गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
॥ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ षष्ठोऽध्याय:
छठम् अध्याय
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥ १॥
श्रीभगवान् कहलैन — कर्मफलक आश्रय नहि लैत जे कर्तव्य-कर्म करैत अछि, ओ संन्यासी तथा योगी थीक और केवल अग्निक त्याग करयवला संन्यासी नहि होएछ तथा केवल क्रिया आदिक त्याग करनिहार योगी नहि होएछ।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ २॥
हे अर्जुन! लोक जेकरा संन्यास — एना कहैछ, तेकरे अहाँ योग बुझू; कियैक तऽ संकल्प केर त्याग केने बिना मनुष्य कोनो-टा योगी नहि भऽ सकैछ।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ ३॥
जे योग (समता) – मे आरूढ़ होमय चाहैछ, एहेन मननशील योगीक लेल कर्तव्य – कर्म करब कारण कहल गेल अछि आर वैह योगारूढ़ मनुष्यक शम (शान्ति) परमात्मप्राप्ति मे कारण कहल गेल अछि।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥ ४॥
कारण जे जाहि समय नहिये इन्द्रिय केँ भोगहि मे आर नहिये कर्महि मे आसक्ति होएत छैक, ताहि समय ओ सम्पूर्ण संकल्प केर त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहल जाएत अछि।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ ५॥
अपनहि सँ अपन उद्धार करब, अपन पतन नहि करब; कियैक तँ अपनहि अपन मित्र छी और अपनहि अपन शत्रु छी।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ ६॥
जे अपना-आपसँ अपना-आपकेँ जीत लेने अछि, ओकरा वास्ते अपनहि अपन बन्धु छी आर जे अपना-आपकेँ नहि जीतलक अछि, ओहेन अनात्माक आत्मे शत्रुता मे शत्रुक समान बर्ताव करैत अछि।
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥ ७॥
जे अपनापर विजय प्राप्त करैछ, ओ शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता), सुख-दु:ख तथा मान-अपमान मे निर्विकार, ओहि मनुष्य केँ परमात्मा नित्यप्राप्त छथि।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥ ८॥
जेकर अन्त:करण ज्ञान-विज्ञान सँ तृप्त अछि, जे कूट केर समान निर्विकार अछि, जितेन्द्रिय अछि और माटि, ढेला, पाथर तथा स्वर्ण – सब मे समबुद्धिवाला अछि — एहेन योगी युक्त (योगारूढ़) कहाएत अछि।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥ ९॥
सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धी मे तथा साधु-आचरण करनिहार मे और पाप-आचरण करनिहार मे सेहो समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ होएछ।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित:।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह:॥ १०॥
भोगबुद्धि सँ संग्रह नहि करयवाला, इच्छारहित और अन्त:करण तथा शरीर केँ वश मे राखयवाला योगी असगरे एकान्त मे स्थित भऽ कय मन केँ निरन्तर (परमात्मा मे) लगाबय।
क्रमशः……
हरिः हरः!!