मैथिल खूब गप्पी टा होइत अछि, वास्तविकता यैह छैक। अहाँ गप खूब लय सकैत छी मैथिल जनमानस सँ। एकरा लेल खूब शोध केलाक बाद पता चलैत छैक जे बेसी रास लोक, कहि सकैत छी जे सब कियो अपन पैर पर ठाढ छथि या हेबाक लेल तत्पर छथि। निजी आवश्यकताक पूर्ति करबाक संघर्ष मे व्यस्त लोक लेल सामाजिक - सामुदायिक व्यवस्थापन ओतेक सरोकारक विषय नहि रहि जाइत छैक। निजी कामनाक पूर्ति करनिहार लोक केँ जनकल्याणक चिन्ता कम सतबैत छैक, कारण प्रतिस्पर्धा एहि लेल बेसी छैक जे ओकरा पास एतेक सम्पत्ति तऽ हमरा पास एतबी कियैक, हमरो भौतिक सुख-सुविधा कोना बढत ताहि लेल जे करय पड़त से करब। एहेन स्थिति मे के पूछैत अछि भाषाक संरक्षण-संवर्धन-प्रवर्धन केँ, केकरा चिन्ता हेतैक लोकसंस्कृतिक संरक्षण-संवर्धन-प्रवर्धन केर… के चिन्ता करत जे एक पीढी सँ दोसर पीढी मे नीक परंपराक हस्तान्तरण कैल जाय। काल्हि संङोर नाटक – मैथिली मे सर्वथा सबसँ पैघ रेडियो नाटक श्रृंखलाक एक लेखन प्रकाश प्रेमी जी साक्षात्कारक क्रम मे यैह किछु प्रश्न पूछने छलथि। लोकसंस्कृति – लोकगीत, मिथिलाक मौलिक संगीत आदि जे विलोपान्मुख अछि एकरा कोना बचायल जा सकैत अछि। एक पीढी सँ दोसर पीढी मे कोनो विशिष्ट कला केँ कोना पहुँचायल जा सकैत अछि। एक तरफ पहिचानक विशिष्टताक रक्षा लेल चिन्तन अछि, दोसर तरफ भौतिकतावादी युगक राक्षसी प्रसार। कतय विदेहक मिथिला आ कतय रावणक स्वर्णलंका। तथापि एक वर्ग जे एहि सब दिशा मे चिन्तन कय रहला अछि हुनकहि बदौलत परिवर्तन एतेक जरुर आओत जाहि सँ किछु हद तक ‘मिथिला’ जीबिते रहत। भरोसा अहू लेल करगर अछि जे आखिर कोन एहेन तत्त्व मिथिलाकेँ भूगोलविहीन अवस्था मे पर्यन्त आइ सनातन पहिचान सँ सम्मानित केने अछि। कोना एतेक गूढ ऐतिहासिक पहिचान सहित पौराणिक काल सँ वर्तमान युग धरि हमरा लोकनि ‘मिथिला आ मैथिली’ सँ चिन्हला जाइत छी। कोढिया चाहे हऽ – एहेन तरहक लोकोक्तिकेँ बल देबाक लेल नहि, हम ई भावना मात्र ओहि तत्त्व केँ आत्मसात करबाक लेल कहि रहल छी जाहि सँ चिन्तनक वर्ग मे अहुँ पड़ू। हरि: हर:!!