संपादकीय
नेतागिरी कम, समाजसेवा बेसी करू
हरेक कार्यक वास्ते ‘राजनीतिक नेतृत्वकर्ता’ केँ माथ पर बैसायब हमरा बुझने ओतेक उचित नहि अछि। खासकय वर्तमान समय मे राजनीतिक कार्यकर्ता अधिकांशतः राज्यक खजाना खाली करयवला देखा रहल अछि, खजाना बढत कोना, ओकर दीर्घकालीन रक्षा केना हेतैक आर एहि तरहें राज्य व्यवस्था आरो बेसी सुदृढ कोना बनत, ताहि तरहक क्षमतावान नेतृत्वकर्ता आंगूर पर गानय योग्य नहि देखाएछ। तखन ‘नेता’ शब्द बेसी पोपुलर अछि वर्तमान युग मे, लूटू आ मलफाइ उड़ाउ – अहाँ भेलहुँ नेता। नेतागिरी लेल चमचा पोसू – गामक-गाम सुड्डाह करबाक दबंगइ देखाउ – जे बात नहि मानलक ओकरा ठाढे-ठाढ गोली मारबाक दुःसाहस अहाँ मे हेबाक चाही…. अहाँ भेलहुँ नेता। कलियुगी नेता!!
आइ-काल्हि नेतागिरीक पोपुलर फंडा मे वर्ग-विभेद लेल आवाज उठेबाक आर पिछड़ापण केँ दूर भगेबाक लेल ‘आरक्षण’ मंगबाक एकटा अत्यन्त लोकप्रिय सूत्र चलैत देखैत छी। वर्ग-विभेदक आवाज भारतीय गणराज्य मे गणतंत्र स्थापित भेलाक सातम दशक केर अन्तिम समय धरि ओहिना बनल अछि कही तऽ कोनो अतिश्योक्ति नहि होयत। कारण, आरक्षित वर्ग मे शिक्षाक प्रसार मे कतेक वृद्धि भेल, आर्थिक आत्मनिर्भरता मे कतेक सुधार भेल, रहन-सहन आ जीवनस्तर मे कतेक परिवर्तन आयल, तथाकथित शोषण-उत्पीडण सँ कतेक मुक्ति भेटल तेकर समीक्षा केला पर पता चलैत अछि जे ओहि विभेद मे पड़ल वर्गक भीतर सेहो कतेको प्रकारक विभेद कायमे अछि आर ई कोनो मानव-सृजित विभेदक पीड़ा सँ समस्या मे अछि से बात नहि, बल्कि प्रकृति-सृजित विभेदक शिकार जँ कहब तऽ बेजा नहि होयत। प्रकृति सृजित विभेदक अन्त करबाक लेल सहानुभूतिपूर्वक खसल वर्ग केँ सहारा दैत ऊपर उठेबाक नीति अपनाओल जाय, नहि कि संवैधानिक अधिकार मे ओकरा हिंसात्मक प्रतिक्रिया दैत अपना केँ दुलार-पुचकार लेल अन्य वर्ग सँ संघर्ष करबाक कोनो अधिकार देल जाय। मानव तऽ सब मानवे थीक, कियो खसल कियो उठल… खसबाक कारणक खोज आ तेकर समाधान समाज केँ तोडिकय नहि वरन् जोडिकय कैल जेबाक चाही – ओ होयत असल काज।
हम कोनो दूरक संस्कृति मे उपमा ताकब ताहि सँ पहिनहि अपन आधार संस्कृति मिथिला मे समस्या केर प्रकृति पर अध्ययन करब। जँ हम समाज प्रति सार्थक सोच रखैत छी, तऽ पहिने अपन समाजक समस्याक जैड केँ पकड़ब। बिना बीमारीक जैड़ पकड़ने चिकित्सकीय उपचार सँ निदान तऽ छोड़ू उनटा रियेक्सन सँ रोगीक जान तक जा सकैत छैक। समाजक विभिन्न वर्ग मे रहल असमानताक मुख्य जैड़ ओकर सामर्थ्यक विभिन्नता थिकैक। जहिना एक्कहि कक्षा मे ५० छात्र केर लब्धांक अलग-अलग वर्गक होएत छैक, ठीक तहिना हरेक व्यक्तिक क्षमता मे अन्तर होएत छैक। जातीय संस्कार केर मुताबिक कोनो विशेष जातिक व्यक्तिक क्षमता – सामर्थ्य मे सेहो भिन्नता आयब स्वाभाविक छैक। मुदा वर्ण व्यवस्थाक मनुकालीन विधान सँ वर्तमान विधान धरि फरक-फरक कय केँ बुझब-मानब एक्के रंग रहलैक अछि, भले व्याख्या आ नामकरण अलग-अलग शैली मे कियैक नहि कैल जाय। जँ वर्णव्यवस्थाक चारि भाग आदिकाल मे चर्चित अछि तऽ वर्तमान समय सेहो जेनेरल, ओबीसी, एससी आ एसटी मे लोक केँ वर्गीकृत कैले गेल छैक। तखन तऽ वैह बात भेल न, नव बोतल मे पुरान शराब! अहाँ सेहो वैह वर्गीकरण मे पड़ैत छी, विभेदकेँ संविधानक मत सँ मान्यता दैत छी आ फेर मनुकालीन विधान केँ जरबैत छी, अहाँ कतेक पैघ बुधियार छी स्वतः स्पष्ट अछि।
सामर्थ्यक विकास लेल घरैया लूरि आ सामाजिक अर्थ व्यवस्था केँ जँ पौराणिक काल मे देखैत छी तऽ आइ सँ बेसी संतुलित आ समुचित व्यवस्था देखाएत अछि। कम सँ कम सब वर्ग लेल एकटा श्रम-आधारित कार्य केँ आरक्षित कय देल गेल छलैक। आब तऽ काज वैह छैक, सब काज मे सामर्थ्यक प्रतिकूल केवल नाम लेल स्थान आरक्षित कय देलियैक। पहिने प्रकृति-सत्यापित न्याय सँ सामाजिक अर्थ व्यवस्था चलैत रहल, ताहि अनुसारे धर्म व्यवस्था केँ मान्यता भेटल। मुदा आब अहाँ ककटेल अर्थ व्यवस्था चलबैत छी, दसकों बितबैत छी आ फेर समाधान तकैते माथ पिटैत छी। आर, नेताजी छी, बिना कोनो दृष्टिकोण आ दृष्टि केँ ‘सामाजिक न्याय’ केर रट्टा लगबैत छी। औ जी! एकटा स्वस्थ शरीर केर निर्वाह लेल सब अंग स्वस्थ ढंग सँ कार्य करैत छैक, सबहक अपन कार्य (फंक्शन) छैक, हाथ जँ माथक काज करय लागय आ माथ जँ हाथक काज करय लागय तऽ बुझि जाउ जे न्याय कोना भेटत। अहाँ नेताजी छी आर हाथ-माथ मे सहयोग-समन्वय केर संस्कृति केँ संरक्षण-संवर्धन नहि कय मारि फँसबैत छी…. तऽ नोचय दियौक हाथ केँ माथक केश आ कटबाबय दियौक अपनहि हाथ केँ माथ द्वारा…. भिड़ल रहू आ मारि-काटि देखैत रहू।
हम तऽ कहब जे सामाजिक न्याय लेल अहाँक वेद-वेदान्त विशुद्ध बात रखैत अछि। विश्व अहाँक शास्त्रीय पद्धति केँ बेजोड़ मनैत अछि। मुदा अहाँ स्वयं अपन संस्कार केँ छोड़ि कौआ रहितो कोयल बनबाक एकटा लौल पोसैत छी। अहाँ सुधरब, तखनहि नेताजी लोकनि मे सुधार होयत। नेताजी केँ लूट-खसोट मे अहाँ सहयोगी बनल रहब तऽ कल्याण लेल चिन्तन बेकार अछि। खूब तारी-दारू पिबू आ लिवर-एस्प्लीन (यकृत-पिलही) केँ खराब कय किदैन चियाइर मैर जाउ। समाजक चिन्ता समाजक असल मार्गदर्शक संत-विचारक सब केँ सोचय दियौन। दुनिया जीबिते रहत, कारण ई प्रकृति निर्मित सृष्टि निर्माता ईश्वरक थीक आर ओ भले अहाँक आँखि सँ अदृश्य होएथ, मुदा संचालक वैह आ हुनकहि अप्पन लोक थीक। हुनकर अपनहु लोक मे कइएक टा थोथा – पोंगा ढकोसलाबाज सब अछि, मुदा ढकोसला नुकेलो सँ नुकाइत नहि छैक। ओ पाखंड – देखाबा अपन रंगीन आ आकर्षणक चोला सँ अपने तेना नांगट बनि बहराइत छैक जे फेर लोक थूको फेकब मोनासिब नहि मानैत छैक। तैँ, अपन नैतिकता केँ ऊपर राखू, अपन योगदान केँ भरपूर सकारात्मक राखू आ नेताजी केँ लाइन मे रखबाक लेल महानेता बनिकय कर्तब्य पूरा करू।
हरिः हरः!!