गीताः मोक्ष लेल ज्ञान सँ निज-अज्ञानताक नाश जरुरी होएछ

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
 
krishna-arjun-54ffdf5405270_exlst(निरन्तरता मे….. संन्यास योग नीक आ कि कर्मयोग… अर्जुनक एहि प्रश्न पर अध्याय ५ मे भगवान् कृष्ण द्वारा एहि दुनू योग बीच तूलनात्मक वर्णन, श्लोक १५ उपरान्त)
 
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ १६॥
 
मुदा ओ जे अपन ज्ञान सँ ओहि अज्ञान केँ नाश कय दैछ, ओकर वैह ज्ञान सूर्य समान परमतत्त्व परमात्मा केँ प्रकाशित कय दैत अछि।
 
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥ १७॥
 
जेकर मन तदाकार भऽ रहल हो, जेकर बुद्धि तदाकार भऽ रहल हो, जेकर स्थिति परमात्मतत्त्व मे हो, एहेन परमात्मपरायण साधक ज्ञान द्वारा पापरहित भऽ कय अपुनरावृत्ति (परमगति)-केँ प्राप्त होएत अछि।
 
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदृशन:॥ १८॥
 
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण मे और चाण्डाल मे तथा गाय, हाथी एवं कुत्ता मे सेहो समरूप परमात्मा केँ देखनिहार होएत अछि।
 
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥ १९॥
 
जेकर अन्त:करण समता मे स्थित अछि, ओ एहि जीवित-अवस्था मे सम्पूर्ण संसार केँ जीत लैत अछि अर्थात् ओ जीवन्मुक्त भऽ गेल अछि; कियैक तऽ ब्रह्म निर्दोष और सम अछि, ताहि लेल ओ ब्रह्म मे मात्र स्थित अछि।
 
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥ २०॥
 
जे प्रिय केँ पाबियो कय हर्षित नहि हो और अप्रिय केँ पाबिकय उद्विग्न नहि हो, वैह स्थिर बुद्धिवाला मूढ़तारहित (ज्ञानी) तथा ब्रह्म केँ जानयवाला मनुष्य ब्रह्म मे स्थित अछि।
 
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ २१॥
 
बाह्यस्पर्श (प्राकृत वस्तुमात्रकेर सम्बन्ध)-मे आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक अन्त:करणमे जे (सात्त्विक) सुख अछि, ओकरा प्राप्त होएत अछि। फेर ओ ब्रह्म मे अभिन्नभाव सँ स्थित मनुष्य अक्षय सुख केर अनुभव करैत अछि।
 
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥ २२॥
 
कियैक तँ हे कुन्तीनन्दन! जे इन्द्रिय और विषय केर संयोग सँ पैदा होमयवाला भोग (सुख) अछि, ओ आदि-अन्तवाला आर दु:ख केर टा कारण थीक। अत: विवेकशील मनुष्य ओहि मे रमण नहि करैत अछि।
 
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:॥ २३॥
 
एहि मनुष्यशरीर मे जँ कियो मनुष्य शरीर छूटला सँ पहिनहि काम-क्रोध सँ उत्पन्न होमयवाला वेग केँ सहन करबा मे समर्थ होएत अछि, ओ नर योगी अछि और वैह सुखी सेहो अछि।
 
योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्-र्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ २४॥
 
जे मनुष्य केवल परमात्मा मे सुखवाला और केवल परमात्मा मे रमण करनिहार अछि तथा जे केवल परमात्मा मे ज्ञानवाला अछि, ओ ब्रह्म मे अपन स्थिति केर अनुभव करयवाला (ब्रह्मरूप बनल) सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म केँ प्राप्त होएत अछि।
 
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥ २५॥
 
जेकर शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियसहित वश मे अछि, जे सम्पूर्ण प्राणी केर हित मे रत अछि, जेकर सम्पूर्ण संशय मेटा गेल अछि, जेकर सम्पूर्ण दोष नष्ट भऽ गेल अछि, ओ विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्म केँ प्राप्त होएत अछि।
 
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥ २६॥
 
काम-क्रोध सँ सर्वथा रहित, जीति चुकल मोनवाला आर स्वरूप केर साक्षात्कार कय चुकल सांख्ययोगी केर वास्ते सब तरहें (शरीरक रहितो वा शरीर छूटियो गेलाक बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण अछि।
 
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥ २७॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:॥ २८॥
 
बाहरक पदार्थ केँ बाहरे छोड़िकय और नेत्र केर दृष्टि केँ भौंह केर बीच मे (स्थित कय केँ) तथा नासिका मे विचरन करयवाला प्राण और अपान वायु केँ सम कय केँ जेकर इन्द्रिय, मन और बुद्धि अपना वश मे छैक, जे केवल मोक्ष-परायण अछि तथा जे इच्छा, भय और क्रोध सँ सर्वथा रहित अछि, ओ मुनि सदा मुक्त टा अछि।
 
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥ २९॥
 
हमरा सब यज्ञ और तप केर भोक्ता, सम्पूर्ण लोक केर महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणी केर सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानिकय भक्त शान्ति केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।
 
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम
पञ्चमोऽध्याय:॥ ५॥
 
हरिः हरः!!