गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
यदृच्छालाभसन्तुष्टौ द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥४-२२॥
बिना कोनो खास प्रयासो सँ जतेक आबि गेल ततबे मे प्रसन्न (आत्मसंतुष्ट), द्वंद्व सँ अतीत (दूर, अप्रभावित), मत्सर (डाह, ईर्ष्या) सँ मुक्त, सफलता-असफलता दुनू मे समानरूप सँ रहनिहार, कर्म करितो बन्धन मे नहि रहैत अछि।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥४-२३॥
आसक्ति सँ अप्रभावित – मुक्त – ज्ञानावस्थितचेतसः अर्थात् चेतना सदैव ज्ञानहि मे केन्द्रित, यज्ञक लेल मात्र कर्म कएनिहारक संपूर्ण कर्म एतहि प्रविलित (पूर्णरूप सँ बहि जाएत) होएत अछि।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४-२४॥
अर्पण – अर्थात् यज्ञ मे देल गेल आहूति ब्रह्म थीक, हवि (मक्खनसँ निकालल गेल घ्यु) सेहो ब्रह्म थीक, आहूति देनिहार सेहो ब्रह्म थीक, जाहि अग्नि मे आहूति देल गेल सेहो ब्रह्म थीक, हर कर्म मे ब्रह्म मात्र केँ देखनिहार केवल ब्रह्म केँ प्राप्त करैत अछि।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥४-२५॥
किछु योगी मात्र देवता लेल यज्ञ (आहूति करबाक कर्म) करैछ, जखन कि आर लोक स्वयं केँ स्वयं वास्ते ब्रह्म केर अग्नि मे अर्पित करैत अछि।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥४-२६॥
किछु आर योगी अपन श्रवण व अन्य ज्ञानेन्द्रिय केँ संयमकेर अग्नि केँ अर्पित करैत अछि, तहिना किछु लोक अपन स्वर (आवाज) व अन्य विषय (इन्द्रिय सँ सम्बन्धित) केँ इन्द्रिय केर अग्नि केँ अर्पित करैत अछि।
एतय जीव आर देवताक बीच मे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध केर निर्वहन हेतु जे निहित यज्ञकर्म करबाक सामान्य विधान अछि ताहि पर भगवान् प्रकाश दैत हम विभिन्न मानव कोन तरहें यज्ञक अलग-अलग रूप मे रत रहैत छी तेकर व्याख्या करैत कहलैन अछि, जतय एक दिशि सब किछु ब्रह्म हेबाक बात कहलैन ओत्तहि विशेष अभीष्ट केर प्राप्ति लेल देवता प्रति समर्पण सँ कोनो निश्चित यज्ञकर्म कैल जाएछ तऽ केकरो द्वारा कहियो भूख केर विरुद्ध उपवास समान कठोर व्रतक धारणा, कियो भजन-कीर्तन गायन-श्रवण करबाक बात, कियो किछु तऽ कियो किछु…. नाना विधि सँ यज्ञ करबाक विधान भगवान् व्यवहारिक दुनियाक रूप कहैत वर्णन केलनि अछि।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥४-२७॥
किछु आर लोक (योगी) इन्द्रियकर्म केँ आर तहिना किछु लोक प्राणकर्म (दम साधना, प्राणायाम आदि जे मुख्य उर्जा-स्रोत सँ संचालित होएछ) केँ ज्ञानप्राप्ति भेला सँ आत्मसंयम केर योगाग्नि मे अर्पित करैत अछि।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥४-२८॥
किछु लोक संपत्ति, किछु तपस्या आर योग, तथा किछु आर लोक द्वारा कठोर प्रण तथा यत्न (स्वयं द्वारा निग्रह सँ कोनो कर्म करबा सँ बचबाक अभ्यास), किछु द्वारा स्वाध्याय (शास्त्र-पुराणकेर अध्ययन) तथा ज्ञानार्जन आदि केँ अर्पण कैल जाएछ।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति॥४-२९॥
किछु लोक (योगी) बाहर जायवला साँस (अपान) केँ भीतर जायवला साँस (प्राण) मे, आर भीतर जायवला साँस (प्राण) केँ बाहर जायवला साँस (अपान) मे, बाहर आर भीतरजायवला साँस दुनू केँ रोकबाक आदि क्रिया सँ प्राणायामपरायण अर्थात् सर्वथा शक्तिक केन्द्र उर्जा प्राण केँ संचालित करबाक निरन्तर अभ्यास करैत अछि, जखन कि आरो किछु लोक नियमित आहार केर सेवन सँ प्राण तथा ओकर क्रियात्मक प्रणाली केँ अर्पित करबाक कार्य करैत अछि।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥४-३०॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥४-३१॥
ई सब यज्ञ केर जानकार, अपन पाप (कमजोर-अनुचित कर्म) केँ यज्ञ द्वारा क्षय कएनिहार, तथा यज्ञक शेषान्न ‘प्रसाद’ मात्र केँ ग्रहण कएनिहार – ई सब सनातन ब्रह्म केँ प्राप्त करैत अछि। ई संसार (लोक) अयज्ञ (यज्ञ नहि कएनिहार) वास्ते नहि अछि तखन फेर अन्य केर हाल कि होयत से स्वतः सोचू हे कुरु मे श्रेष्ठ अर्जुन।
एतय स्पष्ट कैल गेल जे ई संसार केवल यज्ञ कएनिहार वास्ते बनल अछि। अयज्ञ केर लेल ई लोक कहियो सार्थक नहि भऽ सकैत अछि। तखन तऽ अन्य लेल एहि लोक केर महत्ताक कल्पना सेहो नहि कैल जा सकैत अछि। ओहेन लोक लेल तऽ ईहो संसार नहि तऽ फेर अन्य संसारक कल्पनो करब मुनासिब नहि होयत।
क्रमशः……
हरिः हरः!!