चात्‌ भगवान् श्रीराम और लक्ष्मणजी दुनु भाइ मुनिक संग धनुषयज्ञ देखबाक लेल जनकपुर पहुँचैत छथि। रास्ता मे गौतम ऋषि केर पत्नी अहल्या, जे शापवश पत्थर भऽ गेल छलीह, तिनकर उद्धार प्रभु द्वारा अपन चरणकमल केर धूलकण स्पर्श करबैत केलनि। भगवान्‌ श्रीराम आखिर पतितपावन तऽ छलाहे!

जनकपुर मे गुरुक सेवा करब भगवान्‌ श्रीराम और लक्ष्मणजी केर दैनिक कार्यक्रम छल। हुनक दिनचर्या मे भक्तवत्सलता, नम्रता आर संकोच केर सेहो स्थान रहैत छल। नगर-दर्शन केर वास्ते जखन लक्ष्मणजीक हृदय मे विशेष लालसा जाग्रत भेलनि तखन भगवान्‌ श्रीराम गुरुजी विश्वामित्र मुनि सँ कोना लजाएत आ विनती करैत आज्ञा माँगैत छथि, से देखू –

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥

प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥

परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥

जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥

सुनि मुनीस कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥

धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥रा.च.मा. १/२१८/१-८॥

नगर तथा धनुषयज्ञशाला देखिते-देखिते जखन अबेर भऽ गेलनि तऽ भगवान्‌ श्रीरामक मन मे भय भऽ गेलनि जे ओम्हर गुरुजी कहूँ अप्रसन्न नहि भऽ जाएथ। दुनु भाइ शीघ्रे गुरुजीक पास वापस आबि गेलाह।

सन्ध्याक समय सन्ध्यावन्दन और वेद, पुराण, इतिहासक चर्चा हुनकर दैनिक कार्यक्रम छल। जाहि श्रद्धा, निष्ठा एवं भक्ति सँ ओ गुरुजीक सेवा करैथ, तेकर झाँकी गोस्वामीजीक शब्द मे –

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दो‍उ भाई॥

जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥

बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥रा.च.मा. १/२२६/३-६॥

प्रातःकाल गुरुजीक जागय सँ पहिनहि भगवान्‌ श्रीराम जागि जाएथ तथा गुरुजीक सेवा मे लागि जाएथ।

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥

समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दो‍उ भाई॥रा.च.मा. १/२२७/१-२॥

भगवान्‌ श्रीराम धर्मक परम आदर्शस्वरूप छलाह आर हुनकर मन मे एकटा सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा तखन भेलनि जखन हुनका पता चललनि जे हुनकर राज्याभिषेकक तैयारी भऽ रहल अछि। विश्व-इतिहास मे ई एकटा बेजोड़ उदाहरण अछि। ओ अपन हृदयक उद्‌गार प्रकट एना केलनि –

जनमें एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥

करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥

बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥रा.च.मा. २/१०/५-७॥

मुदा जखन दोसरे दिन वनवासक सूचना भेटलनि तखन हुनका कनिकबो टा ग्लानि नहि भेलनि; बल्कि परम प्रसन्नता पबैत पिताक वचन केर रक्षाक लेल ओ चौदह वर्षक लेल ओ वन जा रहला अछि। कालिदास अपन महानतम् रचना रघुवंश मे एतय धरि लिखलनि अछि जे वनवासक सूचना पेला पर जखन लोक सब देखलक जे भगवान्‌ श्रीरामक जेहन पर कोनो तरहक शिकन धरि नहि आयल तऽ ओ सब आश्चर्यचकित भेल आर हुनकर दिव्य सुन्दर मुखमण्डल देखिते रहि गेल।

भगवान्‌ श्रीराम सेहो अपना आपकेँ बड पैघ भाग्यशाली बुझलनि आर एहि अवसर पर ओ कहलनि –

सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥रा. च. मा. २/४१/७-८॥

चित्रकूट मे वास करबाक समय भगवान्‌ श्रीराम केर दिनचर्या मे ऋषि-मुनि आदिक संग धर्मचर्चा एवं सत्संगक कार्यक्रम रहैत छल। ओ पत्नी तथा भ्राता केँ सेहो सुखी रखबाक चेष्टा करैथ।

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥

कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥राम.च.मा. २/१४१/१-२॥

वनवासकाल मे ऋषि-मुनि सँ भेंट-घाँट करब आ राक्षस सबहक संहार प्रभु श्रीराम केर दिनचर्याक मुख्य भाग छल। पृथ्वी केँ राक्षस सँ रहित करबाक लेल ओ मुनि समाजक सोझाँ मे प्रतिज्ञा केलनि आर ओकर पालन अन्तो-अन्त धरि कएलनि –

निसिचर हीन कर‍उँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥राम.च.मा. ३/९॥

भगवान्‌ श्रीराम केँ वन-गमनकाल मे अनेक प्रसंग – जेना वाल्मीकिजी संग भेंट, अत्रि संग मिलन, शरभंग तथा सुतीक्ष्णजी संग भेंट, अगस्त्यजी केर आश्रम मे प्रभुजीक पदार्पण, जटायुक उद्धार, शबरीजी सँ नवधा भक्तिक वर्णन, सुग्रीव सँ मित्रता, बालिवध, लक्ष्मणजीक संग सत्संग तथा नारद-राम-संवाद आदि अबैत अछि, जेकर माध्यम सँ हम सब भगवान्‌ श्रीरामजीक दिनचर्या-सम्बन्धी अनेकों बात बुझि पबैत छी आर ओकरा अपन जीवनक धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भगवद्भक्तिक तरफ अग्रसर करैत छी।

सीताहरण केर पश्चात्‌ प्रभु श्रीराम द्वारा किष्किन्धा मे पर्वत केर शिखरपर वास करब और ओतय हुनकर दिनचर्याक प्रधानता रहब लक्ष्मणजीक संग सत्संग।

फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ बैठे द्वौ भाई॥

कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका॥रा.च.मा. ३/१३/६-७॥

रावण केर वध कय सीतासहित प्रभु लंका सँ अयोध्या लौटैत छथि। अयोध्या मे हुनक दिनचर्याक झाँकी गोस्वामीजी केर शब्द मे –

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥

बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥

अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥रा.च.मा. ७/२६/१-३॥

प्रजापालनक वास्ते भगवान्‌ विशेष सचेष्ट एवं सतर्क रहैत छथि। राजसभा मे सनकादि तथा नारद आदि ऋषि प्रतिदिन अबैत छथि आर हुनका सँ वेद-पुराण तथा इतिहास केर चर्चा होएत अछि। भगवान्‌ श्रीरामक दिनचर्या केर अन्तिम झाँकी हम सब अयोध्याक अमराई मे पबैत छी –

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतर अवँराई॥

भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोजन जल भरई॥रा.च.मा. ७/५०/५-७॥

धर्मक परम आदर्शस्वरूप भगवान्‌ श्रीरामक दिनचर्या सँ हमरा सबकेँ एहेन प्रेरणा भेटैत अछि, जे जीवन केँ श्रद्धा, भक्ति एवं पवित्र प्रेम केर भावना सँ ओतप्रोत कय दैत अछि।

जय हो!

हरिः हरः!!