गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥ १॥
अर्जुन कहलखिन — हे कृष्ण! अपने कर्म केर स्वरूप सँ त्याग करबाक और फेर कर्मयोग केर प्रशंसा करैत छी। तैँ एहि दुहू साधन मे जे एक निश्चितरूप सँ कल्याणकारक हो, से हमरा वास्ते कहू।
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ २॥
श्रीभगवान् कहला — संन्यास (सांख्ययोग) और कर्म-योग दुनु कल्याण करयवाला अछि। परन्तु ओहि दुनु मे सेहो कर्मसंन्यास (सांख्ययोग)-सँ कर्मयोग श्रेष्ठ अछि।
ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ ३॥
हे महाबाहो! जे मनुष्य न केकरो सँ द्वेष करैछ और नहिये केकरो सँ किछु आकांक्षा करैछ, ओ (कर्मयोगी) सदा संन्यासी बुझय योग्य अछि; कियैक तँ द्वन्द्व सँ रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धन सँ मुक्त भऽ जाएत अछि।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ ४॥
नासमझ लोक सांख्ययोग और कर्मयोग केँ अलग-अलग (फलवाला) कहैछ, नहि कि पण्डितजन; कियैक तँ एहि दुनु मे सँ एक साधनो मे नीक जेकाँ स्थित मनुष्य दुहो बातक फल (परमात्मा केँ) प्राप्त कय लैत अछि।
यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥ ५॥
सांख्ययोगी लोकनि द्वारा जे तत्त्व प्राप्त कैल जाएछ, कर्मयोगी लोकनि द्वारा सेहो वैह प्राप्त कैल जाएछ। ताहि सँ जे मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग केँ (फलरूप मे) एक देखैछ, वैह ठीक देखैत अछि।
सन्न्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥ ६॥
मुदा हे महाबाहो! कर्मयोगक बिना सांख्ययोग सिद्ध होयब कठिन अछि। मननशील कर्मयोगी शीघ्रे ब्रह्म केँ प्राप्त भऽ जाएछ।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ ७॥
जेकर इन्द्रिय अपना वश मे छैक, जेकर अन्त:करण निर्मल छैक, जेकर शरीर अपना वश मे छैक और सम्पूर्ण प्राणी केर आत्मा टा जेकर आत्मा छैक, एहेन कर्मयोगी कर्म करितो ओहि मे लिप्त नहि होएत अछि।
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्न्गच्छ न्स्वपञ्श् नसन् ॥ ८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥ ९॥
तत्त्व केँ जानयवला सांख्ययोगी देखितो, सुनितो, छुबितो, सूँघितो, खाएतो, चलितो, ग्रहण करितो, बजैतो, (मल-मूत्र केर) त्याग करितो, सुतितो, साँस लैतो आर आँखि खोलितो वा मुँदितो ‘सम्पूर्ण इन्द्रिय इन्द्रियहिकेर विषय मे बरति रहल अछि’ — एना बुझिकय ‘हम स्वयं किछुओ टा नहि करैत छी’ — एना मानय।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ १०॥
जे (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्म केँ परमात्मा मे अर्पण कय केँ आर आसक्तिक त्याग कयकेँ कर्म करैछ, ओ जल सँ कमलक पत्ताक भाँति पाप सँ लिप्त नहि होएछ।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ ११॥
कर्मयोगी आसक्ति केँ त्यागि कय मात्र (ममतारहित) इन्द्रिय, शरीर, मन और बुद्धि केर द्वारा अन्त:करणक शुद्धिक लेल टा कर्म करैत छथि।
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥ १२॥
कर्मयोगी कर्मफल केर त्याग करैत नैष्ठिकी शान्ति केँ प्राप्त होएत छथि। जखन कि सकाम मनुष्य कामनाक कारण फल मे आसक्त होयबाक कारणे बन्हा जाएत छथि।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ १३॥
जेकर इन्द्रिय आर मन वश मे होएछ, एहेन देहधारी पुरुष नौ द्वारवाला (शरीररूपी) पुर मे सम्पूर्ण कर्म केँ (विवेकपूर्वक) मन सँ त्यागि कय नि:सन्देह कखनहु नहि करैत और नहिये करबावैत सुखपूर्वक (अपन स्वरूप मे) स्थित रहैत अछि।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ १४॥
परमेश्वर मनुष्य केँ नहिये कर्तापन केर, नहिये कर्म केर और नहिये कर्मफल केर संग संयोग केर रचना करैत छथि; मुदा स्वभाव टा बरैत रहल अछि।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥ १५॥
सर्वव्यापी परमात्मा नहि केकरो पाप-कर्म केँ और नहि शुभ-कर्म केँ कदापि ग्रहण करैत अछि; किन्तु अज्ञानसँ ज्ञान झँपा जाएत अछि, ताहि सँ सब जीव मोहित भऽ रहल अछि।
आइ केवल अन्वय राखि रहल छी। ध्यान केन्द्रित केने बिना कोनो ज्ञानक बात पर भाव आ विचारक सार राखब संभव नहि। पुनः आयब।
हरिः हरः!!